जो भी कह गया सही कह गया -------- कुत्तों को घी हजम नहीं होता।
कन्हैया को चाहिए आज़ादी । किस बन्धन में है। खुले में पेशाब करने पर कोई लड़की न टोके ???? कन्हैया को आज़ादी चाहिए उस न्यायपालिका से जिसने याकूब मेमन और अफज़ल गुरु को फाँसी की सजा सुनायी। कन्हैया ,उसके साथियों और उसके प्राचार्यों को आज़ादी चाहिए उस कश्मीर की जिसे अन्य राज्यों की तुलना में अनुछेद 370 के तहत बेवज़ह की रियायतें पहले से ही मिली हुईं हैं। कन्हैया को सेना के जवान बलात्कारी नज़र आये लेकिन कन्हैया को कश्मीर में मारे जाते सेना के जवानों के कटे हुए सिर नज़र नहीं आते। कन्हैया को 1947 से 1990 तक के कश्मीर में हुए बलात्कार नज़र नहीं आये। कन्हैया को 1990 के दशक का कश्मीरी पंडितों का अपने ही देश में रिफूजी बनना नज़र नहीं आया। उसको दांतेवाड़ा में मारे गए 78 CRPF के जवानों की मौत पर JNU में हुआ जश्न नज़र नहीं आया। देश में रोज़ सैकड़ों बलात्कार और आत्महत्याएं होतीं हैं , लेकिन कन्हैया को नज़र आया तो रोहित वेमुला।
कन्हैया का आदर्श रोहित वेमुला है और रोहित वेमुला को अफ़सोस था कि 258 निर्दोष मुंबईवासियों की बेवज़ह मौत के गुनहगार को रात तीन बजे तक जद्दोजहद करने के बावजूद राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट ने फाँसी क्यों दे दी। लेकिन कन्हैया को निर्भया को दर्दनाक मौत देने वाले को कानून द्वारा दी गयी सिलाई मशीन और धनराशि नज़र नहीं आई।
क्यों ?????? क्यूंकि दांतेवाड़ा में CRPF के जवानों को माओवादियों ने मार था और कश्मीर में आतंक फैलाने वाले, मुंबई पर हमला करने वाले , संसद पर हमला करने वाले और निर्भया का कातिल ये सब मुसलमान हैं।
ये देशविरोधी वामपंथी विचारधारा नयी नहीं है। कन्हैया तो बस एक गुर्गा है वामपंथी विचारधारा का। वो वामपंथी विचारधारा जो 1920 में भारत पहुंची और 1929 में इन्होने तमाम कारखानों में हड़ताल करवा दी। 1942 में गाँधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन के खिलाफ अंग्रेज़ों से मिल कर आंदोलन की हवा निकाल दी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस चूँकि अंग्रेज़ों के खिलाफ थे और जापान से सहायता ले रहे थे इसलिए इन वामपंथियों की नज़र में वे देशद्रोही थे और हैं। 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया और 90,000 sq km ज़मीन खो दी तो ये वामपंथी ही थे जिन्होंने चीन की तरफदारी करते हुए ये कहा था कि हमला तो भारत ने किया है। सिर्फ इतना ही नुक्सान किया होता वामपंथियों ने तो भी शायद आज का भारत बर्दाश्त कर लेता। लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने तो नालंदा विश्वविद्यालय के गुनहगार मीर कासिम के सारे दोष 2 ब्राह्मणों के सिर मढ़ दिए। पूरा का पूरा इतिहास ही रगड़ कर रख दिया "ARYAN INVASION THEORY " गढ़ कर। तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकार फख्र के साथ लिखते हैं कि कैसे महमूद ग़ज़नवी से लेकर औरंगज़ेब धर्मांध थे , उन्होंने लाखों लोगों का कत्लेआम किया , 40000 मंदिर तोड़े, लाखों लोगों का धर्मांतरण किया , लेकिन वामपंथी इतिहासकार पूरा जोर लगा कर शोधपत्र प्रस्तुत करते हैं कि मेहमूद से लेकर औरंगज़ेब तक किसी में धार्मिक असहिष्णुता नहीं थी। इन सब लुटेरों के कृत्य वित्तीय कारणों से प्रेरित थे। गैर मुस्लिमों पर जजिया लगाना वित्तीय कारण हो सकता है, लेकिन लाखों निर्दोष लोगों की हत्या ??? हजारों मंदिरों का तोडना और फिर उनकी मूर्तियों को मस्जिदों की सीढ़ियों में चिनवाना ???? गुरु तेग बहादुर , सम्भा जी , भाई सतीदास , भाई मतिदास, गुरु गोबिंद सिंह के बच्चों को ज़िंदा दिवार में चिनवाना, इन सबके पीछे कौन से वित्तीय कारण थे ??? इसके इतर कोई कुछ लिख देता है तो ये वामपंथी मिल कर उसे झूठा साबित कर देते हैं।
