क्यों जबरदस्ती थोपा नेहरू ने हिन्दुओं पर " हिन्दू कोड बिल", और दे दिए विकल्प हिन्दू परिवारों के विघटन के।
कितने लोगों को पता है कि ----फुलवारी शरीफ ,पटना ----801505 (बिहार) भारत में , बिहार , ओड़िसा और झारखण्ड के "दारुल क़ज़ा " का मुख्यालय है। बिहार में इसके 34 कार्यालय हैं। जनवरी 2005 में अहमदाबाद में इसकी शुरुआत हुई और आज दिल्ली हैदराबाद मुंबई जयपुर और तमाम राज्यों में इसके कार्यालय है। अहमदाबाद में इसके उद्घाटन समारोह में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य और "दारुल क़ज़ा" के संयोजक मौलाना अतीक अहमद बस्तवी ने कहा कि "एक मुसलमान पहले एक मुसलमान है , चाहें वो कहीं भी रहे उसे कुछ नियमों का पालन करना होगा और वो उनसे बच नहीं सकता , जिनमे से "शरीयत " एक है"। शायद आप समझ ही गए होंगे कि "दारुल कज़ा" शरिया अदालतें हैं जो पूरे भारत में संविधान के अनुछेद 44 --- एक सामान नागरिकता / यूनिफार्म सिविल कोड को अंगूठा दिखाते हुए चल रहीं हैं।
मुझे दिक्कत इस बात से नहीं है कि ये अदालतें क्यों चल रहीं हैं। मुझे दिक्कत इस बात पर भी नहीं है कि शाह बानो , मोहतरमा परवीन और हज़ारों तीन तलाक की शिकार महिलाएं भारत में रोज़ हो रहीं है। मुझे दिक्कत है तो इस बात से कि जब धर्म के नाम पर देश का बंटवारा हुआ था , तो The Muslim Personal Law (Shariat) Application Act, 1937 ,Act No. 26 of 1937 dated 7th. October, 1937 ( मुस्लिम धर्म और मान्यताओं के अनुसार कुरान,हदीस,इज्मा और क़ियास पर आधारित करके बनाया गया ), को पकिस्तान क्यों नहीं भेजा गया जिसके तहत मुस्लिम परसल लॉ बोर्ड आज संविधान को मुंह चिढ़ाता हुआ सामानांतर अदालतें चला रहा है और शरिया कानून को सुप्रीम कोर्ट से ऊपर बता रहा है।
उससे ज्यादा मुझे दिक्कत है कि जब नया संविधान समानता के आधार पर रच ही रहे थे, तो नेहरू ने अम्बेडकर से विशेषकर हिन्दुओं के लिए ही बिल क्यों ड्राफ्ट करवाया ???? और ये क्यों कहा कि अगर यह बिल कानून नहीं बना तो मैं इस्तीफ़ा दे दूंगा, और 1955 में इसे कानूनी जामा पहना ही दिया।
कानून हमारे नाखूनों की तरह होता है, जितने बढ़ते जाते हैं उतना ही बदन छिलने की सम्भावना बढ़ती है। इस वाक्य को समझने से पहले दो बातें समझना ज़रूरी है। जब तक बारूद और पिस्तौल इज़ाद नहीं हुए थे, तब भी लोग लड़ते थे और मरते थे , लेकिन बारूद और पिस्तौल के इज़ाद होने से लड़ाईयां भी बढ़ीं और मरने वालों की संख्या भी। इसी तरह से जब तक मोबाइल फ़ोन नहीं था तब भी लोगों का काम चलता था , लेकिन मोबाइल इज़ाद होने के बाद आज यह जन साधारण की ज़रुरत बन गया है। इसी तरह से हिन्दू समाज में विवाह में सम्बन्ध विच्छेद होते होंगे , लेकिन नेहरू ने जो "सिर्फ हिन्दू समाज " के लिए तलाक के दरवाज़े कानूनी रूप से खोले तो आज हिन्दू समाज में तलाक की दर 1% पहुँच गयी है। पश्चिमी देशों की 40% और अमरीका की 50% की तुलना में यह दर बहुत कम है लेकिन प्राचीन और मध्यकालीन समय के हिसाब से यह संख्या भयप्रद है।
