रविवार, 19 अगस्त 2018

आज भी हम बाँटे जा रहे हैं


1)आज मेरे बहुत से आहत भाई #नोटा_नोटा चिल्ला रहे है
 2) सिर्फ 70 से 80 साल लगे भारतियों को अपनी जड़बुद्धि के कारण अपनी जड़ों और संस्कृति से कटने के लिए।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ,अंग्रेज़ों ने इस संग्राम का पूरा विश्लेषणात्मक अध्ययन किया और चिन्हित किया उन वर्गों को जिन्होंने इसमें हिस्सा लिया था। जिन सेनाओं ने इनका विरोध किया था उन्हें विघटित कर दिया। जिन्होंने इनका साथ दिया था उन्हें पुरुस्कृत करके अपने साथ मिला लिया। वैसे तो मुसलामानों ने भी विद्रोह में इनके खिलाफ लड़ाई लड़ी थी लेकिन, हिन्दू मुस्लिम भेद इन्हे मालूम था जिसके चलते मुसलामानों को गोद में बिठाने के लिए प्रलोभन दिए गए और पहले से हिन्दू मुस्लिम में पड़ी हुई फूट की खाई को और चौड़ा करना शुरू कर दिया । और एक वर्ण विशेष ( आप खुद समझने की कोशिश करें, मैं किस वर्ण को इंगित कर रहा हूँ) जिसने भारत भर में इनके खिलाफ विद्रोह का तंत्र तैयार किया था उसका ये सीधे तौर पर तो कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे तो उसके खिलाफ इतिहास लिख कर कर दुष्प्रचार शुरू दिया। #आर्यन_इन्वेजन_थ्योरीऔर मंदिरों का चढ़ावा वसूल कर आर्थिक रूप से कमर तोड़ने वाला #रिलीजियस_एंडोमेंट_एक्ट_1863 इसी दिशा में कुछ कदम थे।
माइकल मैकॉलिफ , इंग्लैंड के इसाई परिवार में पैदा हुआ और 1864 में पंजाब सूबे में प्रशासनिक अधिकारी के रूप में भेजा गया जो कि 1893 में पंजाब से ही सेवानिवृत हो गया और सिख धर्म अपना कर वहीँ बस गया। 1903 में प्रकाशित मैकॉलिफ के एक लेख " A Lecture on the Sikh Religion and its Advantages to the State" में 1901 की जनगणना का सन्दर्भ देते हुए , लेखक कहता है कि " पिछली जनगणना के दौरान गाँवों के सिखों ने अपने आपको हिन्दू बतया था, जो दरअसल वे थे भी"।
फिर 1980 के दशक में अचानक ऐसा क्या हो गया कि पंजाब की सड़कों पर हिन्दू मारे जाने लगे , खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स , बब्बर खालसा जैसे संगठन खड़े हो गए। मजे की बात की खालिस्तान को चाहने वाले जितने भारत में थे उससे ज्यादा इंग्लैंड कनाडा और पकिस्तान में थे और हैं। आज भी अफगानिस्तान और पकिस्तान के सिखों की किसी को चिंता नहीं है, मगर भारत के उस हिस्से पर खालिस्तान चाहिए जिसके नक़्शे में ननकाना साहिब जैसी महत्वपूर्ण जगहे हैं ही नहीं।
हिन्दुओं को खंड खंड करने का प्रयास तो पहले से ही चल रहा था, उसमे इज़ाफ़ा किया 1911 की जनगणना से। प्रान्तीय अधीक्षकों को आदेश दिए गए कि जिन्होंने अपने आप को सिर्फ हिन्दू घोषित किया है , उनकी जातियाँ और कबीले चिन्हित करके उनमे से प्रत्येक से निम्न सवाल पूछे जाएँ कि क्या वे ---
1) ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का खंडन करते हैं
2) उन्हें ब्राह्मणों या अन्य हिन्दू गुरुओं से मन्त्र दीक्षा नहीं दी जाती है।
