शनिवार, 3 जून 2017

प्रसव का दर्द झेला माँ ने , नेग ले गयी दाई और हिजड़े ले गए बधाई।

प्रसव का दर्द झेला माँ ने , नेग ले गयी दाई और हिजड़े ले गए बधाई। 
 यदि वैदिक मान्यताओं में विश्वास रखने वाले सनातन धर्मी है तो इस लेख को पढियेगा जरूर , वर्ना जानकारी के आभाव में कदम कदम पर आप जलील होते रहेंगे और गायें कटती रहेंगी। 
मुख्य मुद्दे पर बाद में आएंगे पहले अपने पिछड़ेपन की निशानियों का छोटा सा नमूना देख लीजिये। 

नयी पीढ़ी को छोड़ दें , तो शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे जब चोट लगी होगी तो उसे गर्म दूध के साथ हल्दी न पिलाई गयी हो या चोट पर हल्दी लगा कर पट्टी न बंधी गयी हो। पूजा में अक्सर हल्दी या तो भगवान् को चढ़ाई होगी या उसका तिलक किया होगा। । यह भी कोई नहीं कह सकता कि उसने सर्दियों में कभी चाय में तुलसी की पत्तियां डाल कर चाय नहीं पी होगी या आजकल प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले "तुलसी ड्रॉप्स" का विज्ञापन नहीं देखा होगा । वैसे पहले ज़माने में घर के आँगन में तुसलीचौरा हुआ करता था और उसकी पूजा की जाती थी।
कुछ दिन पहले बड़ी अमावस को आपने महिलाओं को बरगद की पूजा करते देखा होगा , या शनिवार को बहुत से लोगों को पीपल के पेड़ के नीचे दिया जलाते देखा होगा या यह कहते हुए सुना होगा कि पीपल के पेड़ को काटने से पाप लगता है। बृहस्पतिवार को केले की पूजा करते हुए महिला या पुरुष को देख कर उसका मज़ाक भी उड़ाया होगा। 
आंवला एकादशी शायद ही कुछ लोगों को मालूम हो, लेकिन इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा का विधान बताया गया है। 
तुलसी केले नीम पीपल बरगद आंवले की पूजा कोई 1990 के दशक में तो भारतियों को बताई नहीं गयी कुछ हजार साल पहले किस रूप में बताई गयीं थीं मालुम नहीं पर आज जैसी नहीं बचीखुची है , उनको उतना ही मान लीजिये। 

भारतीय बेवकूफों का पिछड़ापन इसमें नहीं है , कि वे हल्दी का इस्तेमाल करते हैं , केले , बरगद, पीपल और आंवले को पूजते हैं। भारतियों का पिछड़ापन इसमें है कि बजाये इसके पीछे का तर्क समझ कर पूर्वजों द्वारा दिए गए इस ज्ञान और थाती को समझ कर सहेजते , बल्कि 1990 के दशक तक अपनी हीनभावना में तब तक डूबे रहे जब तक , विदेशियों ने इस बात के मर्म को समझ कर उपरोक्त इन सब चीज़ों के पेटेंट नहीं करवा लिए। 

कुछ उदाहरण दे रहा हूँ ---
बरगद का पेटेंट ---
तुलसी का एक पेटेंट नहीं करवाया गया है , कई हैं , एक का उद्धरण दे रहा हूँ ---- https://www.google.co.in/search?q=patent+of+basil&oq=patent+of+basil&aqs=chrome.0.69i59j0l2.13000j0j7&sourceid=chrome&ie=UTF-8

नीम के कई पेटेंट में से एक का उदाहरण ---
हल्दी का पेटेंट वैसे भारत ने कानूनी लड़ाई के तहत जीत लिया है , लेकिन वो स्थिति ही क्यों आयी जब किसी और देश ने इसे अपने नाम करवा लिया था ????---
पीपल के पेड़ के भी एक दो नहीं कई पेटेंट विदेशों ने करवा रखे है ,----

बासमती का पेटेंट तो बेशक भारत जीत गया हो , लेकिन ट्रेड मार्क नहीं जीत पाया ---


आंवला जिसके गुण च्यवन ऋषि बताते बताते खत्म हो गए , उसे सुंदरता के लिए अमरीका ने पेटेंट करवावा लिया --

