शनिवार, 24 सितंबर 2016

नेहरू शेख अब्दुल्ला ---कश्मीर समस्या के माँ बाप

रालिव ,चालिव गालिव ------ धर्मपरिवर्तन कर लो, छोड़कर चले जाओ या मौत का अंगिकार कर लो ( शेख अब्दुल्लाह ,कश्मीर के वज़ीरे आज़म, तत्पश्चात मुख्यमंत्री ने लिखा अपनी आत्मकथा " आतिशे चिनार" में हिंदुओं के लिए) और उनका पोता उमर अब्दुल्लाह कह रहा है कि " मैं अपनी गर्दन कटवा दूंगा लेकिन "सिंधु नदी का समझौता रद्द नहीं होने दूँगा। 
भारत कश्मीर में चाहें सोने की सड़कें बनवा दे लेकिन कश्मीर अपना हक़ लेकर रहेगा ---- गिलानी।
क्या सोच कर अकल और आँख के अन्धे कश्मीरियत ,जम्हूरियत और इन्सानियत की बात करते हैं। इन तीन लफ़्ज़ों के आगे बुरहान वाणी वाली जिहादियत को जोड़ना क्यों भूल जाते हैं।
जम्हूरियत और इंसानियत तो जैसी पूरे भारत में है वही कश्मीर में भी है लेकिन जब कश्मीरियत की बात आती है तो जम्मू और कश्मीर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हरी ओम जो कि इंडियन काउंसिल ऑफ़ हिस्टॉरिकल रिसर्च के सदस्य भी है --ने वर्ष 2000 में एक समाचार पत्र में लिखा ---
1) कश्मीरी जनसँख्या राज्य की मात्र 22 प्रतिशत है लेकिन अब्दुल्ला ने राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन इतनी शातिरता से करवाया कि 1951 में नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी को आधी से अधिक लोकसभा और विधानसभा की सीट पर विजय मिली। अब्दुल्ला का पैंतरा था कि उसने कश्मीर में 46 और जम्मू और लद्दाख में 41 निर्वाचन क्षेत्र बनवाये जबकि जम्मू और लद्दाख की जनसँख्या कश्मीर के मुकाबले बहुत अधिक थी। 
2) घाटी के सरकारी और अर्धसरकारी संस्थानों में कार्यरत दो लाख चालीस हज़ार कर्मचारियों में से दो लाख तीस हज़ार कश्मीरी हैं। 
3) जम्मू और कश्मीर के जितने भी व्यावसायिक और तकनीकी संस्थान, सीमेंट , टेलीफोन या अन्य सार्वजानिक क्षेत्र के संसथान हैं उनमे कश्मीरियों का एकाधिकार है। 
4) एक भी कश्मीरी ऐसा नहीं है जिसके पास अपना घर न हो और भारत के अन्य राज्यों की तरह आज तक कश्मीर में एक भी मौत ठण्ड या भुखमरी से नहीं हुई। 
5) कश्मीरी एक भी रुपया राज्य के राजस्व में नहीं देते और राज्य का 90% राजस्व जम्मू और लद्दाख से आता है जबकि इसका अधिकांश हिस्सा कश्मीर में खर्च किया जाता है न कि जम्मू और लद्दाख के अति पिछड़े इलाकों के विकास के लिए। 
इन सब तथ्यों के मद्देनज़र सिर्फ कश्मीर और कश्मीर ही नज़र आता है बाकी राज्य का तो जैसे आस्तित्व ही नहीं है। इसी तर्ज़ पर जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट के सेवानिवृत न्यायधीश जे एन भट ने मई 2000 के "वॉइस ऑफ़ जम्मू कश्मीर " नाम की पत्रिका में लिखा कि --
