ये पहले मुसलमान हैं उसके बाद भारतीय ----डॉ अम्बेडकर (1940)
भारत के उत्तर पश्चिम म्यंमार से 3433.2 किमी दूर अमृतसर की खैरुद्दीन मस्जिद से लोगो ने रोहिंग्या मुसलामानों के समर्थन में शुक्रवार (08/09/17)को जुमे की नमाज़ के बाद जलूस निकाला। भारत के सुदूर दक्षिण में म्यंमार से 4293.4 किमी दूर केरल में समस्त केरल जमियतुल उलेमा ने जुमे की नमाज (08/09/17) में रोहिंग्या मुसलामानों के समर्थन में नमाज अदा की और 11 सितम्बर को दिल्ली में म्यंमार के दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शन करने की घोषणा की है।
इस्लाम को शांति और भाईचारे का मज़हब बताने वाले दुनिया भर के मुसलामानों और बुद्धिजीवियों को आज इंसानियत याद रही है। आज के ये बुद्धिजीवी मोपला और नोआखली में लाखों हिन्दुओं के कत्ले आम के जवाब नहीं दे पाएंगे। पर आज इन रोहिंग्या मुसलमानों को सहानुभूति दिखाने वालों को 1990 में न कश्मीर के शरणार्थियों से कोई सहानुभूति हुई और न 2014 में इराक के कुर्द और यज़ीदियों से कोई सहानुभूति हुई। आदमी मारे गए, बच्चे और औरतें जानवरों की तरह बाजार में बेचीं गयीं , मगर एक भी बुद्धिजीवी नहीं बोला।
कुछ दिन पहले एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने डंके की चोट पर कहा था की भारत में वामपंथी पत्रकार अमरीका से मोटा पैसा पा कर उसका एजेंडा चला रहे हैं। ये तो चरित्र हुआ वामपंथी पत्रकारों का। अब भारत के मुसलामानों को इन्सानियत का पाठ याद आने लगा , इनके इस चरित्र को डॉ आंबेडकर 1940 में #थॉट्स_ऑन_पकिस्तान और बाद में 1945 में ही इसी पुस्तक के संशोधित संस्करण #पाकिस्तान _और_द_पार्टीशन_ऑफ़_इंडिया में बखूबी ब्यान कर दिया था।
इस पुस्तक के 12 वे अध्याय में अंग्रेज़ों से आज़ादी की लड़ाई के मुद्दे पर कांग्रेस गाँधी से मुसलामानों के मतान्तरों के लम्बे चित्रण के बाद पृष्ट 320 पर आंबेडकर लिखते हैं ----
" तमाम सिद्धातों को मद्देनज़र रखते हुए इस्लाम के इस सिद्धांत पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इस सिद्धांत के अनुसार , एक देश में जिसमे मुस्लिम शासक नहीं हैं, जब कभी मुस्लिम कानून और उस देश के कानून में विरोधाभास होगा , वहां पर ये लोग उस देश के कानून के ऊपर मुस्लिम कानून ही प्रभावी मानेंगे और देश के कानून को चुनौती देना ये न्यायसांगत मानेंगे।
8 जुलाई 1921 को कराची में हुई "आल इंडिया खिलाफत कॉन्फ्रेंस " में अध्यक्षता करते हुए मोहम्मद अली ने एक संकल्प पारित किया कि " उलेमाओं की यह ज़िम्मेदारी है कि धार्मिक रूप से वे यह सुनिश्चित करें कि कोई भी मुसलमान अंग्रेजी हुकूमत और सेना में ऐसा कोई आदेश नहीं मानेगा जो इस्लाम के खिलाफ हो। " उनकी इस तहरीर के लिए उनके ऊपर मुकद्दमा दायर किया गया जिसकी सफाई में उन्होंने बहुत लम्बे तर्क दिए जिसका सार यह है कि मुस्लिम सिर्फ खुदा के बताये हुए कुरान द्वारा दिए गए आदेशों के इलावा किसी और के न तो आदेश को मानेगा और न किसी का प्रभुत्व स्वीकार करेगा।"
