आपको याद तो होगा ही कि याकूब मेमन और अफ़ज़ल गुरु की फांसी रुकवाने के लिए बहुत से #हिन्दू_मुस्लिम एकता के कर्णधारों ने अपने पिछवाड़े आसमान तक उठा दिए थे। बुरहान बानी और खालिद मियाँ को नायक कैसे बनाया गया यह सब भी आप लोगों ने देखा। ऐसा नहीं है कि कातिलों की फांसी रुकवाने की यह कोशिश पहली बार की गयी थी। ऐसी ही कोशिश 1935 के आस पास की गयी थी बस कोशिश करने वाले पात्र और उस समय दिए गए तर्क कुछ अलग थे।
आज ही तरह #हिन्दू_मुस्लिम एकता की मृगतृष्णा में 1916 के खिलाफत आंदोलन से एक शख्स (नाम आप जानते है) ने भागना शुरू किया और और आज भी बहुत से लोग इस दिशा में बयान देते और शायद दौड़ते हुए नज़र आ रहे हैं।
100 सालों में स्थितियों में क्या फ़र्क़ आया है इसका आँकलन आप लोग खुद कर लीजियेगा लेकिन 100 साल पहले भी परिस्थितियां कुछ ज्यादा भिन्न नहीं थीं और उस समय की परिस्थितयों को बयान करते हुए डॉ अम्बेडकर लिखते हैं ----
"सबसे पहले स्वामी श्रद्धानन्द की 23 दिसम्बर 1926 को हत्या की गयी। उसके बाद लाला नानकचन्द जो कि दिल्ली के प्रसिद्द आर्यसमाजी थे उनकी हत्या की गयी। #रंगीला_रसूल के लेखक राजपाल का 6 अप्रैल 1929 को उस समय क़त्ल कर दिया गया जब वे अपनी दूकान पर बैठे थे। सितम्बर 1934 में अब्दुल कयूम ने नाथुरामल शर्मा की हत्या कर दी। यह एक बड़ा दुस्साहसिक कार्य था क्योंकि उस समय शर्मा सिंध के जुडिशियल कमिश्नर की अदालत में इस्लामिक इतिहास के बारे में एक पेम्फ्लेट प्रकाशित करने को लेकर भारतीय दंड संहिता की धारा 195 के अंतर्गत मिली सज़ा के विरुद्ध अपनी अपील की सुनवाई का इंतज़ार कर रहे थे।
यहाँ एक बहुत छोटी सी सूची दी गयी है और इसे आसानी से और लम्बा किया जा सकता है परन्तु महत्त्व की बात यह नहीं है कि धर्मांध मुसलामानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गयी ? मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का जिन्होंने ये क़त्ल किये। जहाँ कानून लागु किये जा सके वहां हत्यारों को कानून के अनुसार सजा मिली , तथापि प्रमुख मुसलामानों ने इन अपराधियों की निंदा कभी नहीं की। इसके विपरीत उन्हें #गाज़ी बताकर उनका स्वागत किया गया उनके क्षमादान के लिए आंदोलन शुरू कर दिए गए । इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बेरिस्टर मि बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथुरामल की हत्या का दोषी नहीं है क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलामानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है परन्तु जो बात समझ में नहीं आती , वह है गांधीजी का दृष्टिकोण।
गांधीजी ने हिंसा की किसी भी घटना का कोई अवसर नहीं छोड़ा ,उन्होंने कांग्रेस को भी उसकी इच्छा के विपरीत हिंसा की घटनाओं की निंदा की लिए विवश किया। परन्तु इन हत्याओं पर गाँधी जी ने कभी विरोध प्रकट नहीं किया।मुसलामानों ने तो कभी इन जघन्य अपराधों की निंदा की ही नहीं। इसके अतिरिक्त गाँधी जी ने कभी मुसलामानों से इन हत्याओं की निंदा करने का आग्रह नहीं किया। उनके इस विषय में चुप्पी साधने के दृष्टिकोण की केवल यही व्याख्या की जा सकती है कि गाँधी जी ने हिन्दू मुस्लिम एकता बनाये रखने की खातिर कुछ हिन्दुओं की हत्या की कोई चिंता नहीं की बशर्ते हिन्दुओं के बलिदान से यह एकता बनी रहे।
