शनिवार, 27 मई 2017

#जो_अण्डे_चुराता_है_एक_दिन_ऊँट_भी_चुराता_है।




पिछले वर्ष जैसे ही रमज़ान का महीना शुरू हुआ , इस संग्रहालय से रमज़ान में सुबह की अज़ान और सेहरी की रस्म अदा होने लगी। यह परम्परा पिछले साल से नहीं 2012 से शुरू हो गयी थी। 2012 से 31 मई को यहाँ इस्लाम के अनुयायी बहुत बड़ी तादाद में इकट्ठे होते हैं और नमाज़ अदा करते हैं। वैसे तो यह लेख मैंने 29 मई के दिन लिखने के लिए सोचा था , लेकिन रमज़ान शुरू हो गए हैं और 29 मई कल है। 29 मई ही क्यों ????? 

नीचे जो आपको पहली तस्वीर नज़र आ रही है , उसमे मरियम की गोद में ईसा मसीह हैं , और वर्तमान के इस संग्रहालय के अन्दर का एक दृश्य है। इसी संग्रहालय के अन्दर से रमज़ान के महीने में अजान होने लगी है , सहरी  होने लगी है और इसी के अन्दर इस्तानबुल और तुर्की के मुसलामानों की ज़िद है कि वो नमाज़ पढ़ेंगे। वैसे इस ज़िद को अमली जामा पहनाने के लिए ,अक्टूबर 2013 में तुर्की की संसद में बिल भी पेश कर दिया गया जिसका मजमून इस प्रकार था कि ----
“This bill has been prepared aiming to open the Hagia Sophia – which is the symbol of the Conquest of Istanbul and which has been resounding with the sounds of the call to prayer for 481 years – as a mosque for prayers.” 
इसका लगभग तर्जुमा कहता है --- कि इस बिल को पेश करने का लक्ष्य #हेगीआ_सोफिआ को खोलने के लिए है ----जो कि इस्तानबुल जीत की एक निशानी है और जो कि 481 वर्षों से नमाज़ की आवाज़ों से गूँज रही है ----एक मस्जिद नमाज़ के लिए। 
अब इस पूरी कहानी का मजमून दो वाक्यों में समझ लीजिये। वर्ष 336 में इस्तानबुल में तत्कालीन शासक कोंस्टांटियस  ने एक चर्च बनवाया था। वक़्त के थपेड़े  खाते  हुए कुछ बार गिरा फिर उठाया गया और 562 के आप पास वर्तमान शक्ल में  तैयार किया गया।  बस  इसके बाहरी हिस्से में नज़र आने वाली मीनारें नहीं थीं।  #29_मई_1453 को उस्मान वंश के तुर्क  सुलतान मोहम्मद ने  कोंस्टनटिनोप्ल  / इस्तानबुल जीत लिया , फिर ईसाईयों के साथ वही किया जो ईरान के पारसियों के साथ 800 साल पहले किया था  और इस चर्च को मस्जिद में तब्दील कर दिया।  इसे मस्जिद की शक्ल देने के लिए चार मीनारें और हल्के फुल्के बदलाव  कर दिए  और होने लगी यहाँ पांच वक़्त की नमाज़ । 1931 में तुर्की के प्रगतिशील प्रधानमन्त्री अत तुर्क  ने  दोनों धर्मो के बीच सौहाद्र स्थापित करने के लिए इसे संग्रहालय में तब्दील कर दिया।  82 सालों के बाद शांतिप्रिय मज़हब के दिमाग में इसे फिर से मस्जिद बनाने का कीड़ा पैदा हो गया  और उन्होंने संसद में  बिल भी पेश कर दिया और जबरदस्ती अजान  नमाज़ और सहरी का रिवाज़ भी शुरू कर दिया। 





इन अरब के लुटेरों ने  पहला अण्डा मक्का के नाम का वहां के कुरैश कबीले का चुराया था ।  फिर यहूदियों के सबसे पवित्र मन्दिर #अल_अक्सा पर कब्ज़ा जमाया। इसके बाद पारसियों के मंदिरों पर कब्ज़ा जमा कर कैसे उन्हें मस्जिदों में तब्दील किया यह मैं अपनी पिछली पोस्ट में लिख ही चुका  हूँ। ये अंडा चोर अब तक मुर्गी  चोर हो चुके थे । 

