मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

25 दिसंबर ही क्यों ????

खुशियाँ मानाने के कोई भी बहाने हो सकते हैं। अपने प्रिय का या अपने अराध्य का जन्म दिन तो फिर एक खास वजह बनता है सबके साथ खुशियां मनाने का। और अगर जन्मदिन की तारिख न मालूम हो तो फिर तो 365 दिनों में से कोई भी दिन तय करके जन्मदिन मना लिया जाये,कोई हर्ज़ थोड़े ही है। 
यही हो रहा है विश्व भर में ,जब 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्म दिन मनाया जाता है। पोप बेनेडिक्ट ने नवम्बर 2012 में अपनी पुस्तक ---  "Jesus Of Nazreth: The Infancy Narratives" के तीसरे संस्करण में यह माना कि ईसा मसीह 25 दिसंबर को पैदा नहीं हुए थे।  ऐसा नहीं है कि यह बात पहली बार कही गयी या कोई नया खुलासा था  इससे पहले भी बहुत लोग ईसाई धर्म के प्रवर्तक की जन्मतारीख पर प्रश्न चिन्ह लगा चुके है। सबके अपने अपने मत है। जैसे कि जो बाइबिल को आधार मान कर 25 दिसम्बर को गलत ठहराते हैं , उनके हिसाब से बाइबिल के अध्याय लूकस 1:13 में जिब्राइल ने एक बहुत बूढे पुजारी ज़केरियस को पूजा के बाद आशीर्वाद दिया कि तुम्हारी पत्नी एलिज़ाबेथ को एक पुत्र प्राप्त होगा। इतिहासकारों के अनुसार ज़केरियस  की पूजा करने की तिथियाँ जून 13-19 थीं। ( उस समय पूजा करने के लिए ,मन्दिर में पुजारियों की महीनों में पाली लगा करती थी) (The Companion Bible -1974, Appendix 179, p. 200)। इतिहासकारों के अनुसार एलिज़ाबेथ ने यदि जून के अन्त तक गर्भाधान किया तो उनके पुत्र का जन्म मार्च में हुआ। इसी के आगे बाइबिल कहती है कि जब एलिज़ाबेथ 6 महीने की गर्भवती थी तब जिब्राइल ने मरियम को भी आशीर्वाद दिया कि उस कुवाँरी को पुत्र पैदा होगा (लूकस 1:26) । इस हिसाब से ईसा का जन्म सितम्बर में होना चाहिए। 
बाइबिल में ही दो अन्य विरोधाभासी तथ्य कहे गए हैं ---
1) ईसा के जन्म के समय गड़रिये रात में खेतों में खुले में भेड़ों पर निगरानी कर रहे थे (लूकस 2:8
2)और उस समय राजा कैसर अगस्तस ने समस्त जगत की जनगणना की राजाज्ञा निकली थी (लूकस 2:1) --- 
ये दोनों घटनाएँ ,बेथलहम की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से दिसंबर में सम्भव नहीं हैं क्योंकि वहां पर दिसम्बर माह में बहुत अधिक ठण्ड पड़ती है, इसलिए ऐसे में न तो गड़रिये रात में खुले आसमान के नीचे रह सकते थे और न ही ऐसे मौसम में जनगणना ही संभव थी।  
बाइबिल के अतिरिक्त पहली और दूसरी शताब्दी के ईसाई लेखकों इरेनॉएस (c. 130–200) या तेरतुल्लियन  (c. 160–225) ने भी जन्मतिथि का कोई उल्लेख नहीं किया। बल्कि अलेक्सेंडरिआ के ओरिजन  (c. 165–264) ने तो रोम के लोगों का जन्म दिन मनाने पर मूर्तिपूजक कह कर मज़ाक तक उड़ाया था। इतिहासकारों का मानना है कि यहाँ तक ईसा मसीह का जन्मदिन नहीं मनाया जाता था।  लगभग वर्ष 200 C.E में  Clement of Alexandria के अनुसार बहुत से ईसाई समूहों ने जन्म तिथियाँ  निर्धारित कीं लेकिन 25 दिसम्बर किसी ने भी निर्धारित नहीं की थी। 
Clement के अनुसार बहुत से लोगों जन्मवर्ष के साथ जन्मतिथि का निर्धारण किया। उसके अनुसार राजा ऑगस्टस के 28 वें वर्ष के 25 वें दिन मिस्र के Pachon महीने में ( वर्तमान में प्रचलित केलिन्डर के अनुसार 20 मई ) को ईसा का जन्म हुआ था। अन्य कुछ का मत है मिस्र के Phamenoth महीने के 25 वें दिन (यानि कि 21 मार्च), कुछ अन्य का मानना है कि Pharmuthi के 19 वें दिन (यानि कि 15 अप्रैल ) कुछ और कहते हैं कि उनका जन्म Pharmuthi महीने के  24वें  या 25 वें दिन हुआ था (यानि कि 20 या 21 अप्रैल )  … 
चौथी शताब्दी आते आते 25 दिसंबर और 6 जनवरी दो मान्य तिथियाँ रह गयीं। रोम के पश्चिम के देश 25 दिसम्बर को जन्म दिन मानते थे और रोम के पूर्व के देश 6 जनवरी को जन्मदिन मानते थे। आधुनिक आर्मेनियन चर्च अभी भी 6 जनवरी को जन्मदिन मनाता है। 
एक मत यह भी है कि शीतकालीन अयनांत (Winter Solstice -- 21 दिसम्बर -- जब सूर्य दक्षिण अयनांश के चरमोत्कर्ष पर होता है और यह वर्ष का सबसे छोटा दिन होता है ) के अगले दिन संसार में प्रकाश फ़ैलाने के लिए ईसा ने जन्म लिया।  लेकिन गणना करने वालों से यहाँ भी चूक हुई और उन्होंने 21 दिसंबर की जगह 25 दिसम्बर को शीतकालीन अयनांत (Winter Solstice) की गणना कर डाली। 
कहते हैं कि Constantine ने 336 AD में पहली बार, फिर Liberius ने 354 AD में 25 दिसम्बर को ईसा का जन्मदिन घोषित किया था। 
25 दिसंबर ही क्यों ????