मालाबार में मोपलाओं ने हिन्दुओं पर वर्णानातीत हृदयविदारक अत्याचार किये। समग्र दक्षिण भारत में प्रत्येक वर्ग के हिन्दुओं में इनसे भय की एक भयानक लहर दौड़ गयी और खिलाफत के कुछ पथभ्रष्ट नेताओं द्वारा मोपलाओं को मज़हब की खातिर की जाने वाली इस जंग के लिए बधाई दी गयी। इससे दक्षिण भारत के हिन्दू और उद्धेलित हो उठे। प्रत्येक व्यक्ति जानता था कि यह हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए ज़रुरत से ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी थी। किन्तु गाँधी जी हिन्दू मुस्लिम एकता की ज़रुरत के बारे में इतने ज्यादा सनकी हो चुके थे कि उन्होंने मोपलाओं के कारनामों और बधाई देने वाले खिलाफ़तवादियों को अनदेखा कर दिया। मोपलाओं के बारे में उन्होंने कहा कि मोपला भगवान् से डरने वाले बहादुर लोग हैं और वे उस बात के लिए लड़ रहे हैं जिसे वे धर्म समझते हैं, और उस तरीके से लड़ रहे हैं जिसे वे धार्मिक सझते हैं। _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _"
बताया गया है कि स्वामी श्रद्धानन्द के हत्यारे अब्दुल रशीद की आत्मा की शांति के लिए देवबंद के प्रसिद्द इस्लामी कॉलेज के विद्यार्थियों और प्रोफेसरों ने पांच बार कुरान का पूरा पाठ किया और प्रतिदिन कुरान की सवा लाख आयतों की तिलावल की गयी। उनकी प्रार्थना थी कि 'अल्लाह मियां ' मरहूम ( अर्थात अब्दुल रशीद) को आला -ए -उलियीन (सातवें बहिश्त) में स्थान दें। ( टाइम्स ऑफ़ इंडिया 30. 07.1927 , 'थ्रू इंडियन आईज' नाम के स्तम्भ से।)
These were Excerpts from -- "Pakistan or Partition of India" By Dr. B.R Ambedkar
ये अब्दुल रशीद के बारे पढ़ कर बुरहान बानी और याकूब मेमन के जनाजे याद आये आपको ??? बुरहान बानी का महिमामंडन याद आया आपको ??? अफ़ज़ल हम शर्मिंदा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं , याद आया आपको ???_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#
क्या बदला 1920 के दशक की हत्यायों या 1921-22 के मोपला हत्याकाण्ड के बाद की और आज की सोच में ?? सिर्फ समय बदला है। मंच बदला है। वक्ता बदले हैं। पात्र बदले हैं। मगर कुरान जब से लिखी गयी है उसमे नुक्ता भर बदलाव नहीं हुआ है और कुरान को मानने वाले बखूबी जानते हैं कि बड़े बड़े मंचों से कोई कुछ भी कह ले उन्हें काफिरों के साथ वही करना है जो कुरान और हदीस के हिसाब से वो सदियों से करते आये हैं। मोपला के कत्लेआम से पहले 900 साल तक तक के कत्लेआम आप भूलना चाहते हैं। मोपला के बाद डायरेक्ट एक्शन डे , नोआखली , विभाजन के समय के कत्लेआम , 1990 में कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम, पश्चिमी बंगाल में 2015 में 16 दंगों और 2016 में 24 दंगे और सैंकड़ों गांव के हिन्दुविहीन हो गए आप भूलना चाहते हैं। मर्जी आपकी है।
अब इतिहास से सबक लेना है या कुरान से यह समझने की ज़िम्मेदारी हिन्दुस्तान के काफिरों की है मुसलामानों की नहीं।