3) वे हिन्दू देवी देवताओं को नहीं पूजते है।
4) अच्छे ब्राह्मण उनके पारिवारिक अनुष्ठान नहीं करते।
5)मंदिरों के गर्भगृहों में उनको प्रवेश की अनुमति नहीं है।
6) मृतकों को दफ़न करते हैं।
7) गौमांस का भक्षण करते हैं और गौ को पूजनीय नहीं मानते।
1911 की इसी जनगणना के आधार पर अपने तय पैमानों पर शेड्यूल कास्ट की सूची तैयार की और हिन्दू धर्म से अलग कर दिया। 1931 की जनगणना आते आते हिन्दुओं की जनगणना जातियों के आधार पर की जाने लगी और अनुसूचित जातियां और जनजातियां हिन्दू धर्म से अलग रख कर गिनी जाने लगीं। जातिप्रथा ईसाईयों और मुसलामानों में भी थी लेकिन उन्हें एक समूह में ही रखा गया।
बाकि इतिहास सबको मालूमहै कि कैसे संविधान, वामपंथियों ,मिशनरियों ने ,सत्ता के लालची नेताओ और मंडल कमीशन किसी ने कोई मौका नहीं छोड़ा हिन्दुओं के जेहन में ज़हर भरने का। गौर करें 70_से_80_साल भी नहीं लगे जड़ों से काटने और अपनों से अलग होने में।
रही बात #नोटा की तो सुप्रीम कोर्ट ने जब जब आरक्षण ( जो कि संविधान सभा के अनुसार 10 साल के लिए था) से उपजीत कुंठाओं का निराकरण करने की कोशिश की तब तब संसद ने 76वां , 77वां,81वां, 82 वां, 85 वां ,93वां संशोधन करके ऐसी छुरी से मक्खन लगाया जिससे एक को तो मक्खन लगा मगर दूसरे को ज़ख्म दे दिया।
इस मुद्दे पर मैं बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ। दिल मोदी के साथ है पर दिमाग कह रहा है कि या तो मोदी, विपक्ष और कैम्ब्रिज एनलिटिका के फेंके हुए जाल में फंस गए हैं या मेरे भाई।
आप मुझे मोदी या बीजेपी का गुलाम कह सकते हैं, पर याद रखियेगा आज ये स्थिति हिन्दू महासभा को और जनसंघ को वोट न देने के कारण आयी है। 2019 में मुसलमान अपना हित देखते हुए एकतरफा वोट डालेंगे। क्षेत्रीय दलों के समर्थक जिसमे ममता माया लालू मुलायम और आपको इस दशा में पहुँचाने के लिए ज़िम्मेदार कांग्रेस के समर्थक इन पार्टियों को वोट डालेंगे। आप #नोटा दबाएंगे उससे सिर्फ जीत हार का फासला कम होगा और जीते कोई भी हार आपकी ही होगी।
वैसे बहेलिये और अलग अलग दिशाओं में उड़ने वाले कबूतरों की कहानी तो याद होगी ही।
Facts about census , have been taken from "FALLING OVER BACKWARDS" By Arun Shourie 

शनिवार, 11 अगस्त 2018

#रूस_के_जासूस_का_भारत_को_तोड़ने_वाले_भारतियों_का_पर्दाफाश

#रूस_के_जासूस_का_भारत_को_तोड़ने_वाले_भारतियों_का_पर्दाफाश 

दूध तो आप सभी मित्रों ने ज़िन्दगी में कभी उबाला होगा और यह भी अनुभव किया होगा कि आप खड़े खड़े दूध के उबलने का इंतज़ार कर रहे हैं और फिर आपका ध्यान जरा सा चूका कि दूध अचानक से उबल कर बर्तन से बाहर। फिर करते रहिये साफ़ सफाई और सुनते रहिये दुनियाभर की बातें।
आज जो कांवरियों पर, गौरक्षकों पर, दलितों के मुद्दों पर , अल्संख्यकों के मुद्दों पर, जेएनयू में अचानक से उबाल नज़र आ रहा है वो एक दिन, एक महीने, एक साल या एक दशक की कहानी नहीं है। उसकी पतीली गैस पर आज़ादी मिलने के दिन से ही चढ़ा दी गयी थी।