1528  में इन्ही के मज़हबी भाई ने  हजारों  मील दूर राम मंदिर तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनवा दी थी। सोफ़िआं हेगीआ की तरह यहाँ के मुसलमान भी उस पर पूरा हक़ जता रहे हैं।  दो दिन बाद ये तुर्की के सोफिया हेगीआ पर इक्कठे हो कर नमाज़ पढ़ कर उस पर अपना हक़ जताएंगे और भारत में 30 मई को बाबरी मस्जिद तोड़ने के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई है जिसमें राम मंदिर पर ये अपना नाज़ायज़ दावा बरकरार रखे हुए है।  समय, स्थान और  दलीलें अलग हो सकती हैं , लेकिन मकसद एक ही है  कि जहाँ इनके पाँव पड़ गए वो जगह बस इनकी है। 
वर्ष  710 में मोहम्मद बिन कासिम नाम का मुर्गी चोर भारत में आया था और फिर नालंदा का इतिहास सब जानते हैं।  उसके बाद  28 नवम्बर 1001 को महमूद ग़ज़नवी के पहले आक्रमण से लेकर 1707 में औरंगज़ेब की मौत तक ये बीस हज़ार से  चालीस हज़ार मंदिरों को तोड़ कर ये ऊँट चुराने  वाले शातिर चोर हो गए। काशी विश्वनाथ मन्दिर के साथ ज्ञानवापी मस्जिद, कृष्ण जन्मभूमि से सटी हुई शाही मस्जिद , और सोमनाथ मन्दिर तोड़ कर बनायीं गयी मस्जिद ऊंट चोरी के ही विभिन्न प्रमाण पत्र  है। 

ईरान इराक इजराइल लेबनान तुर्की सायप्रस हंगरी मोरक्को अल्जीरिया नाइजीरिया लीबिया सोमालिया जर्मनी मलेशिया इंडोनेशिया पाकिस्तान अफगानिस्तान बांग्लादेश मिस्र कौन सा ऐसा देश है जहाँ इन्होने अण्डों से लेकर ऊँट तक नहीं चुराए हैं ????? और ऊपर से तुर्रा ये कि इनकी कुरान में लिखा है कि दूसरों के धर्मस्थलों में नमाज़ हराम है। 

https://en.wikipedia.org/wiki/Conversion_of_non-Islamic_places_of_worship_into_mosques

11 जनवरी 630 में मक्का के मन्दिर को  मस्जिद बनाने से लेकर 2001 में अफगानिस्तान के  बामियान में 50 मीटर ऊँची बुद्ध की मूर्ती तोड़ना इन अंडा चोरों के ऊंट चोरी में स्नातक होने की गवाही देता है। 
 इतने सब के बावजूद कुछ जड़बुद्धि सेक्युलर, रामजन्मभूमि की जगह भी अस्पताल , पार्क,स्कूल बनाने का सुझाव दे रहे थे। वैसे बच गए भारत वाले वर्ना ऊँट चोरों के दबाव में #रामजन्मभूमि का हाल भी #सोफिया_हेगीआ माफिक ही होता। अभी भी कुछ कह नहीं सकते क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के जज और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के हिन्दू वकील अभी अभी सेक्युलरता की बूटी पीकर सारे कायदे कानून हिन्दुओं के ऊपर ही अम्ल में लाते है अन्य मज़हबों की आस्था में खलल डालना वे संविधान के खिलाफ समझते हैं ।

शनिवार, 20 मई 2017

लोमड़ी सपने में भी मुर्गियाँ गिनती है



हम उन्हें बता रहे हैं कि ये बैल हैं, लेकिन वो फिर भी दूध दुहने की बात करते हैं। यह तर्जुमा है अरब की कहावत #नोलोम_तो_येएलो_इहीबूह का। क्या करें उन जाहिलों का जो वामपंथियों द्वारा मनगढंत इतिहास पढ़ कर हर बार हिन्दुओं को लड़वाने की साज़िश करते हुए जाहिलों को बैल दुहने के लिए उकसा रहे है। 