"हिन्दू कोड बिल" --- 1947 में आज़ादी के समय तक इस बिल का बहुत प्रतिरोध हुआ और कुछ बदलाव इसमें किये गए। नेहरू की मंशा थी कि इस बिल को 1 जनवरी 1948 से लागू कर दिया जाये और तर्क ये थे कि भारत के अलग अलग प्रांतों में रहने वाले हिन्दुओं को जोड़ने के लिए इस बिल का पास होना बहुत ज़रूरी है। गौर फरमाएं , जब भारत के एकीकरण का मुद्दा उठा तो नेहरू ने भाषायी आधार पर राज्यों का गठन किया, देश को एक सूत्र में पिरोने वाली किसी एक राजभाषा का निर्धारण नहीं किया। यूनिफार्म सिविल कोड के नाम पर लाये गए हिन्दू कोड बिल के चार हिस्से हैं Hindu Marriage Act, Hindu Succession Act, Hindu Minority and Guardianship Act, and Hindu Adoptions and Maintenance Act . 1955 में नेहरू ने दुबारा चुनाव जीतते ही इस बिल को कानूनी जमा पहना दिया। ( इस लेख में हम Hindu Marriage Act पर ही चर्चा करेंगे)।
इससे पहले कि हम हिन्दू मैरिज एक्ट में तलाक के प्रावधानों को पढ़ें , एक नज़र धर्मग्रंथों पर डाल ली जाये कि हिन्दू धर्मशास्त्र किन परिस्थितियों में सम्बन्ध विछेद की संस्तुति करते हैं।
वृहद् यमसंहिता के अनुसार ----गर्भे जाते प्रित्या गोननयथा यमभाषितम। अर्थात ----यम के अनुसार यदि पत्नी किसी अन्य से प्रेमप्रसंग में गर्भ धारण करती है तो उससे सम्बन्ध विच्छेद किया जाना चाहिए।
बृहद्रिता स्मृति --- अग्निदम् गरदम् चन्दीम भर्तृघनीम लोकघातिनीम हिंसविहरमवनितम त्यक्तवा पापं ना विन्दति। अर्थात उस पुरुष को ऐसी स्त्री के परित्याग का पाप नहीं लगेगा जो घर में आग लगाने की दोषी हो , जिसने अपने बच्चों और पति को ज़हर देने की कोशिश की हो,जो अव्वल दर्जे की कर्कशा हो, जिसने अकेले या अपने प्रेमी या किसी और की सहायता से पति पर प्राणघातक हमला किया हो, जो समाज को भयभीत करे , या जो इतनी शातिर हो कि उसके कारण उसके पति के समाज से सम्बन्ध ख़राब हो।
बृहस्पति स्मृति --- नस्ते मृते प्रवृजिते क्लिबे च पतितेपुनह पञ्चवपस्तु नारिनम पतिरण्यो विधियते।
अर्थात यदि पति अचानक कहीं खो जाता है और उसका कोई सुराग नहीं मिलता , यदि पति की असामयिक मृत्यु हो जाती है, यदि वो घर छोड़ कर सन्यासी हो जाता है ,यदि वो नपुंसक सिद्ध होता है, यदि वो मदिरापान , चोरी अथवा वेश्यागमन जैसे घृणित कृत्यों के कारण समाज की नज़रों में गिर गया हो, ऐसी पांच स्थितियों में पत्नी पति का त्याग कर सकती है।
इसी प्रकार नारद और पराशर ने पांच स्थितियों का वर्णन किया है जिनमे एक स्त्री अपने पति का त्याग कर पुनर्विवाह कर सकती है। 1) जब पति बिना सूचना के एक लम्बी अवधि तक लापता रहे / खो जाये / कहीं चला जाये। 2)जब उसकी मृत्यु हो जाये। 3) जब वो गृहस्थी की जिम्मेदारियां त्याग कर साधु हो जाये। 4) जब वो नपुंसक हो। 5) जब वो विजातिय हो।
जिस विवाह को हिन्दू धर्म में 16 संस्कारों में से एक माना जाता है,स्मृतिकाल से ही हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है । किंतु विवाह, जो पहले एक पवित्र एवं अटूट बंधन था, हिंदू विवाह अधिनियम 1955 अधिनियम के बाद, ऐसा नहीं रह गया है। कुछ विधिविचारकों की दृष्टि में यह विचारधारा अब शिथिल पड़ गई है। अब यह जन्म जन्मांतर का संबंध अथवा बंधन नहीं वरन् विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, (अधिनियम के अंतर्गत) वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है।
