शनिवार, 18 नवंबर 2017

पद्मावती का इतिहास


डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में नेहरू ने खिलजी को महान बताया है और उसकी प्रशंसा की है कि उसने हिन्दू रानियों से शादी की थी।  हाँ नेहरू ने यह नहीं बताया कि खिलजी ने हिन्दू रानियों से शादियां कैसे उनके पतियों का क़त्ल करके कीं थीं। 

शांतिप्रिय मज़हब के अनुयायी और धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़े हुए हम विज्ञान और कॉमर्स के छात्रों को एक वाक्य में उड़ा कर चले जाते हैं कि रानी पद्मावती तो महज़ जायसी की कल्पना थीं उनका कहीं किसी इतिहास में कोई ज़िक्र नहीं है।
मेरे जैसे करोड़ों फेसबुक चलाने वाले जिनके ज्ञान का स्रोत फेसबुक या व्हाट्सएप है , बिना किसी प्रतिवाद के हाँ में हाँ मिला कर सन्नाटा खींच लेते हैं। 
इतिहास तो कुरान में बताये गए 6 दिन में दुनिया बनने का भी नहीं है। आदम और हव्वा ने सेब खाया था उसका भी नहीं है और चाँद के दो टुकड़े किये गए थे उसका भी नहीं। लेकिन रानी पद्मावती का इतिहास है , आपको पढ़ाया नहीं गया या आपने पढ़ा नहीं तो इसका मतलब यह नहीं है जलालुद्दीन अलाउद्दीन का चाचा और ससुर नहीं था। 
हो सकता है कि आपने इतिहास के पन्नो में यह ज़रूर पढ़ा हो अलाउद्दीन ने बेहद प्यार करने वाले अपने चाचा और ससुर को धोखे से मरवा कर अपने को 19 जुलाई 1296 को  सुलतान घोषित कर दिया था।
अपनी किताब #तारिख_ए_फ़िरोज़शाही में ज़िआउद्दीन बरनी ( 1285 -1357) अलाउद्दीन के बारे में लिखता है कि -----उसने अपने जीवन में दो उद्देश्य बनाये थे ;यथा ---वह एक नए धर्म को प्रचलित करना चाहता था तथा सिकंदर महान के समान विश्व विजय करना चाहता था। 
अपने प्रथम उद्देश्य में वह कहा करता था -----" ईश्वर ने अपने प्रवर्तक को चार मित्र प्रदान किये थे , जिनकी सहायता के आधार पर वह एक नए धर्म को चलाने में तथा उसका विस्तार करने में सफल हुआ था। ईश्वर ने मुझे भी चार मित्र उलूग खां , नुसरत खां,ज़फर खां और अलप खां प्रदान किये हैं। यदि मैं चाहूँ तो मैं भी उनके द्वारा एक नया धर्म चला सकता हूँ और अपनी तलवार द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उस धर्म को मानने के लिए मजबूर कर सकता हूँ।"
दूसरे उद्देश्य के विषय में वह कहा करता था ---"मेरे पास अतुल धन-संपत्ति है एक सुसंगठित सेना है , जिसके द्वारा मैं विश्वविजय कर सकता हूँ। मैं अपनी अनुपस्थि में भारत साम्राज्य के लिए अपना प्रतिनिधि छोड़कर विश्व-विजय के लिए प्रस्थान करूँगा। 
इतिहासकारों के अनुसार  वर्ष 1300 में खिलजी ने उलूग खां और नुसरत खान को रणथम्बोर पर आक्रमण करने का आदेश दिया।  अनेक इतिहासकारों और अमीर खुसरो की #तारीखे_अलाइ या #ख़ज़ैन_उल_फुतुह के अनुसार भीषण युद्ध में नुसरत खान मारा गया और उलूग खान ने भाग कर #झाई के दुर्ग में जान बचाई। इसके बाद अलाउद्दीन भारी सेना को लेकर खुद रणथम्बौर पहुंचा और एक वर्ष तक निरन्तर युद्ध चले के पश्चात् जीत की कोई उम्मीद न देख कर उसने राजा हम्मीर देव के साथ छल कपट कर के दुर्ग के फाटक खुलवा लिए।  युद्ध करने लायक पुरुषों ने युद्द किया नारियों ने जौहर कर लिया। राजा हम्मीर देव लड़ते हुए मारे गए और किले को जीत कर उस का नाम दारुल इस्लाम रख दिया गया। 
वर्ष 1303 चित्तौड़ का युद्ध ----चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी था और चित्तौड़ का दुर्ग सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था।  यहाँ का राजा रत्न सिंह था।  अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण क्यों किया , यह प्रश्न इतिहास का एक विवादस्पद विषय है। 