दो दिन पहले मैंने इसी फेस बुक पर एक सवाल पुछा था कि ---वो कौन सा मुस्लिम आक्रांता था जिसने हिन्दुओं की लाशों से नदी पाट कर पानी का रंग लाल कर दिया था ???? इस सवाल का जवाब इस पोस्ट के अंत में दूंगा लेकिन , यह सवाल क्यों किया था , उसे समझ लीजिये।

 "Milk the Persians and once their milk dries, suck their blood." ----
 पारसियों का दूध निकाल लो और जब दूध सूख जाये तो उनका खून चूस लो। शायद यही तर्ज़ुमा है इस आदेश का जो दिया था अरब के मुस्लिम खलीफा  ने वर्ष 741 AD में ईरान पर काबिज होने के बाद। ईरान इराक से पारसियों पर अत्याचारों होने की कहानी न यहाँ से शुरू होती है और न यहाँ पर ख़त्म होती है। 
लेख पढ़ने से पहले इतनी सी बात याद रख लीजिये कि वर्ष 610 में इस्लाम के पैदा होने से पहले वर्तमान ईरान और इराक में एक शांतिप्रिय धर्म #पारसी हुआ करता था। --- अब आगे पढ़िए , कि क्या हुआ उस धर्म का। 
वर्ष 636 में अरब के खलीफा उमर ने ईरान के राजा को पत्र भेजा कि वो लोग पारसी धर्म छोड़ कर इस्लाम कबूल कर लें। जिसे ईरान के राजा यज़्दगिर्द ने यह कह कर मन कर दिया कि हमें तुम्हारा मारकाट वाला धर्म स्वीकार नहीं करना है। हम जहाँ भी जाते हैं , वहां धर्म प्यार मोहब्बत और बंधुत्व के बीज बोते हैं।  बस यही बात खलीफा को नागवार गुज़र गयी। ( अधिक जानकारी के लिए और पारसी राजा के बेहतरीन जवाब के लिए निम्न लिंक अवश्य पढ़ें या जिन शांतिप्रिय मज़हब के लोगों को बहस करने की खुजली हो वे पहले निम्न लिंक को अवश्य पढ़ लें )

  मुख्य ईरान पर अरब आक्रमण से पहले खलीफा इब्न अल खत्ताब ने मेसोपोटामिया और ईरान के एक राज्य खवरवरण (आज का इराक) पर कब्ज़ा किया। वर्ष 637 में इस खलीफा के एक सेनापति साद इब्न अबी वक़्क़ास ने खवरवरण की राजधानी स्तेस्फियन को जीता -- और वहां के महलों , और संग्राहलयों को आग लगा दी। इसके बाद #तारीखे_अल_ताबरी के लेखक #अल_ताबरि के अनुसार साद इब्न अबी वक़्क़ास ने खलीफा  से पूछा कि "स्तेस्फियन में किताबों का क्या करना है ?" उमर का जवाब आया "अगर इनमे कुरान से अलग कुछ लिखा है तो यह ईश निंदा है और अगर इनमे कुरान जैसी बातें ही लिखी हैं तो इनकी ज़रुरत नहीं है हमारे लिए कुरान ही पर्याप्त है।" इसके बाद वक़्क़ास ने पुस्तकालयों को आग लगा दी और बचीखुची किताबों को फराह नदी में बहा कर पारसी वैज्ञानिकों और विद्वानों की पीढ़ियों की मेहनत कुछ दिनों में खत्म कर दी ।इसके बाद 40000 पारसियों को पकड़ कर अरब देशों में गुलाम बना कर बेच दिया। ( भारत की नालंदा, तक्षशिला , पाटलीपुत्र और ओदन्तपुर याद आये क्या ???) 
इसके बाद #मुस्लिम इतिहास बताता है कि उल्लाईस की लड़ाई में अरब सेनापति पारसियों के प्रतिरोध से थक कर इतना खीज गया कि युद्ध जीतते ही उसने सारे युद्ध बंदियों का क़त्ल करवा कर नदी में फिंकवा दिया और इस नदी पर बने हुए बाँध को खुलवा दिया। पूरी नदी में लाशें ही लाशें तैर रहीं थीं और पानी का रंग लाल हो गया था , जिसके बाद इस नदी को खून की नदी कहा जाने लगा। इसके बाद अरब लोग ईरान के शहर इस्तखर की तरफ बढ़े और पारसी धर्म को मानने वाले 40000 लोगों को कत्ल कर दिया। (मेरा सवाल तो ज़ेहन में है न , कौन सा वो मुस्लिम आक्रांता था जिसने हिन्दुओं का इतना खून बहाया था कि नदी का पानी लाल हो गया था और उपयोग में लाने लायक नहीं बचा था )