अधिनियम की धारा 10 के अनुसार न्यायिक पृथक्करण निम्न आधारों पर न्यायालय से प्राप्त हो सकता है :
त्याग 2 वर्ष, निर्दयता (शारीरिक एवं मानसिक), कुष्ट रोग (1 वर्ष), रतिजरोग (3 वर्ष), विकृतिमन (2 वर्ष) तथा परपुरुष अथवा पर-स्त्री-गमन (एक बार में भी) अधिनियम की धारा 13 के अनुसार - संसर्ग, धर्मपरिवर्तन, पागलपन (3 वर्ष), कुष्ट रोग (3 वर्ष), रतिज रोग (3 वर्ष), संन्यास, मृत्यु निष्कर्ष (7 वर्ष), पर नैयायिक पृथक्करण की डिक्री पास होने के दो वर्ष बाद तथा दांपत्याधिकार प्रदान करनेवाली डिक्री पास होने के दो साल बाद 'संबंधविच्छेद' प्राप्त हो सकता है।
स्त्रियों को निम्न आधारों पर भी संबंधविच्छेद प्राप्त हो सकता है; यथा-द्विविवाह, बलात्कार, पुंमैथुन तथा पशुमैथुन। धारा 11 एवं 12 के अंतर्गत न्यायालय 'विवाहशून्यता' की घोषणा कर सकता है। विवाह प्रवृत्तिहीन घोषित किया जा सकता है, यदि दूसरा विवाह सपिंड और निषिद्ध गोत्र में किया गया हो (धारा 11 )।
नपुंसकता, पागलपन, मानसिक दुर्बलता, छल एवं कपट से अनुमति प्राप्त करने पर या पत्नी के अन्य पुरुष से (जो उसका पति नहीं है) गर्भवती होने पर विवाह विवर्ज्य घोषित हो सकता है। (धारा 12 )।
क्या नया लिख दिया आंबेडकर और कानून के जानकारों ने इसमें ???? हाँ अंतर्धार्मिक विवाह जो शास्त्रों के अनुसार अमान्य था उसे जरूर कानूनी वैधता दे दी।
उच्श्रृंखल और स्वछन्द मानसिकता के मारों के लिए ये कानून बहुत लाभप्रद है , जैसे मुंबई हाई कोर्ट में एक मोहतरमा ने इस बिना पर शादी के 20 साल बाद तलाक की अर्ज़ी दाखिल की, क्योंकि उनके पति रात में खर्राटें बहुत लेते है।
सवाल था कि नेहरू ने इस बिल को पास करवाने में इतनी रूचि क्यों दिखाई ???? M .O Mathai जो कि नेहरू के वैयक्तिक सहायक थे , ने अपनी किताब "रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ थे नेहरू ऐज " में लिखते हैं कि नेहरू ने इंदिरा गांधी की फ़िरोज़ गांधी से शादी वैदिक रीत रिवाज़ से इसलिए करवायी थी कि उसे समाज समाज में मान्यता मिल जाये क्योंकि वैदिक धर्म में विजातीय या अंतर्धार्मिक विवाह को मान्यता नहीं थी , इस प्रकार इंदिरा गाँधी जीवनपर्यन्त , फ़िरोज़ गांधी की रखैल रहीं और उनकी संताने अवैध।
अगर यह बिल हिन्दुओं के लिए इतना ज़रूरी था तो , जम्मू और कश्मीर के हिन्दुओं को इससे वंचित क्यों रख ??? अगर नेहरू को हिन्दुओं की इतनी चिंता थी , तो वैदिक रीति से विवाह में कन्या वर से सात वचन लेती है और वर कन्या से पांच , क्यों नहीं नेहरू ने हिन्दुओं के लिए वो वचन अनिवार्य रूप से निभाने का कानून बनाया ????
कहीं इस बिल के द्वारा नेहरू ने हिन्दू समाज में दूसरे धर्मों के घुसाने रास्ते तो नहीं खोल दिए ???? जो तलाक की दर बढ़ी है वो अपने अपने अनुभव के आधार पर जरूर बहस का विषय हो सकता है, और मेरा अनुभव कहता है कि कानूनरुपी नाखूनों की उपयोगिता उन्हें सीमाओं में रखने में ही है अन्यथा ज़ख्म मिलने ही लगते हैंजो नेहरू के कृत्य हमें अब दे रहे है।
बहुत अच्छा लेख लिखा है
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