इनका बस चले तो ये गुरु नानक देव जी को भी गलत साबित कर दें , जिन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब के महला 1:360 में लिखा है "#खुरासान_खसमाना_किया_हिन्दुस् तान_डराइया .........( खुरासान = अफगानिस्तान का हिस्सा , खसमाना =बर्बाद ) यानि की गुरु नानक देव जी भी यह कह रहे हैं कि खुरासान को बर्बाद करने के बाद हिन्दुस्तान को डराया। ऐसे ही महला 1 : 417 में गुरु नानक देव जी कहते हैं कि , नमाज़ के वक्त हिन्दू पूजा नहीं कर सकते थे , वे तिलक नहीं लगा सकते थे और नहा नहीं सकते थे, और जिसने ज़िन्दगी भर राम का नाम नहीं लिया वो खुदा खुदा करके भी नहीं बचता था। पर आज के इतिहासकार लिखते हैं कि अफगानिस्तान में फैला हुआ बौद्ध धर्म "ब्राह्मणों" ने बर्बाद किया।
वैसे तो अव्यवहारिक वामपंथ का जनक कार्ल मार्क्स था लेकिन जिसभारत और हिन्दू धर्म को बर्बाद करने वाले ( कृपया मेरी कल पोस्ट की गयी, वृंदा करात वाली 32 सेकंड की वीडियो देखें ) वामपंथ के समर्थक ये भारतीय हैं उसका असली जनक लेनिन था और स्टालिन तथा माओ जिसके पोषक थे यदि उनके वामपंथ के विषय में न लिखा तो ये पोस्ट अधूरी रह जाएगी।
1917 में रूस में लोकतान्त्रिक तरीके से सरकार चुनी गयी और 1918 में लेनिन ने उसे गिरा कर एकल पार्टी की सरकार बना दी। जिन लाखों लोगों ने इसका विरोध किया उन्हें लकड़ी के लट्ठों से बांध कर आग की भट्टी में जलने के जिन्दा डाल दिया , उन्हें आरे से कटवा दिया , दस्ताने बनाने के लिए उनके हाथ काट दिए गए , उन्हें सूली पर चढ़ाया गया, उनसे गहरी गहरी कब्रे खुदवा कर उसी में दबा दिया गया , सड़कों पर उन्हें नंगा करके उनपर तब तक ठण्डा पानी डाला जाता था जबतक वे बर्फ के पुतले नहीं बन जाते थे, लोहे के डिब्बों में छेद करके उसमे चूहा रख कर पेट पर बांध दिया जाता था और फिर डिब्बे को तब तक गर्मी करते थे जबतक चूहा शरीर काट कर बहार नहीं निकल जाता था। आदमियों को जबरदस्ती गिरफ्तार कर लिया जाता था और तब तक नहीं छोड़ा जाता था जब तक उनके घर की महिलायें अपना यौन शोषण नहीं करवा लेतीं थीं। इस तरह लगभग मात्र एक लाख चालीस हज़ार विरोधियों को खत्म किया गया। चर्चों और मस्जिदों से बस 70000 पादरियों और मौलवियों को गुलामी कैम्प में भेज कर अत्यंत निकृष्ट हालात में गुलामी करवाई गयी फिर मई 1922 में लेनिन के एक लाइन के आदेश पर सिर्फ बीस हज़ार गुलामों को मार दिया गया। लेनिन के आदेश पर इन क्रूर हत्याओं के औचित्य को लेनिन का दाँया हाथ कहा जाने वाला ----"Grigory Zinoviev " कहता है कि " अपने विरोधियों पर काबू पाने के लिए हमारे पास अपनी साम्यवादी सेना होनी चाहिए। हमें अपने साथ सोवियत रूस के 10 करोड़ लोगों में से 9 करोड़ लोगों को साथ ले कर चलना है। बाकि के लिए हमें कुछ नहीं कहना है , उन्हें ख़त्म ही कर दिया जाना चाहिए। इतिहास की किताबों में आप इसे 'Red Terror" के नाम से पढ़ सकते हैं।
वैसे तो लेनिन 21 जनवरी 1924 को खत्म हुआ लेकिन स्टालिन ने 1922 से ही अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी थी और फिर जो भी स्टालिन के खड़ा हुआ उसको किसने मार दिया किसी को पता ही नहीं चला। अपनी पकड़ सिस्टम पर और मजबूत करने के लिए स्टालिन ने 1930 में एक नया कानून बनाया "Terrorists Organisations and Terrorists act " इसके तहत १० दिनों में कार्यवाही हिनी चाहिए थी। कोई वकील नहीं कोई सुनवाई नहीं बस तुरंत "मौत का फरमान " और इस तरह से स्टालिन ने अपने विरोधियों को कानूनी रूप से ख़त्म करना शुरू किया। सोवियत इतिहास कर बताते हैं कि 1937 में स्टालिन ने पोलैण्ड,जर्मनी और कोरिया के 3,50,000 लोगों को गिरफ्तार किया और उनमें से 247,157 को मार दिया। 1937 में उपरोक्त कानून के तहत 353074 लोगों को और 1938 में 328612 रूस के नागरिकों को क़त्ल कर दिया। इनमे कर्मचारी, किसान, अध्यापका ,सिपाही , बच्चे बुज़ुर्ग भिखारी सभी शामिल थे। 1941 से लेकर 1949 तक स्टालिन ने 33 लाख लोगों को साइबेरिया में फेंक दिया जिसमे से लगभग 14 लाख लोग ठण्ड के कारण मर गए। आधिकारिक सोवियत दस्तावेज़ों के अनुसार 1929 से 1953 तक एक करोड़ चालीस लाख लोगों को स्टालिन ने Gulag camps ( विद्रोहियों और विरोधियों के लिए बनाये गए गुलामी के कैंप) में भेजा था और 70 से 80 लाख लोगों को को या तो देश निकला दे दिया था या देश के सुदूर और कठिन इलाकों में फेंक दिया था।