इसके बाद यज़ीद इब्न मोहल्लेब, एक उमय्यैद सेनापति ने ईरान के माज़न्दरान राज्य पर चढ़ाई की। युद्ध जीतने के बाद अरब  आदेश दिया कि जितने भी युद्ध बंदी हैं उन्हें मार कर राजधानी जाने वाली सड़क के दोनों तरफ लटका दो। जब वो माज़न्दरान की राजधानी पहुंचा तो उसने 6000 पारसियों को गुलाम बनाया और 12000 को क़त्ल करवा दिया। इसके बाद #गोरगन शहर में उसने आदेश दिया कि आटा पीसने वाली पनचक्कियां युद्धबंदियों के खून से चलाई जाएँ और तीन दिन तक लगातार पनचक्कियां पारसियों के खून से चलीं। यज़ीद आज भी इस बात के लिए जाना जाता है कि उसने रोटी का आटा युद्धबंदियों के खून से गुंथवाया था और खुद भी वो रोटी खायी थी। 
इसके साथ ही हज़ारों पारसी पुजारियों को मार दिया गया,  धार्मिक साहित्य जला दिया गया। उनके सारे आग के मदिर तोड़ दिए गए और जो नहीं तोड़े गए उनपर मीनारें बना कर उन्हें मस्जिदों में तब्दील कर दिया गया। #इस्तखर और #बुखारा के "चाहर तकि"आग मंदिर के ऊपर मीनारें लगा कर बनाई गयीं मस्जिदें इसी का उदहारण हैं। (अयोध्या,काशी मथुरा याद आया क्या ??? ) इस तरह अरब का ईरान इराक पर एकाधिकार स्थापित हुआ। 

ईरान जीतने के बाद , पारसियों को #धिम्मी / #जिम्मी  का दर्जा दिया गया। इस दर्जे के तहत कोई मुसलमान आत्मरक्षा की आड़ में किसी भी पारसी को परेशान कर सकता था,बेइज़्ज़त कर सकता था, गाली दे सकता था , शारीरिक यंत्रणा दे सकता था, पारसी का जबरदस्ती धर्मान्तरण कर सकता था या जान से मार सकता था। यह सब करने के लिए किसी वजह की ज़रुरत नहीं चाहिए होती थी। धिम्मी को कुरान के मुताबिक जजिया तो देना ही होगा, यह अलिखित क़ानून था। और जजिया देने का एक तरीका भी था , कि धिम्मी जजिया देने चल कर जायेगा और वसूलने वाला उसे गर्दन से पकड़ कर झिंझोड़ कर कहता है ,जजिया दो, और जजिया लेने के बाद उसकी गर्दन पर थप्पड़ मार कर उसे भगा दिया जाता था। मकसद धिम्मियों की हर हाल में बेइज़्ज़ती करना था। ( याद आया , भारत में अलाउद्दीन खिलजी के राज्य में जजिया वसूलने वाला , जजिया देने वाले का मुंह खुलवा कर उसके मुंह में थूक सकता था )
Mary Boyce अपनी किताब  Zoroastrians, Their Religious Beliefs and Practices में लिखती हैं कि जजिया सबसे बढ़िया साधन था , पारसियों को स्वेच्छा से इस्लाम कबूल करने के लिए। धिम्मी लोगों को त्वरित धर्मांतरण के लिए विशेष सुविधाएँ दी जातीं थीं जिससे वे धिम्मी होने के दंश और तत्पश्चात होने वाली बेइज़्ज़ती से निजात प् सकें। एक बार कोई पारसी इस्लाम कबूल कर लेता था तो उसके बच्चों को मदरसों में जाना पड़ता था ,अरबी भाषा और क़ुरान सीखनी पड़ती थी और इस तरह पारसी अपनी पहचान खोते गए। मैरी बॉयस आगे लिखती हैं कि इस्लाम कबूलना जितना आसान था पलट कर अपने धर्म में जाना उतना ही मुश्किल था यदि कोई कोशिश भी करता तो उसे मौत ही मिलती थी। इस तरीके से धर्मपरिवर्तन के पश्चात् अरब ये कहते थे कि पारसियों ने स्वेच्छा से धर्मपरिवर्तन किया है। इस तरह की दबावों और प्रतिबन्धों को जिनके तहत धर्म परिवर्तित किया जाता था उन्हें ,बहुत आसानी से भुला और नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था। 
पारसी युद्धबन्दी और गुलाम जो इस्लाम कबूल कर लेते थे उन्हें आज़ाद कर दिया जाता था।  ( ये सब पढ़ने के बाद अलाउद्दीन खिलजी और औरंगज़ेब याद आये क्या ????)