दरअसल ईसाई धर्म के रोम में फैलने से पहले रोम के लोग दिसंबर के अंत में Saturnalia त्यौहार (सूर्य का जन्मदिवस ) मनाया करते थे , तथा रोम के आस पास के लोग इस समय छुट्टियां मनाते थे।  इन सबके ऊपर ईस्वी 274 में रोम के राजा ने 25 दिसम्बर को "अविजित सूर्य"(Sol Invictus)  के जन्मदिवस में एक भोज का कार्यक्रम शुरू किया। तर्क ऐसा जाता है कि मूर्तिपूजकों की इसी तारिख से ईसा का जन्म दिवस मनाया जाना लगा। इस मत के अनुसार ईसाईयों ने बुतपरस्तों के बीच ईसाइयत को फ़ैलाने के लिए जानबूझ कर इन तिथियों को चुना था। यदि क्रिसमस मूर्तिपूजकों की छुट्टियों  में घुलमिल जाती है तो ज्यादा मूर्तीपूजक इन्ही छुट्टियों में ईसा को भी पूजने लगेंगे।  
सही है तोला भर श्रद्धा ,मन भर तर्कों पर भारी होती है। 
दिन और तारिख कोई भी हो, आप भी खुशियाँ  मनाईये लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि मैं पश्चिमी देशों के उन शोधकर्त्ताओं का क्या करूँ जो यह कह रहे हैं कि ईसा मसीह नाम के पैगम्बर कभी हुए ही नहीं।  