यूरी बेज़मैनोव रूस का एक जासूस था जिसे इन्दिरा गाँधी की सरकार के दौरान केजीबी के एजेंट के रूप में भारत भेजा गए था। इंदिरा गाँधी तक को इस बात की भनक नहीं थी कि दुभाषिये के रूप में ये जासूस है। एक अमेरिकन टीवी को अपने इंटरवयू में बेज़मैनोव बताता है कि उसकी टीम को भारत में "#यूज़फुल_इंडियन_इडियट्स का ब्रैनवॉश करके वामपंथी आइडियोलॉजी वाला गैंग तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी।
उन्हें रसूखदार व्यक्तियों, भारतीय मीडिया से जुड़े व्यक्तियों, फिल्मकारों , शिक्षा जगत से जुड़े बुद्धिजीवियों, अहंकारी और सनकी व्यक्तियों जिनके कोई आदर्श और नीतियाँ न हों ऐसे लोगों को भर्ती करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था।
उदाहरण के लिए , सुमित्रा नन्दन पंत जिन्होंने " Rhapsody To Lenin" लिखी थी , इस कारण उन्हें रशिया आमंत्रित किया गया , जिसका पूरा खर्च रूस की सरकार ने वहन किया था। #लिंक में सुमित्रा नंदन पंत जिस सभा में खड़े हो कर कुछ कह रहे हैं हैं उनकी मेज पर शराब की बोतलें नज़र आ रहीं है। इन शराब की बोतलों की तरफ इशारा करते हुए बेज़मैनोव कहता है कि मेहमानों की जागरूकता और जिज्ञासा को मारने का यह एक तरीका था। केजीबी के कार्यों में एक मुख्य कार्य मेहमानों को हमेशा नशे में धुत्त रखना होता था। जैसे ही कोई मेहमान मास्को एयरपोर्ट पर उतरता था उसे मेहमानों के लिए बनाये गए विशिष्ट कक्ष में ले जाया जाता था और दोस्ती के नाम पर एक जाम होता था। एक गिलास वोदका फिर दूसरा गिलास वोदका और कुछ ही समय में मेहमान को दुनिया गुलाबी नज़र आने लगती थी। और 10-15 दिन जब तक मेहमान रशिया में रहता था तब तक उन्हें इसी हालत में रखा जाता था।
आगे यूरी बेज़मैनोव बताता है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेस्सरों ,वामपंथी और वामपंथ की तरफ झुकाव रखने वाली पार्टियों , लेखकों, कवियों, भारतीय मीडिया , समाचार पत्रों, नक्सलवादियों और माओवादियों को आज़ादी के बाद से ही रूस वामपंथी आइडियोलॉजी को भारत में फ़ैलाने के लिए फंडिंग करता चला आ रहा है।
अपने अभियान के पहले चरण में उन्होंने जेएनयू और डीयू के प्रोफेसरों से दोस्ती की। दुसरे चरण में ये इन प्रोफेसरों को इंडो सोवियत फ्रेंडशिप सोसाइटी की बैठक में बुलाते थे। इन मीटिंग्स का पूरा खर्च सोवियत सरकार वहन करती थी। इन प्रोफेसरों को यकीं दिलाया जाता था कि वे बहुत गंभीर और विलक्षण किस्म के बुद्धिजीवी हैं। जबकि असल भावना इसके बिलकुल विपरीत होती थी। उन्हें बुलाया इसलिए जाता था क्योंकिवे " यूज़फुल इडियट्स" होते थे और वे सोवियत संघ द्वारा पढ़ाई गयी पट्टी को बहुत एकाग्र चित से कंठस्थ करके भारत आते थे और फिर अपने द्वारा पढ़ाये जाने वाले हर विद्यार्थी को वामपंथ की वही पट्टी दशकों तक पढ़ाते थे। (जरा सोचिये --जेएनयू की निवेदिता मेनन क्या इसी श्रेणी में तो नहीं आतीं ???)