अब एक नज़र चीन के वामपंथ पर भी डाल ली जाये। 1920 -21 में ही ये मनहूस वामपंथ छें पहुँच गया था। संक्षेप में इतिहास बताता है कि रेड आर्मी से "माओ"की पीपल्स लिब्रेशन आर्मी बनने तक चीन की सत्ता हासिल करने के लिए वामपंथियों ने तमाम लड़ाईयां लड़ीं और चीन के विरुद्ध जापान की सहायता की। 1948 में माओ के आदेश पर पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने पांच महीने तक Changchun शहर की घेराबंदी की और 160000 नागरिकों को भूखा मार दिया। 10 दिसम्बर 1949 को माओ ने चीन पर कब्ज़ा कर लिया। 1950 में चीन में वामपंथी विचारधारा को अमली जामा पहनाने के लिए "भूमि सुधार " (Land Reform) कार्यक्रम की शुरुआत हुई , जिसके तहत मो ने खुद माना कि 1950 से 1952 के बीच उसका विरोध करने वाले लगभग सात लाख लोग मारे गए जबकि अमरीकी सूत्रों का कहना है कि आठ से दस लाख लोग मारे गए थे। वैसे सरकारी नीति के तहत हर गाँव से एक ज़मींदार को शरेआम क़त्ल करना था , लेकिन कई बार एक से ज्यादा क़त्ल भी हो जाते थे इसलिए मारे जाने वालों की संख्या 20 से 50 लाख के बीच हो सकती है। इसके इलावा चालीस से साठ लाख लोगों को "Reform Through labour" कैम्प्स में भेजा गया जहाँ लगभग पन्द्रह लाख लोगों की मौत हो गयी।
1953 में माओ ने "Hundred Flower campaign " चलायी। इस कार्यक्रम के तहत चीन में सरकार कैसे चलायी जाये इस विषय पर माओ ने लोगों के विचार जानने की इच्छा जाहिर की। बहुत से लोगों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथी सरकार , इसकी नीतियों और इसके नेतृत्व को नकरना शुरू कर दिया। कुछ महीनो बाद माओ ने यह कार्यक्रम बंद कर दिया और जिसने भी अपनी राय दी थी उसे मौत की नींद सुला दिया। इस तरह सिर्फ पांच लाख लोग काल कलवित हो गए। 1958 में माओ ने "Great Leap Forward " नाम का किसानों के लिएपंच वर्षीय कार्यक्रम चलाया , जिसमे उपज नियंत्रित रखी जानी थी। इतेफाक से इस कार्यक्रम का साथ प्राकृत आपदाओं ने दिया और दसियों लाख लोग अकाल की भेंट चढ़ गए। 1962 में यह कार्यक्रम भी रद्द कर दिया गया। 1958 से 1962 के बीच मो की गलत वामपंथी नीतियों के कारन मरे यह एक विवाद का विषय रहा है लेकिन , 1953, 1964,और 1982 की जनगणना के आधार पर अमरीका के जनसंखियिकी विशेषज्ञ " Dr. Judith Banister " का मानना है कि कम से कम 1.50 करोड़ लोग इस दरम्यान दुर्भिक्ष का शिकार हुए।
इसके बाद चीन के इतिहास में आया बीजिंग का तिएनमैन स्क्वायर। 1976 में एक प्रोफेसर फांग लीज़ही को ,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता , मानवाधिकार, लोकतंत्र और सत्ता के विकेंद्रीकरण के कीड़े ने काट लिया। इसने और इसकी पत्नी ने विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकार पर खूब जोशीले भाषण सुनाये। बहुत कैसेट चले इसके भाषणों के और अप्रैल 1989 में लाखों विद्यार्थियों और चीन के नागरिकों ने तिएनमैन स्क्वायरघेर लिया। उन्हें चाहिए थी आज़ादी। आज़ादी वामपंथ से। उन्हें चाहिए थी डेमोक्रेसी। उन्हें चाहिए थी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। जिसे 3-4 और 5 जून को चीन की सरकार ने पूरे शहर को सेना से घेर कर जब उनके उनके पिछवाड़े में डाली तो कहते हैं 3000 लोगों / विद्यार्थियों के हलक से जान निकल गयी।
क्यों कन्हैया कुमार, ऐसी ही रूस और चीन वाली अभिव्यक्ति की आज़ादी और मानवाधिकार चाहिए हैं न। जो भी कह गया सही कह गया -------- कुत्तों को घी हजम नहीं होता।
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