एक वेबसाइट  tenets.zoroastrianism.com जिसका शीर्षक है Zarathustri Pilgrimage Sites In Iran में  Prof. Edward G. Browne in his A Year Amongst The Persians (the year being 1887-88): को उद्घृत करते हुए बहुत ही मार्मिक शब्दों में पारसियो की दयनीय दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि --- इनके घरों में खिड़कियां नहीं होती थीं। रौशनी सिर्फ दरवाज़ों की झिरियों से आ सकती थी। खिड़कियों की जगह दीवारों में टूटी हुई बोतलें लगी होती थीं जिनसे सिर्फ बाहर कौन है सिर्फ यह देखा जा सकता। छतें घरों को को पूरा का पूरा ढकती थीं जिससे कोई लूटमार करने वाला , बलात्कारी छत के  घर में न घुस आये। हर तरफ से बंद घर एक दमनकारी अन्धकारपूर्ण भय पैदा करते थे और यह अंधकारपूर्ण स्थिति उस धर्म के अनुयायियों की थी जिन्होंने सिर्फ रोशनी और आग को ही पूजना सीखा था। 

    
 वर्ष 741 तक खलीफाओं के अत्याचार इतने बढ़ गए थे कि सब सन्धियों और करारों के बावजूद ईरान के सारे के सारे आग मंदिर तोड़ दिए गए और खलीफा ने ये ऐलान कर दिया कि -----"Milk the Persians and once their milk dries, suck their blood." --- 

#अछूत_बना_कर_मानमर्दन  ----
Prof. John Hinnells जो विश्वप्रसिद्ध विश्विद्यालयों में प्रोफेसर रहे हैं और जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ पारसी इतिहास और धर्म पर शोध किया है , वे लिखते है कि पारसियों को इस्लामी आक्रांता #नाजिस कह कर सम्बोधित करते थे  और उन्हें अशुद्ध था मुसलमानों में अशुद्धता फैलाने वाला समझा जाता था। इसलिए पारसियों को अछूत समझा जाता था और उन्हें मुसलामानों के साथ रहने के अयोग्य समझा जाता था। इस मानसिकता का एक परिणाम यह भी निकला कि पारसियों को ज़बरदस्ती धक्के मार कर शहर से निकल दिया जाता था और मुसलमानों की उपस्थिति में उनपर हर प्रकार के प्रतिबन्ध लगे रहते थे। ये परिस्थियाँ वर्ष 637 से 750 तक की लिखी गयीं है ,( और अगर किसी को अल बरुनी का वर्ष 1030 में भारत के विषय में लिखा हुआ संस्मरण #किताब_तारीखे_अल_हिन्द,  याद हो तो वो साफ़ साफ़ लिख कर गया है कि चार वर्णो और सात शिल्पकार जातियों में छुआछूत जैसी कोई बिमारी नहीं थी।) 
इस तरह एक समय ईरान के बहुसंख्यक पारसी गिनती में कम होने लगे, कम होने के कारण उनकी प्रतिरोध क्षमता कम होती गयी और एक दिन ईरान और इराक से पारसी ख़त्म हो गए। 

आज ईरान की जनसँख्या आठ करोड़ की है यहाँ सिर्फ 25271 पारसी और 8756 यहूदी बचे हैं और इराक की जनसँख्या लगभग तीन करोड़ साठ लाख -- जान कर खुश हो जाइये कि इराक में एक भी यहूदी और पारसी नहीं  बचा है। ( भारत की कश्मीर घाटी की याद तो नहीं आ रही जहाँ 1910 तक दस लाख हिन्दू थे आज  2947 बचे हैं। )