रानी पद्मिनी की कथा -- कुछ इतिहासकार कहते हैं कि रानी पद्मिनी लंका के राजा गन्धर्व सेन की अत्यंत सुन्दर पुत्री थीं। राजा रतनसिंघ ने अपने हीरामन नमक तोते से उसकी प्रशंसा सुनी और उससे विवाह करके ले आये। एक दिन राघव चेतन नाम का साधु शाही महल में भिक्षा मांगने गया और वहीँ उसने रानी के आलोकिक सौंदर्य को देखा। उसी साधु से अलाउद्दीन को रानी पद्मिनी के अप्रितम सौंदर्य का ज्ञान प्राप्त हुआ और उसके दिल में उन्हें प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न हो गयी। अपनी कुचेष्टा के चलते उसने धोखे से राणा रत्न सिंह को बंदी बना लिया। सुलतान ने रानी को यह सन्देश भेजा कि यदि वे सुलतान की मलिका बनना स्वीकार कर लेंगी तो राजा रत्न सिंह को रिहा कर दिया जायेगा। रानी ने सुलतान के प्रस्ताव को स्वीकार करके एक चाल चली। उन्होंने पहले राजा से मिलने की अनुमति मांगी।  खिलजी तैयार हो गया।  800 सैनिकों को पालकियों में छिपा  कर यूँ जाहिर किया गया जैसे रानी मिलने आयीं हैं। अलाउद्दीन बहुत आतुरता से रानी के मिलने का इंतज़ार क्र रहा था, किन्तु पालकियों में छुपे राजपूतों ने अलाउद्दीन के करीब पहुंचते ही अचानक हमला बोल दिय और रजा रत्न सिंह को छुड़ा लाये। इसके बाद क्रोधित होकर सुलतान ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। सुलतान के विजयी होने से पहले ही रानी ने अपनी दासियों के साथ जौहर कर लिया। 
इस कहानी की पुष्टि #श्रीनेत्र पाण्डेय, #अमीर_खुसरो और #जायसी, #जेम्स_टॉड करते हैं। परन्तु आधुनिक इतिहासकार इस कहानी का विशवास नहीं करते। 
इसके विपरीत #डॉ_आशीर्वादी_लाल_श्रीवास्तव का मत है कि --"आधुनिक इतिहासकारों का यह कथन कि यह जैसी की मनगढंत कहानी थी , गलत है। सत्य तो यह है कि जैसी ने प्रेमकाव्य की रचना की और उसका कथानक आमिर खुसरो के #खजान_उल_फुतुह से लिया है। पद्मावत में वर्णित प्रेम कहानी के विवरण की अनेक घटनाएं कल्पित हैं , किंतु काव्य का मुख्य कथानक सत्य प्रतीत होता है। अलाउद्दीन पद्मिनी कोप्राप्त करने का इच्छुक था , कामुक सुलतान को रानी का प्रतिबिम्ब दिखाया गया था और उसने धोखे से उसके पति को बंदी बना लिया था , ये घटनाएं सम्भवतः ऐतिहासिक सत्य पर आधारित हैं। "
परन्तु यह निर्विवाद है कि अलाउद्दीन को चित्तौर के घेरे में राजपूतों के साथ कड़ा संघर्ष करना पड़ा था और अंत में उसे विजय मिली थी।  रानी ने जौहर कर लिया और सुलतान के बेटे खिज्र खां को चित्तौड़ का शासक नियुक्त किया गया और तत्पश्चात चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद रख दिया गया। 
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ऊपर एक पंक्ति में लिखा है कि जायसी की पद्मावत , #खुसरो की #खजान_उल_फुतुह से प्रेरित है । तो #खजान_उल_फुतुह में खुसरो ने क्या लिखा है ????
आमिर खुसरो 1273 में इल्तुतमिश का सिपाही बना उसके बाद , उसके बाद गयासुद्दीन बलबन के भतीजे छज्जू मलिक का , फिर बलबन के बेटे बुर्ग़ा खान का , फिर जलादुद्दीन खिलजी का और फिर अलाउद्दीन खिलजी का।  यह युद्ध में जाता था और अपने मालिकों के युद्ध का चापलूसीयुक्त वर्णन वर्णन प्रतीकों से करता था। बिलकुल वैसे ही जैसे पहले ज़माने के चारण , भाट और राजदरबारी किया करते थे।  जैसे इल्तुतमिश ने एक बार गंदे पानी का हौज़ साफ़ करवाया तो उसको इसने सांकेतिक भाषा में बाइबल और कुरान में वर्णित मूसा द्वारा समुद्र के दो फाड़ कर देने से तुलना की। 
देवगढ़ जीतने के बाद खुसरो प्रतीकात्मक भाषा में कहता है की सुलतान तो ईसा मसीह की तरह क्षमाशील हैं सबको माफ़ कर देते हैं। इसी तरह से चित्तौड़ युद्ध को यह तोराह, बाइबिल, कुरान में वर्णित  राजा सोलोमन के रानी शेबा के ऊपर  आक्रमण से तुलना करता है। जिसमे राजा सोलोमन ने हुदहुद चिड़िया के मुंह से रानी शेबा के विषय में सुन कर उसे अपने यहाँ आने का न्यौता दिया था।यदि वो न आती तो फौज तैयार कर ली थी फिर भी , अनेक गुणों की खान रानी उसका न्योता स्वीकार कर लेती है और राजा सोलोमन से शादी कर के बिलकीस बानो बन जाती है ( कुरान सूरा 27- आयत 20 से 40  तक)।  सोलोमन =खिलजी , हिरामन तोता = हुदहुद चिड़िया , रानी शेबा = पद्मावती। 
सबकुछ वैसा ही ही है, बस यहाँ रानी ने खिलजी को चुनने की जगह जौहर चुन लिया और जायसी को पद्मावत रचने की कथा वस्तु मिल गयी। इसी तथ्य को कुछ इतिहासकार मान रहे हैं और कुछ नकार रहे हैं।  
   