1) सरकार ने जम्मू के बाहरी हिस्सों में हज़ारों प्लाट काटे और कश्मीरियों को दिए ,लेकिन लाभान्वित लोग एक ख़ास वर्ग से संभंधित हैं। 
2) जम्मू के कुछ इलाकों में पानी की सप्लाई तीन चार दिन के उपरान्त की जाती है जो कि प्यास भुझाने के लिए भी कम है। यानि कि विकास के लिए आये हुए पैसे का दुरूपयोग किया गया है। 
3) जम्मू क्षेत्र के डोडा और पुंछ इलाकों में हिन्दू अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया जाता है ,जिसकी वजह से चैन से जीने के लिए लोगों को धर्मान्तरण ही एक उपाय नज़र आता है जबकि बहुत से लोग धर्मान्तरण की बजाये मरना पसंद करते हैं। 
क्या इसी कश्मीरियत की बात कर रही हैं सरकारें, अलगाववादी और कश्मीर के बाशिंदे ???? 
आज की तारीख में कश्मीर घाटी में कोई सेकुलरिज्म की बात नहीं करता क्योंकि घाटी में 1 प्रतिशत भी अन्यधर्मों के लोग नहीं बचे हैं जबकि देश आज़ाद होने के बाद से कश्मीर में हमेशा मुसलामानों के हितों का राग अलाप कर इसे भारत में विलय से शेख अब्दुल्ला ने ने रोका था। 
शेख अब्दुल्ला और कांग्रेस जनित कश्मीर समस्या पर विस्तृत लेख फिर कभी लिखेंगे लेकिन सारांश यह है कि पकिस्तान से मिलकर भारत विरोधी गतिविधियों और देश द्रोह जैसे संगीन अपराधों के चलते शेख अब्दुल्ला को दो बार गिरफ्तार किया गया लेकिन दोनों बार अदालत की कार्यवाही पूरी हुए बिना नेहरू ने उसे क्यों छोड़ दिया यह कोई नहीं जानता। 
हाँ 1949 में गुप्तचर विभागों द्वारा शेख अब्दुल्ला की नियत के खिलाफ रिपोर्ट प्रधानमंत्री को दी गयी तो नेहरू ने कहा कि "शेख अब्दुल्लाह कि भारत के प्रति प्रतिबद्धता पर शक नहीं किया जा सकता। और जब यही रिपोर्ट तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल के पास भेजी गयी तो उनकी प्रतिक्रिया थी ---------
ये शेख अब्दुल्ला एक दिन भारत को नीचा जरूर दिखायेगा ----- और उड़ी घटना के बाद संयुक्त राष्ट्र सभामें तथाकथित शरीफ ने कह ही दिया " कि उड़ी की घटना भारतीय सेना द्वारा कश्मीर में दमनकारी नीतियों की प्रतिक्रिया है और बुरहान वानी एक आतकंवादी नहीं शहीद है।     
भारत के टुकड़े हुए दो , लेकिन आत्मायें थीं तीन जो वज़ीरे आज़म बनने का ख्वाब पाले हुए थीं। नेहरू,जिन्ना और शेख अब्दुल्ला। नेहरू और अब्दुल्ला के वंशजों ने 70 में से लगभग 55 साल राज किया, आज जब सत्ता से बाहर हैं तो देश इनके द्वारा कदम कदम पर खोदे हुए गड्ढों में गिर रहा है और चोट खा रहा है।
उससे बड़ी गलती कर रहे हैं इनको प्यार से समझने वाले। न तो कुत्तों को घी हजम होता है और न कुत्तों की दुम सीढ़ी होती है। 