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

एक बाबरी मस्जिद ही नहीं तोड़ी थी।

#वो तस्वीरें जो सऊदी अरब कभी दुनिया को दिखाना नहीं चाहेगा और वो प्रमाण कि मक्का  मे इस्लाम की सबसे प्राचीन और पवित्र अवशेष नष्ट दिए गए है।  
http://www.independent.co.uk/news/world/middle-east/the-photos-saudi-arabia-doesnt-want-seen--and-proof-islams-most-holy-relics-are-being-demolished-in-mecca-8536968.html   
 लेकिन भारत एक ऐसा देश है जहाँ के एक गुमनाम गांव कादलपुर में गैर कानूनी मस्जिद तोड़ने पर एक IAS ( दुर्गा शक्ति नागपाल ) को 40 मिनट में निलंबित किया जा सकता है,सोचने वाली बात है कि  उस देश में वर्तमान मुसलमानों की परदादियों के बलात्कारी के द्वारा बनवायी गयी मस्जिद को तोड़ने की हिम्मत कैसे की गयी। 
6 दिसम्बर को बाबरी मस्जिद तोड़ कर हिन्दुओं ने भीम राव आंबेडकर को उनके निर्वाण दिवस पर अनजाने में जो शानदार श्रद्धांजलि दी, अम्बेडकरजी के अनुयायी इतिहास में उसकी दूसरी नज़ीर पेश नहीं कर पाएंगे। लेकिन "जय भीम" के  साथ "जय मीम" के नारे को बुलन्द करने वाले नवबौद्धों और आंबेडकर जी के अनुयायियों ने अम्बेडकर जी का नाम मिट्टी में मिला दिया।     

 जिन "भीम राव अम्बेडकर" के नाम पर ओवैसी, नवबौद्धों और सनातन धर्म के एक विशेष वर्ग को अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रहा है, और जो "जय भीम" कहने वाले  ओवैसी की कमर के नीचे की मूंछों में लटक रहे हैं, मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ , न उन्होंने कभी भारत का इतिहास पढ़ा और न कभी भीम राव आंबेडकर के मुसलमानों द्वारा मंदिर तोड़ने वाले वक्तव्यों को, न अम्बेडकर जी इस्लाम और मुसलामानों के विषय में यथार्थ व्यक्त करते बयानों को।  
आज बहुत से लोग एक बाबरी मस्जिद के टूटने पर शौर्य दिवस मना रहे हैं, कुछ कुंठित मानसिकता के विदेशी टुकड़ों पर पलने वाले नवबौद्ध एक नया शगूफा छोड़ रहे हैं कि बाबा साहिब के निर्वाण दिवस को लोग शौर्य दिवस के रूप में मना कर बाबा साहिब का अपमान कर रहे है और बहुत से लोग वोट की खातिर या अपनी  वृहद मानसिकता दिखाने के लिए शर्म से सिर झुकाये बैठे हैं , कि एक मज़हबी लुटेरे द्वारा मंदिर के ऊपर बनायीं गयी एक मस्जिद तोड़ दी गयी। चुल्लू भर पानी में डूब मारना चाहिए बाद वाली दोनों श्रेणियों के लोगों को।  इतिहास के पन्ने पलटिये, मुस्लिम आक्रान्ताओं ने बीस हज़ार से ज्यादा मंदिर तोड़ कर उनके ऊपर मस्जिदें बनायीं थीं। उन ख़ास खास मस्जिदों का ज़िक्र आगे करूँगा , जो आज भी वजूद में हैं और जिनकी नींव में मंदिरों की शिलाएं और मूर्तियां दबीं है , लेकिन पहले उन नवबौद्धों को जो ओवैसी को अपना दोस्त मान बैठे हैं, भीम राव आंबेडकर जी के वक्तव्य से वाकिफ करवा दिया जाये कि इन लुटेरों द्वारा मंदिरों के तोड़ने पर  "The decline and fall of Buddhism," Dr. Babasaheb Ambedkar: Writings and Speeches, Vol. III, Government of Maharashtr­a. 1987, p. 229-38 में भीमराव अम्बेडकर कहते है ------