ये बातें वामपंथी इतिहासकार कभी बताएँगे नहीं , छुआछूत और दलितापे का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़ने वाले कभी जानने की कोशिश करेंगे नहीं और अपने को सेक्युलर समझने वाले बीमार दिमाग के लोग कभी असली मुज़रिमों को कटघरे में खड़ा करने का दम अपने अंदर पैदा कर नहीं पाएंगे। 

छुआछूत, ऊंच नीच,धोखाधड़ी, मारकाट, बलात्कार, बेगुनाहों का लाखों की तादाद कत्लेआम ,तेरा धर्म और मेरा मज़हब ये सब भारत में कब और कहाँ से आये इसके लिए भारत के इतिहास को नहीं दूसरे देशों और मज़हबों के इतिहास को ही जान लिया जाये तो आज के अवार्ड वापसी गैंग वाले एक ईमान वाले के मरने पर जो अवार्ड वापिस करने की होड़ में शामिल हो जाते हैं उनके पास  डूब मरने के लिए चुल्लूभर पानी भी ज्यादा होगा। 

बात शुरू हुई थी की कौन सा वो मुस्लिम आक्रांता था जिसने हिन्दुओं का इतना खून बहाया था कि नदी का पानी लाल हो गया था और उपयोग में लाने लायक नहीं बचा था -----

अपनी किताब #तारिख_ए_यामिनी में  अबू नस्र मुहम्मद इब्न मुहम्मद अल जब्बरुल उत्बी ---थानेसर के निकट महमूद ग़ज़नवी द्वारा किये गए कत्लेआम का ज़िक्र यूँ करता है कि ---- नदी के पानी में खून इतनी अधिक मात्रा में था कि नदी का पानी लाल हो गया था i लोग उसे पी नहीं सकते थे। जो लोग किला छोड़ कर भागे या तो उन्हें काट डाला गया या वो नदी में बह गए। कुछ नहीं तो पचास हज़ार से ज्यादा आदमियों का क़त्ल किया गया था। 
कहाँ ख़त्म हो गए पारसी अपने देश से ??? 
कहाँ खो गए यज़ीदी , अपने देश से ???
क्यों ख़त्म हो  बौद्ध धर्म दुनिया के नक़्शे से ???
क्यों और किससे कूर्द अपने अस्तित्व की आखिरी लड़ाई लड़ रहे है ???

आज का मुस्लिम देश सीरिया कभी ईसाई  हुआ करता था ,
मलेशिया,इंडोनेशिया,अफगानिस्तान बौद्ध हुआ करता था 
पकिस्तान कभी हिन्दू हुआ करता था। 


क्या अभी भी तय नहीं कर पाए कि भारतीय संस्कृति में कमीनगी की मिलावट किसने की है ????