वैसे मेरा मानना है कि बिना आग के धुआं नहीं होता। 


और जो कुछ फसबुकिया सूतिये कमेंट या पोस्ट डाल रहे हैं कि जौहर करने से अच्छा था कि तलवार ले कर लड़ लीं होती उनके लिए दो बाते कहूँगा कि जब आप इतिहास पढ़ेंगे तो पाएंगे कि हिन्दू राजाओं ने एक एक साल तक अनवरत युद्ध किया था और हारे थे तो अधिकाँश में चल कपट से और मुसलमान और मुग़ल सैनिक मृत महिलाओं के शरीर से बलात्कार करने से भी बाज नहीं आते थे तो जौहर ही ऐसा रास्ता बचता था जिससे भारतीय महिलाएं अपना मृत शरीर भी गन्दा होने नहीं देतीं थीं। 

शनिवार, 11 नवंबर 2017

गुलाम मानसिकता के पहरे दार (2)

10  नवम्बर को कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमन्त्री सिद्धाराम्मैया ने टीपू सुल्तान की जयंती मनाई।  कांग्रेस टीपू की जयंती 2015 से मना रही है लेकिन मैसूर प्रान्त के सेक्युलरिस्ट और भारत के मुसलामान इसे दशकों से राष्ट्रवीर बना रहे हैं। उसे राष्ट्रनायक बनाने के किये लेख लिखे जा रहे हैं नाटकों का मंचन किया जा रहा है जिन्हे सरकारें प्रायोजित करतीं हैं। 

एक ने टीपू सुलतान पर सीरियल बनाया और आग में जल गया।  दूसरे ने तलवार खरीदी और बर्बाद हो गया। टीपू की जयंती मनाने वाली कांग्रेस का क्या होगा शायद साफ़ नज़र आ रहा है। 