" इसमें कोई शक नहीं कि भारत में बौद्ध धर्म का पतन मुस्लिम आक्रमणकारियों के कारण हुआ। इस्लाम "बुत" का दुश्मन बन कर आया।  बुत शब्द जैसा की सब जानते हैं, अरबी भाषा में मूर्ती को कहते हैं"। जैसा कि शब्द की उत्पत्ति से जाहिर है कि मुस्लिमों के दिमाग में मूर्तिपूजा बौद्धधर्म के साथ जोड़ कर देखी गयी। मूर्तियों को तोड़ने का लक्ष्य, बौद्धधर्म को नष्ट करने का लक्ष्य हो गया। मुस्लिमों ने बौद्ध धर्म का सिर्फ भारत में ही नाश नहीं किया पर जहाँ जहाँ वे गए उन्होंने बौद्ध धर्म मिटा दिया। इस्लाम के आने से पहले , बौद्ध धर्म बैक्ट्रिया, पार्थिया ,अफगानिस्तान,गांधार , चीन तुर्किस्तान और सम्पूर्ण एशिया का धर्म हुआ करता था। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने नालन्दा, विक्रमशिला , जगदाला ओदन्तपुरी जैसे अनेकों विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया। बौद्ध विहार जो कि पूरे देश में हर जगह थे को , इन मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मिट्टी में मिला दिया। हजारों की संख्या में बौद्ध भिक्षु नेपाल, तिब्बत और देश के बाहर भाग गए। बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षु मुस्लिम सेनापतियों द्वारा मरे गए। बौद्ध पुरोहिताई मुस्लिम आक्रमणकारियों की तलवार की धार से कैसे नष्ट की गयी , इसका ज़िक्र तो खुद मुस्लिम इतिहासकार करते हैं। " बौद्ध भिक्षुओं के मुसलामानों द्वारा 1197 AD  में बिहार पर आक्रमण के दौरान कत्लेआम पर एकत्रित प्रमाणों का सारांश निकलते हुए विन्सेंट स्मिथ कहता है कि ......... बहुत बड़ी मात्रा में लूटपाट करने के बाद मुंडे हुए सिर वाले ब्रह्मणों यानि की बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम इतना सम्पूर्ण था कि जब विजेता ने विहारों के पुस्तकालयों में मौजूद क़िताबों को समझना चाहा तो एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो उन्हें पढ़ सकता था।   ....... ..... कुल्हाड़ी बिलकुल जड़ पर मारी गयी थी। बौद्ध भिक्षु मारने के फेर में इस्लाम ने बौद्ध धर्म ही ख़त्म कर दिया। भारत में बुद्ध धर्म पर आई हुई यह सबसे बड़ी विपदा थी । ( पृष्ठ 229 -238 )  
अगर इतने से तस्सल्ली नहीं हुई तो -----  Pakistan or The Partition of India’ by B.R. Ambedkar, 3rd edition, 1946: BAWS Vol. 8, 1990, Govt. of Maharashtra publication; previous name of the book: Thoughts on Pakistan ---- का पृष्ठ 301 पढ़िये। "मुस्लिमों के लिए , एक हिन्दू ( और कोई भी गैर मुस्लिम) काफिर है।  एक  काफिर (इस्लाम में विश्वास न रखने वाला ) इज़्ज़त करने लायक नहीं है।  काफिर अकुलीन होते  हैं  और उनकी कोई हैसियत नहीं होती। इसीलिए एक काफिर द्वारा शासित देश मुसलमान के लिए " दार उल हर्ब " ( यानि कि युद्ध का देश) होता है ,जिसे मुसलमानों द्वारा हर हाल में , किसी भी तरह जीत कर "दारुलइस्लाम "( यानि कि सिर्फ मुस्लमानों की ज़मीन ) में तब्दील करना होता है। इसे देखते हुए इसे प्रमाणित करने के लिए किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं रह जाती कि मुस्लिम किसी हिन्दू सरकार /शासक का आदेश मानेंगे  ( या किसी गैर मुस्लिम का आदेश नहीं मानेंगे )  