मोहम्मद अली के उपरोक्त जवाब का संज्ञान लेते हुए आंबेडकर लिखते है कि " इससे जो भी एक स्थिर सरकार की कल्पना करता है उसके लिए चिंतित होना स्वाभाविक है। आगे आंबेडकर लिखते हैं कि " मुस्लिम धार्मिक कानों के हिसाब से दुनिया दो हिस्सों में विभाजित है-- दारुल इस्लाम ( इस्लाम का घर) और दारुल हर्ब ( लड़ाई का घर)। दारुल हर्ब वो देश हैं जहाँ मुसलमान सिर्फ रहते हैं मगर शासक नहीं हैं। जब मुसलामानों का यह धार्मिक क़ानून है तो भारत कभी भी संयुक्त रूप से हिन्दुओं और मुसलामानों की मातृभूमि नहीं हो सकता। यह मुसलमानों की ज़मीन हो सकता है पर यह संभव नहीं की हिन्दू और मुसलमान बराबरी के साथ रह सकें। , हाँ ,यह मुसलमानों की ज़मीन हो सकता है जब इसकी सत्ता मुसलामानों के हाथों में हो। जिस क्षण देश की सत्ता गैर मुस्लिमों के हाथों में चली जाती है , यह मुसलमानों की धरती नहीं रहती और दारुल इस्लाम की जगह दारुल हर्ब बन जाती है।
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए अम्बेडकर इनकी जिहादी मानसिकता की विवेचना करते हैं और 1919 में अफगानिस्तान के आमीर से भारत के ऊपर आक्रमण करने की घटना का ब्यौरा देते हुए पृष्ट 324 पर लिखते हैं --- न सिर्फ ये जिहाद की घोषणा कर सकते हैं बल्कि जिहाद को सफल बनाने के लिए किसी भी विदेशी मुस्लिम ताकत का सहारा ले सकते हैं। ( पृष्ट 325-26) मुसलामानों का तीसरा धार्मिक सिद्धांत यह है कि ये क्षेत्र / अथवा राष्ट्र की सीमाओं में नहीं बंधते , इनके बन्धन सामाजिक और धार्मिक होते हैं, जो कि क्षेत्र की सीमाओं से बाहर होते हैं। यही इनके सम्पूर्ण इस्लामीकरण का आधार होता है। यही कारण है जो भारत का हर मुसलमान कहता है कि वो पहले मुसलमान है फिर भारतीय है। इनका यह मनोभाव स्पष्ट करता है ,क्यों भारतीय मुसलमान भारत की प्रगति में बहुत कम हिस्सेदारी निभाते हैं और मुस्लिम देशों की समस्या के लिए अपने आपको पूरी तरह से थका देते हैं, और क्यों मुस्लिम देश इनके ख्यालों में पहले आते हैं और भारत बाद में आता है। ( यहाँ 1912 में बाल्कन के युद्ध. तथा 1922 में तुर्की और अरब देशो की यूरोप के देशों से युद्ध का उदहारण दिया गया है)
कुछ दिन पहले एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने डंके की चोट पर कहा था की भारत में वामपंथी पत्रकार अमरीका से मोटा पैसा पा कर उसका एजेंडा चला रहे हैं। ये तो चरित्र हुआ वामपंथी पत्रकारों का। अब भारत के मुसलामानों को इन्सानियत का पाठ याद आने लगा , इनके इस चरित्र को डॉ आंबेडकर 1940 में #थॉट्स_ऑन_पकिस्तान और बाद में 1945 में ही इसी पुस्तक के संशोधित संस्करण #पाकिस्तान _और_द_पार्टीशन_ऑफ़_इंडिया में बखूबी ब्यान कर दिया था।
इस पुस्तक के 12 वे अध्याय में अंग्रेज़ों से आज़ादी की लड़ाई के मुद्दे पर कांग्रेस गाँधी से मुसलामानों के मतान्तरों के लम्बे चित्रण के बाद पृष्ट 320 पर आंबेडकर लिखते हैं ----