क्या बड़ा किला फतह कर लिया अगर हल्दी और बासमती के पेटेंट कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद वापिस जीत लिए ???? लेकिन सूतियो हजारों सालों से तुम्हारी रही चीज़ को कोई कानूनी रूप से अपना बताने लगा और तब भी अन्य विषयों पर तुम्हारा अपने धर्म और संस्कृति के प्रति स्वाभिमान नहीं जगा। 
पहली रोटी गाय को और गाए को पूजने का विधान भी आज का नहीं ऋग्वेद के समय का है। बेवकूफ थे सनातन धर्म वाले जो नदियों को पूजने की बात करते थे। गणेश जी के धड़ पर हाथी का सिर लगाने पर विद्व्जन बहुत हँसतें है लेकिन जब पहली बार , मनुष्य का दिल , लिवर , किडनी बदली गयी कटा हुआ हाथ जोड़ा गया तो उसे विज्ञान और और पश्चिमी देशों का चमत्कार माना गया। भारतीय जाहिल जानवरों के अंगो के  मनुष्यों में प्रतिरोपण का अभी मज़ाक उड़ाने में व्यस्त हैं और विदेशी वैज्ञानिक इस पर काम भी कर रहे है।  जिस दिन वो सफल हो जायेंगे तो भारत के सूतिये दूर खड़े हो कर हिजड़ों की तरह तालियां बजायेंगे।

http://www.smithsonianmag.com/…/future-animal-to-human-org…/

कल से एक खबर देख कर चित्त खिन्न हो गया , जिसमे दिल्ली के हवाला व्यापारी कश्मीरियों तक पैसा पहुंचा रहे थे। क्या उम्मीद की जाए ऐसे लोगों से गाय बचाने की जिन्हे देश को मारने में कोई दर्द नहीं हो रहा है।

ग्लोबल वार्मिंग पर 2 जून को विश्व के लगभग सभी देश आज चिन्तित नज़र आये। ग्लोबल वार्मिंग के बहुत से कारणों में मीट खाना एक अहम् कारण है। अगर ये बात कोई वैक धर्म से सम्बंधित जज कहता तो पूरी दुनिया में उसका मज़ाक उड़ता ,लेकिन यह बात ऑक्सफ़ोर्ड मार्टिन स्कूल के वैज्ञानिक कह रहे हैं। न यकीन आये तो निम्न लिंक पढ़ लीजिये।  


अब चूँकि गोरी चमड़ी के विदेशी वैज्ञानिक यह कह रहे हैं तो पूरी दुनिया इसे मानेगी। लेकिन जब हमारे शास्त्रों ने प्रकृति जिसमे पेड़ पौधे , जीव जन्तु और सूर्य पृथ्वी और जल शामिल हैं , ने इसकी पूजा करने के तरीके से इन्हे बचाने का सन्देश दिया तो वो आज मूढ़मगजों के हँसी के पात्र बन रहे हैं।  
हमारे पूर्वजों ने आत्मीयता की दृष्टि से धार्मिक जामा पहनाते हुए समझाया कि गौ का संरक्षण होना चाहिए , तो किसी की समझ नहीं आया। अब अमरीकी वैज्ञानिक कह रहे हैं कि रेड मीट खाने से कैंसर के खतरा 60 -70 प्रतिशत बढ़ जाता है यह मैं नहीं कह रहा हूँ , यह कैंसर काउंसिल कह रही है ,तो भी इस ढाई इंच की जुबान के कुछ मिनटों के स्वाद के गुलाम शायद इसे नहीं छोड़ पाएंगे।

बहुत विस्तार में जाते में न जाते वैज्ञानिकों द्वारा गौ उत्पादों #पंचगव्य पर शोधपत्र का सारांश यहाँ लिख रहा हूँ ---दुनिया भर में शोध के पश्चात् गाय का दूध A 2 श्रेणी में रखा गया है। जो कि सिर्फ गायों में ही पाया जाता है , वो भी विशेषकर भारतीय गायें में। 
(A 2 Milk के विषय में अधिक जानकारी के लिए पढ़ें  https://en.wikipedia.org/wiki/A2_milk ) 