इन अरबी हूश लुटेरों ने सिर्फ बौद्ध और जैन मंदिरों को ही नहीं तोडा और लूटा। कुल मिला कर बीस हज़ार से ज्यादा मंदिर तोड़े और उनके ऊपर मस्जिदें बनायीं। किन इतिहासकारों के वक्तव्य पेश करूँ ???? वर्तमान इतिहासकारों के या तत्कालीन इतिहासकारों के ,भारतीय इतिहासकारों के या विदेशी इतिहासकारों के। हिन्दू इतिहासकारों के , ईसाई इतिहासकारों के या मुस्लिम इतिहासकारों के ????  

 Histoire de l' Inde - By Alain Danielou p. 222 or A Brief History of India  में Alain Danielou (1907-1994) में फ़्रांसिसी इतिहासकार लिखता है कि--" 632 AD से जब से मुसलामानों ने भारत में आना शुरू किया, भारत का इतिहास क़त्ल, नरसंहार, लूट और बिगाड़ की एक लम्बी नीरस दास्तान बन कर रह गया। यह एक आम बात है कि अपने धर्म और अपने एकमात्र खुदा के नाम पर असभ्य जंगलियों ने पूरी की पूरी सभ्यताएं और जातियां ख़त्म कर दीं। Danielou आगे लिखता है कि --महमूद गज़नी क्रूरता और निर्दयता का एक शुरूआती उदाहरण है , जिसने मथुरा के 1018 मन्दिर मिट्टी में मिला दिए , कन्नौज शहर ध्वस्त कर दिया, सोमनाथ का वो मंदिर जो सभी हिन्दुओं की श्रद्धा का केंद्र था चकनाचूर कर दिया। उसके क्रमानुयायी भी गज़नी की तरह ही निर्दयी थे जिन्होंने हिन्दुओं के पवित्र शहर बनारस के 103 मंदिर मिट्टी में मिला दिए, उन्होंने अद्भुत मंदिरों को तोड़ दिया और भव्य महलों को उजाड़ दिया।  Danielou अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि भारत को लेकर इस्लाम की नीति एक सचेत और सुनियोजित विध्वंस की थी , हर उस चीज़ को धवस्त करने की थी जो कि पवित्र थी, सुन्दर थी और परिष्कृत थी। 
 Negationism in India: Concealilng the Record of Islam - By Koenraad Elst में इतिहासकार लिखता है कि भारत के प्रबुद्ध वर्ग का एक हिस्सा, हिन्दुओं के स्मृतिपटल से इस्लाम के शमशीरबाजों द्वारा ढाई गयी ज़ुल्म की दस्तानों को मिटाने की कोशिश कर रहा है। जबकि तत्कालीन इस्लामिक इतिहासकार हिन्दुओं के कत्लेआम, मंदिरों को ध्वस्त करने , हिन्दू महिलाओं के अपहरण और जबरन धर्मांतरण को को बहुत आनंद और गर्व के साथ बताते हैं। वे इसमें कोई शक नहीं छोड़ते कि मूर्तिपूजा का ध्वस्तीकरण मुस्लिम समुदाय को खुदा के द्वारा दी गयी आज्ञा थी।इसके बावजूद बहुत से भारतीय इतिहासकार, पत्रकार और राजनीतिज्ञ इस बात से इंकार करते हैं कि हिन्दू और मुसलामानों में कभी अदावत थी। वे बेशर्मी से इतिहास को दुबारा गढ़ते हैं और इस बात का पुरज़ोर खंडन करते हैं कि भारत में हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच कभी दुश्मनी थी, परन्तु अब भारत का एक बड़ा वर्ग और पश्चिम के लोगों ने उनके इस नकारात्मक इतिहास को पहचानना शुरू कर दिया है। ऐसे लोगों को ग़लतफहमी या मतिभ्रम से निकलना कोई सहज या रोचक कार्य नहीं है ,विशेषतौर पर तब जब इन्हे जानबूझकर पैदा किया गया है।   

What the invaders really did - By Rizwan Salim ( न्यूयॉर्क में पत्रकार )- hindustantimes.com - December 28, 1997)  में कहते हैं कि मैंने हिन्दू मंदिरों के पत्थर और स्तम्भ मस्जिदों में लगे हुए देखे हैं, जिनमें जामा मस्जिद और अहमद शाह मस्जिद अहमदाबाद में हैं, जूनागढ़ (गुजरात ) के उपरकोट किले की मस्जिद, और विदिशा (भोपाल के निकट), ढ़ाई दिन का झोंपड़ा जो की अजमेर की मशहूर दरगाह के बिलकुल नज़दीक है और वर्तमान में विवादित भोजशाला मस्जिद "धार" में (इंदौर के निकट)।यह महज़ "राजनीतिक कारणों " से नहीं है कि हिन्दू टूटी हुई अयोध्या में टूटी हुई बाबरी मस्जिद, वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में ईदगाह पर भव्य मंदिर बनाना चाहते हैं। धर्म एवं राजनीति से प्रेरित हिन्दुओं के  राम मन्दिर , काशीविश्वनाथ मंदिर और कृष्ण मन्दिर ये मात्र तीन प्रयास एक हज़ार सालों से विदेशी लुटेरों से अपनी संस्कृति और धर्म वापिस पाने का संघर्ष है। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद टूटने की घटना हिन्दुओं के सहस्राब्दी,भारत में धर्म केंद्रित संस्कृति और देश वापिस पाने के संघर्ष का मात्र एक प्रसंग है। इस बीच हिन्दुस्तान भर में सैंकड़ों मंदिर अपने मूलरूप और प्राचीन गरिमा को पाने के लिए  हिन्दू स्वाभिमान के जागने का इंतज़ार कर रहे हैं। "
मसीरी आलमगीरी -- राजशाही के सरकारी दस्तावेज़ में अनेकों मंदिर तोड़े जाने के आदेश और उनके क्रियान्वहं की सोचना दर्ज़ है। इसकी 2 सितम्बर 1669 की एक प्रविष्टि हमें बताती है ---" दरबार में खबर आयी कि राजा के आदेशों का पालन करते हुए उसके अधिकारीयों ने बनारस में विश्वनाथ का मंदिर तोड़ दिया है। 