" तमाम सिद्धातों को मद्देनज़र रखते हुए इस्लाम के इस सिद्धांत पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इस सिद्धांत के अनुसार , एक देश में जिसमे मुस्लिम शासक नहीं हैं, जब कभी मुस्लिम कानून और उस देश के कानून में विरोधाभास होगा , वहां पर ये लोग उस देश के कानून के ऊपर मुस्लिम कानून ही प्रभावी मानेंगे और देश के कानून को चुनौती देना ये न्यायसांगत मानेंगे।
8 जुलाई 1921 को कराची में हुई "आल इंडिया खिलाफत कॉन्फ्रेंस " में अध्यक्षता करते हुए मोहम्मद अली ने एक संकल्प पारित किया कि " उलेमाओं की यह ज़िम्मेदारी है कि धार्मिक रूप से वे यह सुनिश्चित करें कि कोई भी मुसलमान अंग्रेजी हुकूमत और सेना में ऐसा कोई आदेश नहीं मानेगा जो इस्लाम के खिलाफ हो। " उनकी इस तहरीर के लिए उनके ऊपर मुकद्दमा दायर किया गया जिसकी सफाई में उन्होंने बहुत लम्बे तर्क दिए जिसका सार यह है कि मुस्लिम सिर्फ खुदा के बताये हुए कुरान द्वारा दिए गए आदेशों के इलावा किसी और के न तो आदेश को मानेगा और न किसी का प्रभुत्व स्वीकार करेगा।"
मोहम्मद अली के उपरोक्त जवाब का संज्ञान लेते हुए आंबेडकर लिखते है कि " इससे जो भी एक स्थिर सरकार की कल्पना करता है उसके लिए चिंतित होना स्वाभाविक है। आगे आंबेडकर लिखते हैं कि " मुस्लिम धार्मिक कानों के हिसाब से दुनिया दो हिस्सों में विभाजित है-- दारुल इस्लाम ( इस्लाम का घर) और दारुल हर्ब ( लड़ाई का घर)। दारुल हर्ब वो देश हैं जहाँ मुसलमान सिर्फ रहते हैं मगर शासक नहीं हैं। जब मुसलामानों का यह धार्मिक क़ानून है तो भारत कभी भी संयुक्त रूप से हिन्दुओं और मुसलामानों की मातृभूमि नहीं हो सकता। यह मुसलमानों की ज़मीन हो सकता है पर यह संभव नहीं की हिन्दू और मुसलमान बराबरी के साथ रह सकें। , हाँ ,यह मुसलमानों की ज़मीन हो सकता है जब इसकी सत्ता मुसलामानों के हाथों में हो। जिस क्षण देश की सत्ता गैर मुस्लिमों के हाथों में चली जाती है , यह मुसलमानों की धरती नहीं रहती और दारुल इस्लाम की जगह दारुल हर्ब बन जाती है।
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए अम्बेडकर इनकी जिहादी मानसिकता की विवेचना करते हैं और 1919 में अफगानिस्तान के आमीर से भारत के ऊपर आक्रमण करने की घटना का ब्यौरा देते हुए पृष्ट 324 पर लिखते हैं --- न सिर्फ ये जिहाद की घोषणा कर सकते हैं बल्कि जिहाद को सफल बनाने के लिए किसी भी विदेशी मुस्लिम ताकत का सहारा ले सकते हैं। ( पृष्ट 325-26) मुसलामानों का तीसरा धार्मिक सिद्धांत यह है कि ये क्षेत्र / अथवा राष्ट्र की सीमाओं में नहीं बंधते , इनके बन्धन सामाजिक और धार्मिक होते हैं, जो कि क्षेत्र की सीमाओं से बाहर होते हैं। यही इनके सम्पूर्ण इस्लामीकरण का आधार होता है। यही कारण है जो भारत का हर मुसलमान कहता है कि वो पहले मुसलमान है फिर भारतीय है। इनका यह मनोभाव स्पष्ट करता है ,क्यों भारतीय मुसलमान भारत की प्रगति में बहुत कम हिस्सेदारी निभाते हैं और मुस्लिम देशों की समस्या के लिए अपने आपको पूरी तरह से थका देते हैं, और क्यों मुस्लिम देश इनके ख्यालों में पहले आते हैं और भारत बाद में आता है। ( यहाँ 1912 में बाल्कन के युद्ध. तथा 1922 में तुर्की और अरब देशो की यूरोप के देशों से युद्ध का उदहारण दिया गया है)