बेज़मैनोव के अनुसार भारत के वामपंथ, लेफ्टविंग मीडिया छदमबुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों को इस समय पाकिस्तान की आई इस आई (ISI) पोषित और संचालित कर रही है। जो लोग सोवियत और आईएसआई की विचारधारा को आगे बढ़ाते हैं उन्हें मीडिया के शोर और फ़र्ज़ी जनमत के आधार पर महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया जाता है। और जो इनकी विचारधारा का समर्थन नहीं करते उनकी या तो हत्या कर दी जाती है या चरित्र हनन करके उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा जाता।
किसी दिन बेज़मैनोव की आत्मा को भारत के के खिलाफ इन षड्यंत्रों ने जगा दिया और वे इनसे दरकिनार होने के लिए भूमिगत हो गए। भारत सरकार ने उनकी गुमशुदगी के विज्ञापन छपवाए जिससे जब वे मिल जाएँ तो उन्हें रूस सरकार के सुपुर्द कर दिया जाए। लेकिन बेज़मैनोव को मालूम था की यदि वे पकडे गए तो रूस की सरकार उन्हें मरवा देगी इसलिए वे चुप कर कनाडा चले गए जहाँ उन्होंने कुछ टीवी इंटरव्यू दिए जिनमे से एक का अंश यह है।
बेज़मैनोव का मानना था कि यदि भारत में स्थिति सुधारनी है तो आज इसी वक़्त से शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था बदलनी होगी तब कहीं अगले 20-25 सालों में बदलाव आना शुरू होगा।
परन्तु जैसा कि उन्हें अंदेशा था रूस की सरकार ने उन्हें ज्यादा मुंह खोलने का मौका नहीं दिया और हत्या करवा दी।
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अब आपको समझ आया कि रात में हुई घटना में सुबह पीड़ित की जाति कैसे छप जाती है ?? अब आपको पता चला कि जुनैद , पहलु खान , अख़लाक़ , गौरी लंकेश तो महीनो भर सुर्ख़ियों में छाते हैं लेकिन प्रशांत पुजारी को कोई नहीं पूछता। अब आपको पता चला कि कठुआ पर फ़िल्मी अदाकाराओं के पेट में दर्द क्यों होता है मंदसौर और बाड़मेर पर क्यों नहीं होता ??? अब आपको पता चला कि रोहिंगिया मुसलमानों पर सुप्रीम कोर्ट को दर्द क्यों होता है लेकिन पकिस्तान से आये हुए प्रताड़ित हिन्दू शरणार्थियों को जबरदस्ती वापिस भेजने पर किसी की आह नहीं निकलती ??? अब आपको मालूम पड़ा कि सेना पर पत्थर फेंकने वालों के खिलाफ पेलेट गईं चलाने की मनाही क्यों होती है और उन पर से केस क्यों वापिस हो जाते है और कांवरियों पर अटोर्नी जनरल और सुप्रीम कोर्ट क्यों एक साथ चिल्ला पड़ते है ??? अब आपको पता चला कि बँगाल में और केरल में हिन्दुओं की हत्यायों पर चर्चा क्यों नहीं होती और अलवर का आदतन गौतस्कर रक्बर खान क्यों पूरा सिस्टम हिला देता है ???? अब आपको पता चला कि ईसाई चर्चों और मदरसों में बलात्कारों की ख़बरें कैसे छुप जातीं हैं और सिर्फ हिन्दुओं की ख़बरें कैसे हफ़्तों तक चलायी जातीं हैं ???
इसके लिए मीडिया और देशद्रोही ताकतें जितनी जिम्मेदार हैं उतने ही है हमारे बीच में फैले हुए useful idiots भी जिम्मेदार हैं जो अपनी वृहदमानस्किता दिखाने के फेर में इन षड्यंत्रकारियों के साथ खड़े हो कर उनका मनोबल बढ़ाते हैं या कुछ ऐसे भी हैं जैसे आज एक मित्र की कांवरियों पर ( दो भाई अपने माँ बाप को काँवर में ले जा रहे हैं)वाली पोस्ट पर एक तूचिये यदुवंशी की टिपण्णी देखी कि " जिनके पास कोई काम नहीं होता वो काँवर ले कर जाते है। "
करते रहिये साफ़ सफाई और सुनते रहिये दुनियाभर की बातें। अभी बहुत लड़ाई बाकि है।