रालिव ,चालिव गालिव ------ धर्मपरिवर्तन कर लो, छोड़कर चले जाओ या मौत का अंगिकार कर लो ( शेख अब्दुल्लाह ,कश्मीर के वज़ीरे आज़म, तत्पश्चात मुख्यमंत्री ने लिखा अपनी आत्मकथा " आतिशे चिनार" में हिंदुओं के लिए) और उनका पोता उमर अब्दुल्लाह कह रहा है कि " मैं अपनी गर्दन कटवा दूंगा लेकिन "सिंधु नदी का समझौता रद्द नहीं होने दूँगा।
भारत कश्मीर में चाहें सोने की सड़कें बनवा दे लेकिन कश्मीर अपना हक़ लेकर रहेगा ---- गिलानी।
क्या सोच कर अकल और आँख के अन्धे कश्मीरियत ,जम्हूरियत और इन्सानियत की बात करते हैं। इन तीन लफ़्ज़ों के आगे बुरहान वाणी वाली जिहादियत को जोड़ना क्यों भूल जाते हैं।
जम्हूरियत और इंसानियत तो जैसी पूरे भारत में है वही कश्मीर में भी है लेकिन जब कश्मीरियत की बात आती है तो जम्मू और कश्मीर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हरी ओम जो कि इंडियन काउंसिल ऑफ़ हिस्टॉरिकल रिसर्च के सदस्य भी है --ने वर्ष 2000 में एक समाचार पत्र में लिखा ---
1) कश्मीरी जनसँख्या राज्य की मात्र 22 प्रतिशत है लेकिन अब्दुल्ला ने राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन इतनी शातिरता से करवाया कि 1951 में नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी को आधी से अधिक लोकसभा और विधानसभा की सीट पर विजय मिली। अब्दुल्ला का पैंतरा था कि उसने कश्मीर में 46 और जम्मू और लद्दाख में 41 निर्वाचन क्षेत्र बनवाये जबकि जम्मू और लद्दाख की जनसँख्या कश्मीर के मुकाबले बहुत अधिक थी।
2) घाटी के सरकारी और अर्धसरकारी संस्थानों में कार्यरत दो लाख चालीस हज़ार कर्मचारियों में से दो लाख तीस हज़ार कश्मीरी हैं।
3) जम्मू और कश्मीर के जितने भी व्यावसायिक और तकनीकी संस्थान, सीमेंट , टेलीफोन या अन्य सार्वजानिक क्षेत्र के संसथान हैं उनमे कश्मीरियों का एकाधिकार है।
4) एक भी कश्मीरी ऐसा नहीं है जिसके पास अपना घर न हो और भारत के अन्य राज्यों की तरह आज तक कश्मीर में एक भी मौत ठण्ड या भुखमरी से नहीं हुई।
5) कश्मीरी एक भी रुपया राज्य के राजस्व में नहीं देते और राज्य का 90% राजस्व जम्मू और लद्दाख से आता है जबकि इसका अधिकांश हिस्सा कश्मीर में खर्च किया जाता है न कि जम्मू और लद्दाख के अति पिछड़े इलाकों के विकास के लिए।
इन सब तथ्यों के मद्देनज़र सिर्फ कश्मीर और कश्मीर ही नज़र आता है बाकी राज्य का तो जैसे आस्तित्व ही नहीं है। इसी तर्ज़ पर जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट के सेवानिवृत न्यायधीश जे एन भट ने मई 2000 के "वॉइस ऑफ़ जम्मू कश्मीर " नाम की पत्रिका में लिखा कि --
1) सरकार ने जम्मू के बाहरी हिस्सों में हज़ारों प्लाट काटे और कश्मीरियों को दिए ,लेकिन लाभान्वित लोग एक ख़ास वर्ग से संभंधित हैं।
2) जम्मू के कुछ इलाकों में पानी की सप्लाई तीन चार दिन के उपरान्त की जाती है जो कि प्यास भुझाने के लिए भी कम है। यानि कि विकास के लिए आये हुए पैसे का दुरूपयोग किया गया है।
3) जम्मू क्षेत्र के डोडा और पुंछ इलाकों में हिन्दू अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया जाता है ,जिसकी वजह से चैन से जीने के लिए लोगों को धर्मान्तरण ही एक उपाय नज़र आता है जबकि बहुत से लोग धर्मान्तरण की बजाये मरना पसंद करते हैं।
क्या इसी कश्मीरियत की बात कर रही हैं सरकारें, अलगाववादी और कश्मीर के बाशिंदे ????
आज की तारीख में कश्मीर घाटी में कोई सेकुलरिज्म की बात नहीं करता क्योंकि घाटी में 1 प्रतिशत भी अन्यधर्मों के लोग नहीं बचे हैं जबकि देश आज़ाद होने के बाद से कश्मीर में हमेशा मुसलामानों के हितों का राग अलाप कर इसे भारत में विलय से शेख अब्दुल्ला ने ने रोका था।
शेख अब्दुल्ला और कांग्रेस जनित कश्मीर समस्या पर विस्तृत लेख फिर कभी लिखेंगे लेकिन सारांश यह है कि पकिस्तान से मिलकर भारत विरोधी गतिविधियों और देश द्रोह जैसे संगीन अपराधों के चलते शेख अब्दुल्ला को दो बार गिरफ्तार किया गया लेकिन दोनों बार अदालत की कार्यवाही पूरी हुए बिना नेहरू ने उसे क्यों छोड़ दिया यह कोई नहीं जानता।
हाँ 1949 में गुप्तचर विभागों द्वारा शेख अब्दुल्ला की नियत के खिलाफ रिपोर्ट प्रधानमंत्री को दी गयी तो नेहरू ने कहा कि "शेख अब्दुल्लाह कि भारत के प्रति प्रतिबद्धता पर शक नहीं किया जा सकता। और जब यही रिपोर्ट तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल के पास भेजी गयी तो उनकी प्रतिक्रिया थी ---------
ये शेख अब्दुल्ला एक दिन भारत को नीचा जरूर दिखायेगा ----- और उड़ी घटना के बाद संयुक्त राष्ट्र सभामें तथाकथित शरीफ ने कह ही दिया " कि उड़ी की घटना भारतीय सेना द्वारा कश्मीर में दमनकारी नीतियों की प्रतिक्रिया है और बुरहान वानी एक आतकंवादी नहीं शहीद है।
भारत के टुकड़े हुए दो , लेकिन आत्मायें थीं तीन जो वज़ीरे आज़म बनने का ख्वाब पाले हुए थीं। नेहरू,जिन्ना और शेख अब्दुल्ला। नेहरू और अब्दुल्ला के वंशजों ने 70 में से लगभग 55 साल राज किया, आज जब सत्ता से बाहर हैं तो देश इनके द्वारा कदम कदम पर खोदे हुए गड्ढों में गिर रहा है और चोट खा रहा है।
उससे बड़ी गलती कर रहे हैं इनको प्यार से समझने वाले। न तो कुत्तों को घी हजम होता है और न कुत्तों की दुम सीढ़ी होती है।