इन लोगों की निगाह में गाँधी जी ( काफिर )का क्या दर्जा था इस सन्दर्भ में मोहम्मद अली के 1924 में अलीगढ और अजमेर में दिए गए वक्तव्य इस प्रकार है ----( पृष्ट 332) गाँधी का चरित्र कितना भी शुद्ध क्यों न हो परन्तु मेरे धार्मिक नज़रिये से वो बिना चरित्र के मुसलमान से भी घटिया है। इसी वर्ष लखनऊ के अमीनाबाद पार्क की एक सभा में जब मोहम्मद अली से दुबारा पुछा गया कि क्या गाँधी जी के विषय में दिए गए वक्तव्य पर वे कायम हैं तो मोहम्मद अली ने दोहराया --" हाँ, मेरे धर्म और धर्म मत के हिसाब से मैं एक दुश्चरित्र और गिरे हुए मुसलमान को गाँधी से बेहतर समझाता हूँ।"
वो 1924 था आज 2017 है। कुछ बदला क्या ??? ( तीन तलाक़ पर इन्होने अंत समय तक संविधान को चुनौती दी और जद्दो जहद की, और यदि मुस्लिम महिलाएं सामने न आतीं तो जो अल्पमत से ये जो केस हारे हैं वो भी न हारते )। हमारी सरकारें सच्चाई से मुंह मोड़ कर कश्मीर समस्या पाकिस्तान प्रायोजित बतातीं हैं, जबकि हकीकत यह है कि वहाँ के बहुसंख्यक मुसलामानों को यह कबूल नहीं है कि उनके ऊपर काफिरों का शासन हो , इसीलिए पाकिस्तान के हालात जानते हुए भी वो पकिस्तान की सत्ता के अधीन आने या अपनी खुद की सत्ता की मांग कर रहे हैं। इन्हे दारुल इस्लाम चाहिए।
बाकि इनको कश्मीरी हिन्दुओं के मरने और रिफ्यूजी होने का कष्ट नहीं है , आतंकवादियों के मरने पर पूरा मातम होता है। 2014 से मारे जा रहे कुर्दों और यज़ीदियों का अफ़सोस नहीं है , पर रोहंगिया मुसलामानों के भारत में शरण देने पर पूरी सहानुभूति है।
कारण आप समझ ही गए होंगे। वही हैं जो अम्बेडकर जी ने आज से 80 साल पहले लिखे थे। इनके लिए देश से पहले धर्म है। आएंगे शरणार्थी बन कर , दारुल इस्लाम बना पाएं या नहीं पर कश्मीर , कैराना , पश्चिमी बंगाल और केरल बना कर हर कदम पर सुविधाएँ मांगेंगे और ये कह कर संविधान को हर कदम पर चुनौती देंगे कि हमारे लिए कुरआन का कानून ही अंतिम कानून है।
बाकि इनको कश्मीरी हिन्दुओं के मरने और रिफ्यूजी होने का कष्ट नहीं है , आतंकवादियों के मरने पर पूरा मातम होता है। 2014 से मारे जा रहे कुर्दों और यज़ीदियों का अफ़सोस नहीं है , पर रोहंगिया मुसलामानों के भारत में शरण देने पर पूरी सहानुभूति है।
कारण आप समझ ही गए होंगे। वही हैं जो अम्बेडकर जी ने आज से 80 साल पहले लिखे थे। इनके लिए देश से पहले धर्म है। आएंगे शरणार्थी बन कर , दारुल इस्लाम बना पाएं या नहीं पर कश्मीर , कैराना , पश्चिमी बंगाल और केरल बना कर हर कदम पर सुविधाएँ मांगेंगे और ये कह कर संविधान को हर कदम पर चुनौती देंगे कि हमारे लिए कुरआन का कानून ही अंतिम कानून है।
जिस कौम को #भारत_माता_की_जय कहने में गुरेज़ होता है , उम्मीद करता हूँ आप उसके#जय_भीम_जय_मीम के पीछे छुपे इरादों को समझ गए होंगे। भारत के लोग समँझे या न समझें म्यांमार के लोग समझ गए हैं।