इस A 2 मिल्क को पीने मोटापे, गठिया , टाइप 1 डायबटीज़ , और बच्चों में आटिज्म की बिमारी से बचा जा सकता है। आज की तारीख में विश्व के वैज्ञानिक बिमारियों पर दवाइयों के विशेष कर एंटीबायोटिक दवाइयों के बेअसर होने के कारण चिंतित हैं। वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले बीस सालों में एंटीबायोटिक दवाईयां बिकुल असर करना बंद कर देंगी। इसका विकल्प उन्होंने गौमूत्र में ढूंढा और गौमूत्र का 6896907 , तथा 6410059 नंबर का गौमूत्र का पेटेंट इसके औषधीय गुणों के कारण करवा लिया ।  These Patents have been granted for its medicinal properties, particularly as a bioenhancer, and as an antibiotic, antifungal, ant anticancer agent . ( #आइये_हम_भारतीय_गौमूत्र_का_मज़ाक_उड़ा_कर_समय_व्यतीत_करें )

पिछले वर्षों में खेती में रासायनिक खाद का बहुतायत में उपयोग होने से एक तो उनके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं और फसलों की बहुत सी बीमारियाँ भी रसायन प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर चुकीं हैं। इन्ही बिमारियों से लड़ने के लिए भारतीय साहीवाल गाये के दूध में से Bacilus Lentimorbus  NBRI 0725 ,B. Subtilis NBRI 1205 , और B.Lentimorbus NBRI 3009 नाम के पदार्थ (Strains) अलग किये गए हैं  which have the capability to control phytopathogenic Fungi and promote plant growth under field conditions, increase tolerance for antibiotic stresses and solubilise Phosphate under abiotic conditions.

गोबर से बने उपलों या गोबर गैस द्वारा ऊष्मता एक ख़ास तापमान से ऊपर नहीं जाती है जिससे खाने के पौष्टिक तत्व अन्य साधनो पर पकाये खाने की तरह नष्ट नहीं होते। 

 रूरल डेवलपमेंट एंड टेक्नोलॉजी ( CRDT) ने IITs , ICAR ,DBT ,ICMR ,CSIR ,AAYUSH , NDRI से से शोध पत्र मांगे , जिसमे से पूरे भारत में से प्रारम्भिक रूप में आये हुए 54 में से 34 को पंचगव्य पर पारम्परिक मान्यताओं को मान्यता देने के लिए चुना गया। 
अगर अभी भी समझ नहीं आया कि गौ को क्यों पूजने के लिए कहा गया है तो 
आइये मिलकर अपनी धार्मिक मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ाते हुए , नीम ,आंवले और पीपल के पेड़ काटें , शहर भर के गंदे नाले नदियों में मिलाएं और हर सड़क चौराहे पर गौहत्या की जाए।  बीफ पार्टी का न्योता सबको दिया जाए। गाये की पूजा और पर्यावरण की चिंता हम और आप क्यों करें। कोई अगले 20-25 सालों में जब तक हमने जीना है गायों के ख़त्म होने से कयामत तो आ नहीं जाएगी।  रही बात दूध की तो वो तो यूरिया , पानी, पेंट, डिटर्जेंट ,चीनी कास्टिक सोडा से बन कर आज भी बिकना शुरू हो गया है , 20 साल बाद गाय का मांस पचाने वाले इस प्रकार निर्मित दूध को भी पचाने लगेंगे। 



अभी आपको समझ आया ???? प्रसव का दर्द झेला माँ ने , नेग ले गयी दाई और हिजड़े ले गए का मतलब ???? बधाई प्रसव या कटने का दर्द झेला गाय ने। नेग यानि की काटने का पैसा ले गया कसाई और हिजड़े वो जो खायें और खिलाएँ गाय का मांस।
या यूँ कह लीजिये , ऋषि मुनियों ने मेहनत से ज्ञान अर्जित किया , आज के विदेशी वैज्ञानिक उसी भारतीय ज्ञान पर आधारित सभी शोध अपने नाम लिखवा रहे हैं और दवा कंपनियां कर इन्ही दवाओं पर जमकर पैसा कमा रहीं हैं।
और सबसे मज़ेदार बात बच्चे के बाप होने की दावेदारी पडोसी पेश कर रहा और पेटेंट अपने नाम लिखवा रहा है।