India: A Concise History - By Francis Watson p. 96 में इतिहासकार लिखता है कि " उनके दिमाग में हिन्दुस्तान के मूर्तिपूजकों के खिलाफ कूट कूट कर ज़हर भरा हुआ था।  मुसलामानों ने बहुत बड़ी संख्या में प्राचीन हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया। यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों एवं अन्य लेखों ने लिपिबद्ध किया है। परन्तु बड़ी संख्या ---- सैंकड़ों नहीं कई हज़ार ---प्राचीन मन्दिर तोड़ कर पत्थरों के छोटे छोटे टुकड़ों में तब्दील कर दिए गए। भारत के प्राचीन नगरों बनारस और मथुरा,उज्जैन और माहेश्वर ,ज्वालामुखी और द्वारका में एक भी प्राचीन मंदिर अपने पुराने स्वरुप में साबुत नहीं बचा। 

मौलाना अब्दुल हय , जो कि लखनऊ के दारुल नदवा उलूम नदवातुल -उलमा के 1923 तक प्राचार्य रहे की पुस्तक " हिन्दुस्तान इस्लामी अहद में"  के अध्याय " हिन्दुस्तान की मस्जिदें " में लिखते हैं ----
1)मेरे शोध के अनुसार दिल्ली की  "कुव्वत अल इस्लाम मस्जिद" मस्जिद क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने हिजरी 587 में पृथवीराज चौहान द्वारा बनवाए गए हिन्दू मंदिर को तोड़ कर मंदिर के कुछ हिस्से को बहार छोड़ कर बनवायी। हिजरी 592 में वो जब गज़नी से वापिस आया तो शहाब्बुद्दीन गोरी के आदेश से ऐसे लाल पत्थरों से जिनका अनुकरण नहीं किया जा सकता से वृहद मस्जिद बनवायी और मंदिर के बचे हुए हिस्से को भी इसी में शामिल कर लिया  ..........( अन्य इतिहासकारों के अनुसार और यहाँ पर पुरातत्व विभाग का शिलालेख कहता है इसे बनाने के लिए 27 हिन्दू और जैन मंदिर तोड़े गए थे)*   .
2) जौनपुर की मस्जिद ------ यह मस्जिद तराशे हुए पत्थरों से इब्राहिम शर्क़ी ने बनवायी। मूलरूप से यह एक हिन्दू मंदिर को तोड़ कर गयी। यह अटाला मस्जिद के नाम से जानी जाती है। 
3) कन्नौज की मस्जिद ---- यह एक सार्वजानिक सत्य है कि यह मस्जिद एक प्रतिष्ठित हिन्दू मस्जिद को तोड़ कर बनायीं गयी। जैसा कि "गरबत निगार " में लिखा है इसे  इब्राहिम शक़ी ने हिजरी 809 में बनवाया था। 
4) इटावा की जामी मस्जिद ---- यह मस्जिद इटावा में जमुना के किनारे पर है। यहाँ पर हिन्दू  करता था जिसे तोड़ कर मस्जिद बनायीं गयी। 
5)अयोध्या में बाबरी मस्जिद -----यह मस्जिद अयोध्या में बाबर ने उस  बनवायी जिसे हिन्दू लोग रामचन्द्रजी का जन्मस्थान कहते हैं    ..... ........ सीता का यहाँ एक मंदिर था जिसमे वो रहती थी और अपने पति के लिए खाना बनाती थीं। बिलकुल इसी जगह पर बाबर ने हिजरी 963 में मस्जिद बनवायी। 
6) बनारस की मस्जिद ---बनारस की मस्जिद आलमगीर औरंगज़ेब ने बिशेश्वर मंदिर के स्थान पर बनवाया। वो मंदिर बहुत बड़ा था और  बहुत पवित्र माना जाता था। बिलकुल इसी जगह पर और उसी मंदिर के पत्थरों से उसने आलीशान मस्जिद बनवायी। प्राचीन पत्थरों को मस्जिद की दीवारों के निमार्ण में पुनः इस्तेमाल कर लिया गया। यह हिन्दुस्तान की मशहूर मस्जिदों में से एक है। 
7) मथुरा की मस्जिद ---आलमगीर औरंगज़ेब ने मथुरा में एक मस्जिद बनवायी। यह मस्जिद गोविन्द देव के मंदिर के  बनायीं जो की एक बहुत मजबूत खूबसूरत और उत्कृष्ट मंदिर था।  