मंगलवार, 16 मई 2017

ये मामले भी मज़हबी हैं


समझ नहीं आ रहा कि हिन्दुओं के कंधो पर बैठी इस न्याय की प्रतिदिन मोटाती देवी का तराज़ू हिन्दुओं के लिए छोटा और डण्डा हिन्दुओं के लिए बड़ा क्यों होता जा रहा है ????
सुप्रीम कोर्ट जी , माना न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी होती है , पर आप तो अपनी अक्ल पर से तो पर्दा उठा लो ।
क्या कहा था 11 मई को तलाक के मुद्दे पर इन अक्ल के ठेकेदारों ने ???? कि #अगर_यह_इनके_मज़हब_का_मामला_है_तो_कोर्ट_इसमें_दखलंदाज़ी_नहीं_करेगी। अगर कोर्ट इनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का मन बना चुकी है तो हिन्दुओं,सिखों ईसाईयों, बौद्धों और अन्य धर्म वालों को तैयार रहना चाहिए (पोस्ट छोटी रखने के उद्देश्य से ,उदाहरण के लिए चुनिन्दा आयतें लिख रहा हूँ, बाकि आप लोग कमेंट बॉक्स में आयतें लिख कर पाठकों का ज्ञान वर्धन कर सकते ) ----
1) #मरने_के_लिए -----सूरा 9 आयत 5 ,सूरा 8 आयत 12 ,सूरा 33 आयत 61
2) #ये_हमेशा_जिहाद_के_लिए_तैयार_है --सूरा 9 आयत 111, सूरा 66 आयत 9
 3 #जजिया_देने_के_लिए ----सूरा 9 आयत 29
4) #औरतों_केअपहरण_और _बलात्कार_के_लिए --- सूरा 4 आयत 24
#दास_दासी_प्रथा_के लिए ---सूरा 8 आयत 25
6) #काफिर_इनके_लिए _जान_दे_दें_पर_ये_आपको_कभी_दोस्त_नहीं_मानेंगे ---सूरा 4 आयत 89 /सूरा 5 आयत 51
7) #ये_लड़ते_ही_रहेंगे -----सूरा 9 आयत 123 , सूरा 32 आयत 22
8)#अगर_इनका_बाप_या_भाई_कुफ्र_करदे_तो_उससे_भी दोस्ती_नहीं -------सूरा 9 आयत 123
ऐसा नहीं है कुरान या खुदा ने काफिरों को सिर्फ लूटने या मारने के लिए ही लिखा है। काफिर जान बचा सकते हैं बशर्ते वो इस्लाम कबूल कर लें।
फिर अगर वे लोग (अपने कुफ्र से) बाज़ आ जाएँ (#और_इस्लाम_कबूल_कर_लें) तो अल्लाह तआला बक्श देंगे और मेहबानी फर्मा देंगे। सूरा 2 आयत 192
तो हे सुप्रीम कोर्ट के महानुभावो आज तीन तलाक इनका मज़हबी मामला है, और कल अगर इसी आधार पर कि ये आयते हमारी कुरान में लिखी हैं, उद्घृत करके यह कह दिया कि मार काट बलात्कार वसूली भी इनके मज़हबी मामले हैं तो क्या कहोगे ????? देख रहे हो न दुनिया जहान में सुन्नी शिया वहाबी सलफ़ी अहमदिया सीरिया, इराक तुर्की अफगानिस्तान, पकिस्तान नाइजीरिया में जब मुसलमान एक दूसरे को मारते हुए ही नज़र आ रहे है तो ये लोग काफिरों का क्या करेंगे ?????
प्रिय सुप्रीम कोर्ट के मठाधीशों वैसे तो इतने दिनों में आप कई भाषाओँ में कुरान पढ़ सकते थे , फिर भी अगर नहीं पढ़ी है तो निम्न लिंक को ज़रूर पढ़िए जिनमे उपरोक्त आयतों को हदीस का समर्थन प्राप्त है। यानि कि ये मामले भी पूर्णतः मज़हबी हैं।
https://www.thereligionofpeace.com/pages/quran/slavery.aspx
शनि शिगनापुर, दही हांड़ी, जल्लिकट्टू हो सकता है आपको धार्मिक नज़र न आते हों, इनका शास्त्रों में ज़िक्र न मिलता हो ,पर रामजन्मभूमि और गऊ माता का ज़िक्र तो धार्मिक पुस्तकों में है।
अजीब प्रजातन्त्र है जहाँ बहुसंख्यकों द्वारा चुनी हुई सरकारें तो बहुसंख्यक हितों को ताक पर रख नीतियां बना रही हैं वहीँ सुप्रीम कोर्ट जिसे संविधान प्रद्दत समानता के मौलिक अधिकार की रक्षा करनी चाहिए वो भी आँखों पर पट्टी बंधे बैठी है।
वैसे ये हाथ में डंडा/ तलवार क्या सिर्फ हिन्दुओं के लिए ही है ?????
जिस दिन मुसलामानों की तरह हिन्दुओं ने बात बात पर मारकाट मचानी शुरू की उस दिन आप माननीय नहीं ढक्कन सिंह हो कर रह जाओगे। मजबूर मत करिये कि वो दिन आ जाये जब हिन्दुओ ने जो लिहाज़ में मुंह बंद कर रखा है , वो खुल जाए और वो भी कह दें कि हम नहीं मानते इस पक्षपात करने वाले संविधान को , यह संविधान हमारे धर्म शास्त्रों से बढ़कर नहीं है।