शनिवार, 10 सितंबर 2016

धर्मो में विरोधाभास की पराकाष्ठा



सितंबर का दूसरा सप्ताह चल रहा है और भारत के दो मुख्य त्यौहार इस सप्ताह मनाये जा रहे हैं। जैन लोग पर्युषण (संवत्सरी) मना रहे हैं और मुसलमान लोग तैयारी कर रहे है ईद उल ज़ुहा की ।त्यौहार दोनों ही त्याग आधारित हैं लेकिन दोनों में विरोधाभास की पराकष्ठा है। 
एक नज़र डालते हैं जैन धर्म के पर्युषण पर्व पर। जैनियों में सबसे अधिक महत्ता रखने वाला पर्व यही है। श्वेतांबर जैन इसे आठ दिन और दिगम्बर जैन इसे दस दिन मनाते हैं। दस दिनों के इस पर्व का मुख्य विषय आत्मा की शुद्धि होता है , जिसे शारीरिक और मानसिक उपवास रख कर अपनी आत्मा पर अधिक से अधिक ध्यान लगा कर शुद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इस पर्व में निम्न दो मन्त्रों का विशेष रूप से जाप किया जाता है --
1) #मिच्छामि_दुक्कड़म
अर्थात ----यदि मैंने आपको जाने अनजाने में मनसा , वाचा, कर्मणा कोई कष्ट दिया है तो उसके लिए मैं आपसे क्षमा प्रार्थना करता हूँ।

,
2 ) खमेमी सव् वे जीवा, सववे जीवा खमंतु मे, मित् ती मे सव् वे भूएसु, वेरं मज् झ न केणइऐ। (#Note--- Please ignore the spelling mistakes done by me while writting this mantra)
Meaning: I forgive all the living beings of the universe, and may all the living-beings forgive me for my faults. I do not have any animosity towards anybody, and I have friendship for all living beings. अर्थात मैंने इस ब्रह्माण्ड में सभी जीवित प्राणियों को माफ़ कर दिया और सभी जीवित प्राणी मुझे माफ़ कर दें। मेरे दिल में किसी के प्रति कोई बैर भाव नहीं है और मेरी सभी जीवित प्राणियों से मित्रता है।
----- न सिर्फ इस मन्त्र का जप किया जाता है बल्कि अपने सभी मित्रों और सम्बन्धियों से पिछली कर्मो और वचनों द्वारा की गयी गलतियों के लिए माफ़ी मांगी जाती है। उन प्राणियों से भी माफ़ी मांगी जाती है जो जाने अनजाने में इनसे आहात हो गए हों। वैसे तो जैन धर्म है ही अहिंसा का प्रतीक फिर भी इस समय अनजाने में किसी भी प्राणी के प्रति हुई हिंसा के लिए क्षमा मांगी जाती है।
अब आ जाइये ईद पर---- मैं इस हफ्ते पड़ने वाली ईद ---ईद उल ज़ुहा--बकरीद की बात कर रहा हूँ। अल्लाह के नाम पर बलि चढाने का ये सिलसिला तो वैसे यहूदियों के पैगम्बर मूसा से भी बहुत पहले इब्राहिम ने ऊपर वाले के कहने पर अपने सबसे प्रिय बेटे इसहाक की बलि चढ़ाने की मांग से शुरू किया था। लेकिन बाइबिल में लिखा है कि जैसे ही इब्राहिम,इसहाक का गला रेतने वाले थे खुदा के दूत ने उन्हें रोक दिया और तभी इब्राहिम ने देखा कि झाड़ियों में एक मेढा फंसा हुआ है ,तो इब्राहिम ने उसे पकड़ कर उसकी बलि चढ़ा दी। ( बाइबिल --जेनेसिस -22: 1-14 )
कुछ ऐसी ही कहानी कुरान के सूरा 37 आयत 100 -110 में है, कि इब्राहिम को को ख्वाब आता था कि खुदा उससे उसके सबसे प्रिय बेटे की बलि मांग रहा है। जब इब्राहिमअपने बेटे की बलि चढ़ाने लगे तो खुदा ने उनके रोक कर शाबाशी दी और बलि चढाने के लिए बेटे की जगह एक जानवर दे दिया। 