मुस्लिम इतिहासकार " महमूद बिन इब्राहिम शार्की "(1440---1457) "तबकत ऐ अकबरी" में लिखता है, " कुछ समय पश्चात वो जिहाद के मकसद से ओडिसा गया, वहां उसने आसपास के क्षेत्रों पर हमला करके उन्हें उजाड़ दिया। मंदिरों को तोड़ने के बाद उन्हें मिट्टी में मिला दिया। 
मुस्लिम इतिहासकार "अब्दुल्लाह" अपनी "तारीख ए दाऊदी" में सिकंदर लोधी के विषय में लिखता है कि " वो एक अतिउत्साही मुसलमान था और उसने काफिरों पूजास्थलों के नामो निशाँ तक मिटा दिए थे। उसने मथुरा के सारे पूजास्थलों को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया था। 
25 मई 1679 --- खान ए जहाँ ,(औरंगज़ेब के विषय में) जोधपुर के मंदिरों को ध्वस्त करने बाद गाड़ियों में मूर्तियां भर कर लौटे और उन्होंने आदेश दिया कि इन मूर्तियों को जामा मस्जिद की सीढ़ियों में चुनवा दिया जाये जिससे वे पैरों के तले रौंदी जाएँ। 
"सुलतान अहमद शाही वली बहमनी " ( 1422 -1435) --- "....... वो ( अहमद शाह ) जहाँ भी जाता था आदमियों औरतों और बच्चों के बेरहमी से मौत के घाट उतार देता था। …" 
"……जब वो 20000 क़त्ल कर लेता था , तो 3 दिनों इसका जश्न मनाने के लिए रुक जाता था.……… "
1 जनवरी 1705, औरंगज़ेब ने महमूद खलील और खिदमत राय को बुलाया और " पंढरपुर " के मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया , और साथ में कसाई ले जाकर मन्दिर में गौवध करने का आदेश दिया।

