दो दिन पहले JNU में एक नारा सुना-
"तुम कितने अफज़ल मारोगे घर-घर से अफज़ल निकलेगा"
अब हमारा नारा सुनो -
"घर-घर मे घुस कर मारेंगे, जिस घर से अफज़ल निकलेगा" -----
"तुम कितने अफज़ल मारोगे घर-घर से अफज़ल निकलेगा"
अब हमारा नारा सुनो -
"घर-घर मे घुस कर मारेंगे, जिस घर से अफज़ल निकलेगा" -----
आज अगर वामपंथी भारत में देश के खिलाफ हरकतें कर रहे हैं, तो कोई नयी बात नहीं कर रहे। 1917 में रूस में पैदा हुए वामपंथ ने 1929 में भारत में मेरठ के कारखाने में हड़ताल करवा कर ( जो कि मेरठ कांड के नाम से मशहूर हुआ था ) अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। आज का मीडिया और कोई वामपंथी यह नहीं बताएगा कि गांधीजी के "भारत छोड़ो " आंदोलन को विफल बनाने के लिए इन्होने अंग्रेज़ों के कितने तलवे चाटे थे( 150 से अधिक कागज़ी दस्तावेज़ उपलब्ध हैं , जिसमें वामपंथियों ने अंग्रेज़ों के साथ प्रतिबद्ध रहने की कसमें खायीं थीं, और भारत के स्वतंत्रता संग्राम को धोखा दिया था )। अंग्रेज़ों और जवाहर लाल नेहरू की रहमत का नतीजा ही था कि आज़ादी के बाद ये वामपंथी महत्वपूर्ण संस्थानों में उच्च पद पाने में सफल रहे।
जवाहर लाल नेहरू से याद आया कि विषय तो जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी है।
14 अक्टूबर 2014 को एशिया के मानवाधिकार आयोग ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की जिसकी हैडलाइन थी --- “INDIA: Raid of Forward Press office is attack on freedom of expression”जिसमे "फॉरवर्ड प्रेस" नाम की दलित पत्रिका के अक्टूबर 2014 के अंक को तथा महिषासुर शहीदी दिवस को JNU में प्रतिबंधित करने के लिए दिल्ली पुलिस की भर्तस्ना की गयी थी। फॉरवर्ड प्रेस के उस अंक को पुलिस ने 9 अक्टूबर को इसलिए जब्त किया था क्योंकि माह अक्टूबर के उस अंक में फॉरवर्ड प्रेस ने "माँ दुर्गा " का बहुत ही अश्लील चित्र उस अंक में छापा था। पत्रिका के ज़ब्त होते ही JNU प्रशासन ने महिषासुर शहीदी दिवस मनाने की अनुमति को रद्द कर दिया। बात न तो यहाँ से शुरू होती है और न ही यहीं पर खत्म होती है।
इसके बाद SFI के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार पिंडिगा अम्बेडकर ने छद्म नाम से कावेरी हॉस्टल का मेस हॉल "Cultural ReInterpretation " पर चर्चा के लिए बुक कर लिया। इस Cultural reinterpretation में चर्चा का विषय था " क्या दुर्गा एक सेक्स वर्कर थी "------- कुछ BA के छात्रों ने होंसला दिखा कर इसका विरोध किया तो , उन्हें , माँ दुर्गा और हिन्दू धर्म को गलियों का सामना करना पड़ा , लेकिन बात बढ़ गयी और पुलिस के हस्तक्षेप के बाद यह कार्यक्रम भी स्थगित हो गया। 2009 में शुरू हुए महिषासुर शहीदी दिवस का इस तरह JNU में अंत हुआ। इससे पीछे चलें तो 2001 से पहले JNU में दुर्गा पूजा का आयोजन नही किया जा सकता था। बाहर की दुर्गा पूजा में सम्मिलित हो कर आये छात्र वामपंथियों और डर से अपने तिलक मिटा देते थे और कलावा उतार का यूनिवर्सिटी में दाखिल होते थे। 2001 की JNU की दुर्गा पूजा में मूर्तियों और हवन कुण्ड तोड़ने के लिए वामपंथी छात्रों की अगुवाई JNU के डीन M H Qureshi ने खुद की थी लेकिन इस प्रतिरोध ने एक छोटे मोटे दंगे का रूप ले लिया और डीन और वामपंथी छात्रों को वहां से भागना पड़ा।