त्याग दोनों पर्वों में हैं , एक में खुद को पीड़ा दे कर और दूसरे में दो दिन पहले खरीदे हुए बेजुबानों की जान लेकर अपने पैसे का त्याग। खैर यह तो अब ऊपर वाला तय करे कि कौन सा त्याग उसे स्वीकार है।
एक धर्म है सभी के सुख की कामना करता है और अपनी गलतियों के लिए क्षमा याचना करता है और एक मज़हब है जो अपनी प्राथना के बाद उपरवाले से कहता है कि हमें काफिरों को मारने और उनपर राज करने की ताकत दे। सिर्फ अपनी प्रार्थना में ही नहीं कहते बल्कि अपने पवित्रतम धर्मस्थल मक्का से उनके धर्मगुरु प्रार्थना सभा के दौरान सभी काफिरों को मारने का एलान भी करते हैं। यकीं न हो तो नीचे दिया गया लिंक खोल लीजिये।
https://sputniknews.com/…/saudi-imam-calls-death-shia-jews-…
वैसे ऊपर वाले के ऊपर एक मजेदार बात यह है कि आज की तारिख में कोई उसके ऊपर रिस्क लेकर अपने सबसे प्रिय बेटे को ज़िब्ह के लिए छुरी के नीचे नहीं रखता अलबत्ता जिहाद में मरवा कर पता नहीं कौन सी जन्नत का वीसा दिलवाते है।

धर्मो में विरोधाभास की पराकाष्ठा



सितंबर का दूसरा सप्ताह चल रहा है और भारत के दो मुख्य त्यौहार इस सप्ताह मनाये जा रहे हैं। जैन लोग पर्युषण (संवत्सरी) मना रहे हैं और मुसलमान लोग तैयारी कर रहे है ईद उल ज़ुहा की ।त्यौहार दोनों ही त्याग आधारित हैं लेकिन दोनों में विरोधाभास की पराकष्ठा है। 
एक नज़र डालते हैं जैन धर्म के पर्युषण पर्व पर। जैनियों में सबसे अधिक महत्ता रखने वाला पर्व यही है। श्वेतांबर जैन इसे आठ दिन और दिगम्बर जैन इसे दस दिन मनाते हैं। दस दिनों के इस पर्व का मुख्य विषय आत्मा की शुद्धि होता है , जिसे शारीरिक और मानसिक उपवास रख कर अपनी आत्मा पर अधिक से अधिक ध्यान लगा कर शुद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इस पर्व में निम्न दो मन्त्रों का विशेष रूप से जाप किया जाता है --
1) #मिच्छामि_दुक्कड़म
अर्थात ----यदि मैंने आपको जाने अनजाने में मनसा , वाचा, कर्मणा कोई कष्ट दिया है तो उसके लिए मैं आपसे क्षमा प्रार्थना करता हूँ।

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2 ) खमेमी सव् वे जीवा, सववे जीवा खमंतु मे, मित् ती मे सव् वे भूएसु, वेरं मज् झ न केणइऐ। (#Note--- Please ignore the spelling mistakes done by me while writting this mantra)
Meaning: I forgive all the living beings of the universe, and may all the living-beings forgive me for my faults. I do not have any animosity towards anybody, and I have friendship for all living beings. अर्थात मैंने इस ब्रह्माण्ड में सभी जीवित प्राणियों को माफ़ कर दिया और सभी जीवित प्राणी मुझे माफ़ कर दें। मेरे दिल में किसी के प्रति कोई बैर भाव नहीं है और मेरी सभी जीवित प्राणियों से मित्रता है।
----- न सिर्फ इस मन्त्र का जप किया जाता है बल्कि अपने सभी मित्रों और सम्बन्धियों से पिछली कर्मो और वचनों द्वारा की गयी गलतियों के लिए माफ़ी मांगी जाती है। उन प्राणियों से भी माफ़ी मांगी जाती है जो जाने अनजाने में इनसे आहात हो गए हों। वैसे तो जैन धर्म है ही अहिंसा का प्रतीक फिर भी इस समय अनजाने में किसी भी प्राणी के प्रति हुई हिंसा के लिए क्षमा मांगी जाती है।
अब आ जाइये ईद पर---- मैं इस हफ्ते पड़ने वाली ईद ---ईद उल ज़ुहा--बकरीद की बात कर रहा हूँ। अल्लाह के नाम पर बलि चढाने का ये सिलसिला तो वैसे यहूदियों के पैगम्बर मूसा से भी बहुत पहले इब्राहिम ने ऊपर वाले के कहने पर अपने सबसे प्रिय बेटे इसहाक की बलि चढ़ाने की मांग से शुरू किया था। लेकिन बाइबिल में लिखा है कि जैसे ही इब्राहिम,इसहाक का गला रेतने वाले थे खुदा के दूत ने उन्हें रोक दिया और तभी इब्राहिम ने देखा कि झाड़ियों में एक मेढा फंसा हुआ है ,तो इब्राहिम ने उसे पकड़ कर उसकी बलि चढ़ा दी। ( बाइबिल --जेनेसिस -22: 1-14 )
कुछ ऐसी ही कहानी कुरान के सूरा 37 आयत 100 -110 में है, कि इब्राहिम को को ख्वाब आता था कि खुदा उससे उसके सबसे प्रिय बेटे की बलि मांग रहा है। जब इब्राहिमअपने बेटे की बलि चढ़ाने लगे तो खुदा ने उनके रोक कर शाबाशी दी और बलि चढाने के लिए बेटे की जगह एक जानवर दे दिया। 