 रही बात बाबरी मस्ज़िद की जिसे मीर बाकी नाम के संत ने उस समय के सेक्युलर हिंदुओं की कायदे से पूजा करके, बहुत मान मनौव्वल के बाद मंदिर तोड़ कर 1527 में बनाया। 1940 से पहले के सरकारी एवं मुस्लिम दस्तावेजों में इसका नाम था " मस्ज़िद ए जन्मस्थान"। 1992 में मस्ज़िद टूटी, इस देश और पूरी दुनिया की धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को बहुत कष्ट हुआ ( पिछले 15 दिनों में पकिस्तान में 2 मंदिर तोड़े गए, सब अखबारों में छपा पर शायद दुनिया पढ़ नहीं पायी )। लेकिन इन धर्मनिरपेक्षों के मुंह की जुबां तब कहाँ चली गयी जब खुद "सऊदी अरब" सरकार ने          " मक्का" में "मस्ज़िद अल हरम" जिसमे पैगम्बर ने पहली नमाज़ अदा की थी को गिरा दिया। तब क्यों नहीं बोले ये लोग जब वहाँ कि सरकार ने ही "मस्ज़िद अल नबावी " जहाँ पैगम्बर दफन है को गिरा दिया। क्या इन लोगों को पता नहीं चला की उस स्तम्भ( OTTOMAN and ABBASID columns) को भी गिरा दिया गया है जिसे उस जगह को चिन्हित करने के लिए लगाया गया था जहाँ से पैगम्बर ने अपनी स्वर्गयात्रा शुरू की थी। वो स्तम्भ भी गिरा दिया गया है जिस पर पैगम्बर के साथियों और उस समय के अनुयायियों के नाम लिखे हुए थे। मौलिद का घर ( house of Mawlid ) तोड़ कर शाही इमाम का घर बनाया जा रहा है। अबु बकर का घर तोड़ कर होटल हिलटन बन चुका है। अफगानिस्तान में एक हाइवे बनाने के लिए उस मस्ज़िद को तोड़ दिया गया जहाँ कभी पैगम्बर ने नमाज़ पढ़ी थी। और तो और श्रीनगर में "मुस्लिम" आतंकवादियों ने अपनी जान बचने के लिए उस प्राचीन मस्ज़िद ( दरगाह हज़रतबल)  को सुपुर्द ए खाक कर दिया जिसमे पैगम्बर का प्रतीक चिन्ह उनका "बाल" रखा हुआ था। यह कोई किस्से नहीं है, नीचे लिंक दे रही हूँ जिसमे फ़ोटो के साथ प्रमाण है और यह किसी सेक्युलर हिन्दू कि नहीं इंग्लैंड के प्रमुख समाचार पत्र " द इंडिपेंडेंट "की रिपोर्ट है।  
http://www.independent.co.uk/news/world/middle-east/the-photos-saudi-arabia-doesnt-want-seen--and-proof-islams-most-holy-relics-are-being-demolished-in-mecca-8536968.html  

 देशी इतिहासकार मानते है , विदेशी इतिहासकार मानते है। ईसाई इतिहासकार मानते है और मुसलमान इतिहासकार मानते है। तत्कालीन इतिहासकार मानते है  वर्तमान के इतिहासकार मानते हैं। तत्कालीन राजशाही के दस्तावेज़ मानते हैं और वर्तमान के पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण मानते हैं ----

http://ayodhyafacts.org/2014/12/01/was-there-a-ram-mandir/
बस वो नहीं मानते जिनके बाप दादों ने 400 साल पहले तलवार की धार के सामने इस्लाम को मान लिया था। अम्बेडकर जी सही कह गए हैं, किसी न यह किसी काफिर के साथ रह सकते हैं किसी काफिर की सत्ता बर्दाश्त कर सकते हैं। 


 भारत में इन मुस्लिम लुटेरों और आक्रान्ताओं के ऊपर सैंकड़ों किताबें लिखी जा चुकीं है, दसियों किताबें पढ़ने के बाद मेरा दिल Ayodhya and After - By Koenraad Elst के इस एक पैराग्राफ को पढ़ कर टूट गया  --------- "#ईसाई_इतिहास_में_किये_गए_अपने_कृत्यों_को_मान_रहे_हैं। यहाँ तक की बेल्जियम में कैथोलिक वर्ग की धार्मिक संगत में हमने इतिहास में चर्च द्वारा किये गए वीभत्स कृत्यों पर ध्यान दिया है। लैटिन अमेरिका में कोलंबस के आगमन की 500 वीं वर्षगाँठ पर चर्च के अंदर और बाहर वहाँ की सभ्यता और संस्कृति के चर्च द्वारा समूल विनाश पर चर्चा की। जर्मनी तक ने मान लिया कि उसने यहूदियों पर बहुत अत्याचार किये थे। परन्तु भारत में अविश्वसनीय स्थिति है। न सिर्फ मुस्लिम इतिहासकार बल्कि सार्वजानिक हस्तियां मुस्लिम इतिहास के सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। निष्पक्ष धर्मनिरपेक्ष  इतिहासकार भी इस्लाम द्वारा व्यवस्थित ढंग से किये गए अत्याचारों को या तो छुपाने में लगे हैं या नकारने में लगे हैं। यहाँ तक की #बहुत_से_हिन्दू_उन_अत्याचारों_को_नकार_रहे_हैं_जो_उन्हीं_के_समाज_पर_किये_गए।