1 टिप्पणी:

  1. आपके द्वारा इक्कठा की गई जानकारियाँ सराहनीय है, और निश्चय ही आयुर्वेद पर जितना शोध होना चाहिए उतना हुआ नहीं है, और जो हो रहा है वो बहुत कारगर नहीं है। उसकी वजह है जो सबसे प्रतिभाशाली वैज्ञानिक तबका है उनमें से ज्यादातर आयुर्वेद कि विशेषताओं में ज्यादा विश्वास नहीं रखते। कारण ये है कि इन शोधों में कैरियर के रिस्क है, क्योंकि इस क्षेत्र में भारत में न के बराबर शोध हुए हैं और वैज्ञानिकों को लगभग शुरुआत से काम करना होगा जिसमें बेहिसाब वक़्त और पैसा लगने वाला है। और निष्कर्ष क्या होगा ये भी पक्का नहीं होता है।
    जाहिर है कोई जान बूझ कर इस प्रकार के शोध में घुसना नहीं चाहता है।
    दूसरा पक्ष ये है कि विज्ञान का वैज्ञानिक आधार होता है, और जो बातें शोध के विज्ञान को प्रभावित नहीं करती उसे शोध से जोड़ना अनुचित है। जैसे नीम का जो भी प्रभाव है वो वैसा ही बना रहेगा न कि उसकी पूजा करने से प्रभाव बढ़ जाएगा। यही बात गाय पर भी लागू होती है, अगर गाय की पूजा की जाए तो ऐसा नहीं है कि उसके मूत्र के औषधीय गुण बढ़ जाएंगे। ऐसी अवधारणा ले कर जो धार्मिक ठेकेदार हैं उन्होंने संस्कृति और धर्म को बचाने के नाम पर जो बवाल फैलाया हुआ है, उससे भी डर कर बेहतर प्रतिभा इस क्षेत्र में आना नहीं चाहती।
    सरल भाषा में समझें तो लाठी तलवार दिखा कर गोमूत्र से दवा नही बनाई जा सकती, जब तक किसी प्रतिभावान के भीतर से खुद ऐसी आवाज नहीं आएगी, आयुर्वेद प्रभावी शोधकार्य के लिए तरसता रहेगा।
    आप खुद ही देखें जो सबसे प्रतिभावान छात्र होते हैं वो एलोपैथिक दवाओं पर काम करते हैं, आयुर्वेद में कौन आता है? जिसे कहीं और अवसर नहीं मिलता। इसलिए क्षमतावान लोगो को लाने के लिए लठैतों को विज्ञान से हटाना होगा, इसे धार्मिक पुर्वाग्रह से न जोड़ कर सिर्फ वैज्ञानिक दृष्टि से देखना होगा।

    वक़्त के बारे में कहा जाता है कि आप इसका रास्ता नही बदल सकते चाहे जितना सिर पटक लो, आज हो ये रहा है कि जहाँ कुछ सदी पहले 100% लोग धार्मिक थे वहाँ आज एक बड़ा तबका नास्तिक हो चुका है, इनमें ज्यादातर वो लोग हैं जो खुले दिमाग वाले हैं, जो लिखी गयी और थोपी गयी मान्यताओं पर सवाल उठाते हैं और बिना सबूत के उन्हें मानने से इनकार करते हैं। पर ये वही हैं जो नई मान्यताएं स्थापित कर रहे हैं और दुनिया को बदल रहे हैं।
    जो हज़ारों वर्षों पहले लिखा गया वो सत्य हो सकता है पर 100% अक्षरतः सत्य हो ये भी जरूरी नहीं। जो भी जानकारी लिखी गयी है वो तब तक किये गए शोधकार्य के आदर पर लिखी गयी होगी, और विश्व का कोई शोध ऐसा नहीं हुआ जिसमें आज तक कोई त्रुटि नहीं हुई हो, और जिसे बाद में बदला नहीं गया हो।

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