त्याग दोनों पर्वों में हैं , एक में खुद को पीड़ा दे कर और दूसरे में दो दिन पहले खरीदे हुए बेजुबानों की जान लेकर अपने पैसे का त्याग। खैर यह तो अब ऊपर वाला तय करे कि कौन सा त्याग उसे स्वीकार है।
एक धर्म है सभी के सुख की कामना करता है और अपनी गलतियों के लिए क्षमा याचना करता है और एक मज़हब है जो अपनी प्राथना के बाद उपरवाले से कहता है कि हमें काफिरों को मारने और उनपर राज करने की ताकत दे। सिर्फ अपनी प्रार्थना में ही नहीं कहते बल्कि अपने पवित्रतम धर्मस्थल मक्का से उनके धर्मगुरु प्रार्थना सभा के दौरान सभी काफिरों को मारने का एलान भी करते हैं। यकीं न हो तो नीचे दिया गया लिंक खोल लीजिये।
https://sputniknews.com/…/saudi-imam-calls-death-shia-jews-…
वैसे ऊपर वाले के ऊपर एक मजेदार बात यह है कि आज की तारिख में कोई उसके ऊपर रिस्क लेकर अपने सबसे प्रिय बेटे को ज़िब्ह के लिए छुरी के नीचे नहीं रखता अलबत्ता जिहाद में मरवा कर पता नहीं कौन सी जन्नत का वीसा दिलवाते है।