रमज़ान , ईद और क्रिसमस तो JNU में बहुत शोखी से मनाई जाती है , लेकिन वो कौन सा हिन्दुओं का त्यौहार है जिस पर वहां के वामपंथी विद्यार्थी संगठन अभद्र पोस्टर और पैम्फलेट छाप कर इन त्योहारों का विरोध नहीं करते। अरबी और उर्दू भाषा को तो बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है , लेकिन संस्कृत के विद्यार्थी उपहास का पात्र बनते हैं। दलित,मूलनिवासी, Aryan Invasion Theory , मुग़ल आक्रान्ताओं का महिमामंडन , रामजन्मभूमि पर भगवान राम का मंदिर कभी था ही नहीं , ये सभी मुद्दे JNU के इतिहासकारों के दिए हुए ही हैं।
और अब , जब अफज़ल गुरु इनका हीरो हो गया, कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए और पाकिस्तान ज़िंदाबाद हो गया तो मैं यही कहूँगा कि -------जाति नाम पर बहस करने वाले , धर्म के नाम पर बहस करने वाले या सहिष्णुता को मुद्दा बनाने वाले, अफज़ल गुरु, मकबूल बट और याकूब मेमन की फांसी से आहत उसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले या अपने आप को प्रगतिशील कह कर सिर्फ हिन्दू धर्म में खामियां ढूँढने वाले लोग जब पिट जाते हैं तो अपने मौलिक अधिकारों की दुहाई देने लगते हैं। टीवी एंकर बहुत ज्ञान की बातें करके उनके मौलिक अधिकारों के हनन की घुट्टी पिलाने लगते हैं। अंग्रेजी अखबारों की मानसिकता देखिये, बजाये कि JNU को गलत ठहराने की बजाये , गृहमंत्री और मानव संसाधन मंत्री को ही अपने सम्पादकीय कॉलम में कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। मीडिया वाले यह तो सब बताते हैं कि भारतीय संविधान ने हर नागरिक को 6 मौलिक अधिकार दिए हैं कानून के मूर्धन्य विद्वान बहस के दौरान यह कभी नहीं कहते कि इन सब अधिकारों की सीमायें भी हैं।
और यह भी कोई नही बताता कि इन अधिकारों के साथ साथ संविधान में 10 मौलिक कर्तव्यों के ऊपर पूरा का पूरा एक अध्याय दिया हुआ है। अपने अधिकार मांगना तो रोहित भी जानता है, मायावती भी जानती है और याकूब मेमन के वो वकील भी जानते हैं जिन्होंने रात को ढाई बजे सर्वोच्च न्यायालय की पीठ को फांसी रोकने के लिए जगाया था, लेकिन कभी अपने मौलिक कर्तव्यों की बात भी कर लिया करो।
किसको दोष दें ??? आज की शिक्षा पद्धति को, जिसमे बच्चों को उनके कर्तव्यों से वाकिफ नहीं कराया जाता ??? या इस शिक्षा पद्धति को तैयार करने वाले वामपंथियों को , जिनके लिए सिर्फ भारत में मस्जिद धर्मनिरपेक्ष और मंदिर साम्प्रदायिक होता है , इमाम धर्मनिरपेक्ष और साधु-संत साम्प्रदायिक होते होते हैं , मुस्लिम लीग और AIMIM (ओवैसी ) धर्मनिरपेक्ष है और आरएसएस साम्प्रदायिक है , वन्दे मातरम साम्प्रदायिक है और अल्लाह हो अकबर धरनिरपेक्ष है , प्रवीण तोगड़िया साम्प्रदायिक है ,आज़म और बुखारी धर्म निरपेक्ष हैं ,जहाँ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी सांप्रदायिक है और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी , अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिआ मिलिया इस्लामिया धर्मनिरपेक्ष हैं, जहाँ बहुसंख्यकों की भावनाओं की बात करना साम्प्रदायिक हैं और मुस्लिमों और ईसाईयों की बात करना धर्मनिरपेक्षता है।
इन सब घटनाओं के चलते ,JNU प्रशासन से भारत का एकलुटे हुए करदाता और एक पिटे हुए नागरिक होने की हैसियत से एक सवाल करना चाहता हूँ ---------
तू इधर उधर की न बात कर , ये बता रस्ता किसने रोका।
मुझे रहजनी का गिला नहीं , तेरी रहबरी का सवाल है।
(रहजनी --लूटना , रहबरी --- मार्गदर्शन )