शनिवार, 3 सितंबर 2016

शरीयत का कानून



पहली तस्वीर उस बच्चे की है जिसने एक ब्रेड चोरी करने की गलती की थी। दूसरी तस्वीर उस लड़की की है जिसकी खता यह थी कि उसका बलात्कार हुआ था और उसने अदालत की यह कह कर बेइज़्ज़ती कर दी थी कि ट्रायल उसका नहीं बलात्कारी का होना चाहिए। तीसरी तस्वीर में भी औरत को पत्थर मार मार कर मार दिया जायेगा , उसका गुनाह मुझे मालूम नहीं। 
ये कुछ उदाहरण हैं शरियत क़ानून में दी जाने वाली सज़ाओं के। 
भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड क्या ट्रिप्पल तलाक़ के अलावा चोरी, क़त्ल और व्यभिचार के लिए शरीयत में बताई गयी सज़ाओं के लिए वकालत करता है ???? 
शरीयत क़ानून वो हैं जिन्हें कुरान में तथाकथित खुदा ने बताया या जैसे मोहम्मद अपनी ज़िन्दगी जीता था उसको नज़ीर मान कर हदीसों में क़ानून बना दिया गया। सूरा 
मुझे नहीं पता कि सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तीन तलाक़ के ऊपर क्या दलीलें पेश कर रहा है , लेकिन कुरान में भी तीन बार तलाक़ कहने की मियाद तीन महीने दी गयी है। यानि कि अगर किसी ने तलाक़ देने का मन बना ही लिया है तो वो औरत को उसकी माहवारी से पहले एक बार तलाक कहेगा , इसके बाद भी वे पति पत्नी के सम्बन्ध बना सकते हैं। फिर दूसरी माहवारी के बाद दूसरी बार तलाक़ कहेगा। इसके बाद भी वे पति पत्नी की तरह रह सकते हैं। और यदि सुलह की कोई गुंजाइश हो तो उसे मौका दिया जा सकता है ,लेकिन तीसरी माहवारी के बाद भी यदि तलाक कह दिया जाता है तो तलाक हो जाता है। ये तीन महीने की मोहलत देने की दो वजह थीं। पहली कि, इस समय के दौरान सुलह की कोशिश की जानी चाहिए। दोनों पक्षों के दो दो समझदार लोगों या निकाह के समय के चश्मदीद गवाह सुलह सफाई करवाने में मदद करें। यदि वे असफल हो जाते हैं तो पति पत्नी अलग हो सकते हैं। दूसरी वजह यह थी कि यदि तलाक देने के समय औरत गर्भवती हो जाती है तो बच्चा पैदा होने के तीन महीने बाद या इद्दत के समय तक मर्द उस औरत को घर से नहीं निकल सकता और उसे उस औरत और बच्चे का पूरा खर्च उठाना पड़ेगा। इद्दत का समय तीन महीने यानि की 90 दिन होती है। इसके बाद औरत अपने बच्चों की गठरी लाद कर भाड़ में जाये न पति को इससे कोई मतलब है , न समाज को और मुझे तो बिलकुल नहीं है।
मुझे क्यों दिक्कत नहीं है , इसकी भी दो वजहें हैं। पहली कि मैंने बहुत सी मुसलमान औरतों की हिन्दू धर्म की मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ाती हुई पोस्ट पढ़ीं हैं , इसलिए मेरी दिली ख्वाइश है कि इस्लाम उन्हें इस तरह से ही रखे। और दूसरी वजह है कि जब कुरान ने ही उन्हें मर्द के मुकाबले में कमतर बताया है तो फिर हम क्यों बेगानी शादी में दीवाने हों। आइये12 उदाहरण देखें कुरान में औरतों का क्या दर्ज है -- 
12) सूरा 2 आयत 223 ---- औरतें तुम्हारे खेत हैं इनमे चाहें जहाँ मर्जी से घुसो। 
11 ) सूरा 2 आयत 228 ---- मर्दों का औरतों के मुकाबले दर्जा बढ़ा हुआ है। 
10 )सूरा 4 आयत 11 -12 ---- लड़के का जायदाद में हिस्सा लड़की से दुगना होगा , और माँ और बीवी का 1/3 , 1/4 ,1/6वाँ हिस्सा ( अलग अलग परिस्थितियों में)
9 ) सूरा 2 आयत 282 ---- दो औरतों की गवाही एक मर्द के बराबर 
8 ) सूरा 2 आयत 230 ---- एक तलाकशुदा औरत को अपने पहले पति से निकाह करने से पहले किसी दूसरे मर्द से निकाह करके शरीरिक सम्बन्ध बनाने होंगे। जब दूसरा मर्द तलाक दे देगा तभी पहले पति से निकाह कर सकती है। 
7) सूरा 4 आयत 3 , 23:5-6 , 33:50 ,70 :30 ----बांदियों / गुलाम औरतों के साथ सेक्स की इज़ाज़त। 
6 ) सूरा 4 आयत 3 --- अगर तुम्हे अंदेशा हो कि यतीम लड़कियों के साथ इन्साफ नहीं कर सकोगे तो दो तीन चार निकाह कर सकते हो पर अगर अंदेशा हो कि सबके साथ बराबर का व्यवहार नहीं कर सकते तो सिर्फ एक ही निकाह करो। 
5 )सूरा 4 आयत 129 ---- ये आयत 4:3 की बिलकुल विरोधाभासी है --तुमसे ये कभी न हो सकेगा कि सब बीबियों में बराबरी बनाये रखो। इसी के आगे आयत 130 में आयत 129 के सन्दर्भ में कहती है कि ऐसे हालात में मियां बीवी जुदा हो जाएँ। 
4) सूरा 4 आयत 34 --- मर्द हाकिम है औरतों पर। अगर औरत से बददिमागी का अंदेशा हो तो पहले उसे जुबानी नसीहत दो, और उसके बाद उसे मारो। 
3 ) सूरा 65 आयत 4 ---- जिन औरतों को उम्र की वजह से माहवारी आनी बंद हो गयी है या जिनको काम उम्र की वजह से माहवारी शुरू नहीं हुई है , उनके लिए तलाक़ के बाद इद्दत का का समय 90 दिन है। #गौर_करें ----#इसी_आयत_से_मतलब_निकाला_गया_है_कि_9_साल_की_बच्ची_से_भी_निकाह_किया_जा_सकता_है। 
2) सूरा 33 आयत 37 -- ससुर अपनी बहु ( गोद लिए हुए बेटे की बीवी ) से निकाह कर सकता है। ( ये आयत तब नाज़िल हुई जब पैगम्बर का दिल अपने गॉड लिए हुए बेटे ज़ैद की बीवी जैनब पर आ गया था। )
और मेरे हिसाब से पहले पायदान पर आती है निम्न आयत,जो कि सिर्फ पैगम्बर पर अप्लाई होती है और ईमान वालों के लिए प्रतिबंधित है ---
1) सूरा 33 आयत 50 --- ऐ नबी ! हमने आपके लिए आपकी ये बीवियां जिनको आप मेहर दे चुके है, हलाल की हैं और वे औरतें भी तो तुम्हारी मम्लूक (गुलाम) हैं,जो अल्लाह तआला की गनीमत से आपको दिलवा दीं हैं और आपके चचा की बेटियां ,और आपके फूफियों की बेटियां और आपके मामूं की बेटियां और आपकी ख़ालाओं की बेटियां भी जिन्होंने आपके साथ हिज़रत की हो और उस मुसलमान औरत को भी जो बिना बदले के अपने को पैगम्बर को दे दे बशर्ते कि पैगम्बर उनको निकाह में लाना चाहें। ये सब आपके लिए मख़सूस किये गए हैं न कि और मोमिनों के लिए। 
वैसे शरीयत में ब्लात्कारी को बचाने का पूरा प्रावधान किया गया है । अगर कोई महिला किसी पुरुष पर बलात्कार करने का आरोप लगाती है और वो आदमी अगर अपना गुनाह कबूल नहीं करता तो 4 गवाह ला कर आरोप सिद्ध ने की ज़िम्मेदारी स औरत की है । अगर वो सिद्ध नहीं कर पाती तो उसे 80 कोड़ों की सज़ा है । और 4 गवाह भी ऐसे होने चाहिए जिन्होने जननांगों को एक दूसरे के ............... । 
खैर इतना पढ़ने के बाद आपके लिए यह समझना बहुत ज़रूरी है कि #निकाह एक अरबी शब्द है जिसका हिंदी में मतलब होता है कानूनी अनुबंध ---और अंग्रेजी में LEGAL CONTRACT
और मुझे शरीयत से नफरत के बहुत से कारण हैं , जिसमें तीन अहम् कारन हैं -----
3) शरीयत मुसलामानों को इज़ाज़त देती है कि वे काफिरों पर हमला करके उन्हें या तो जबरदस्ती इस्लाम कबूल करवाएं या इस्लाम न कबूल करने की स्थिति में धीम्मी बना कर उनसे जज़िया वसूलें और दोनों स्थितियां संभव न होने पर काफिरों के पोर पोर काट कर उन्हें मार दें। 
2 ) काफिरों के खिलाफ जिहाद कआरके उनकी औरतों को गुलाम बना सकते हैं और उनके साथ बीलटकर को जायज़ ठहराती है। 
1) शरीयत के हिसाब से यहूदी और ईसाई की जान की कीमत मुसलमान के मुकाबले में आधी है और बौद्ध,जैन, हिन्दू और यज़ीदियों की जान की कीमत 1/16 है। 
#तो_अब_कौन_चादरमोड़_कहता_है_कि_ये_बराबरी_का_मज़हब_है