भारतीय इतिहास की सच्चाई को रौंद डालने और झूठ को ही सच्चाई की शकल में दिखने के कई उदाहरणों में से एक टीपू सुलतान का भी है। 
एक समय था जब नैसुर के हाटों और बाज़ारों में , उत्सवों और महोत्सवों में भाट लोग देवी देवताओं की प्रशंसा के गीत गाने वाले, भाट बंदियों में तब्दील होकर टीपू के गीत गाने लग गए। उन्हें न इतिहास से मतलब था न टीपू के दुष्कृत्यों से।  उन्हें इस काम के लिए मुसलमान व्यापारी पैसा दिया करते थे। वक़्त बदला तो टीपू का महिमामंडन करने वाले नाटकों का मंचन शुरू हो गया। जब वो अंग्रेजों से लड़ रहा था तो तत्कालीन लेखकों ने ऐसे नाटक और लेख लिखे जैसे उससे बड़ा और कोई देश भक्त था ही नहीं। देखने वालों ने इसे ही सही इतिहास मान लिया। आजादी मिलने के बाद मार्क्सवादी लेखकों ने, वोट बैंक का धंदा करने वालों ने ,मुस्लिम कलाकारों तथा नाटककारों ने , फिल्मे बनाने वालों ने , टीपू सुलतान का राष्ट्रिय नायक के रूप में खूब महिमामंडन किया। असली इतिहास को मार कर दफना दिया गया। 
उसने अपने दो बच्चों को अंग्रेजों के यहाँ बंधक रखा था इसलिए वो नायक हो गया और अंग्रेज सबसे निकृष्ट कौम हो गए।  ऐसा लिखते वक़्त लेखक ये छुपा गए की बच्चो और परिजनों को युद्धबंदी बना कर रखने की प्रथा मुसलामानों ने ही शुरू की थी।  
अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को लेकर यदि टीपू को राष्ट्रनायक बनाया जाता है तो उन्ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले मराठों को ये इतिहासकार महानायक क्यों नहीं बनाते ??? ज़माने से मैसूर में चली आने वाली राजभाषा कन्नड़ को बदल कर फ़ारसी को राजभाषा बना दिया। ( हिंदी का विरोध करने वाले आज भी राजस्व विभाग में फ़ारसी के बहुत से शब्दों का प्रयोग करते हैं, और राजस्व विभाग के दस्तावेजों में आज भी बाप और बेटे के बीच #बिन शब्द का प्रयोग होता है , जैसे राहुल गाँधी बिन राजीव गाँधी )। 
गाँवों और शेरोन के नाम बदल दिए जैसे - ब्रह्मपुरी को सुल्तानपेट ,चित्रदुर्ग को फार्रुखयब , कोडगु को जफराबाद ,देवनहल्ली को युसूफाबाद ,डिंडिगल को खलीलाबाद , गुत्ती को हिस्सार , कृष्णगिरि को फलक इल अज़म , मैसूर को नज़रबाद , पेनुगोंडा को फक्राबाद, सँकरीदुर्ग को मुजफ्फराबाद , सिरा को रुस्तमाबाद , सकलेशपुर को मंजराबाद। ये सब टीपू की राष्ट्रीयता और धर्म सहिषुणता की अप्रितम मिसालें हैं।

कर्नाटक केरल और तमिलनाडु के हजारों टूटे हुए मंदिरों को देखने के बाद इतिहासकार और साहित्यकार तमाम शैव और वैष्णव युद्धों का नकली जामा पहना कर झूठ को सच साबित करने में व्यस्त हैं लेकिन वो इन पत्रों और लेखों का क्या करेंगे जो टीपू सुलतान ने खुद लिखे थे और आज भी लन्दन के " इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में मजूद है ????

(i) अब्दुल खादर को लिखित पत्र 22 मार्च 1788 
“बारह हजार से अधिक, हिन्दुओं को इ्रस्लाम से सम्मानित किया गया (धर्मान्तरित किया गया)। इनमें अनेकों नम्बूदिरी थे। इस उपलब्धि का हिन्दुओं के मध्य व्यापक प्रचार किया जाए। स्थानीय हिन्दुओं को आपके पास लाया जाए, और उन्हें इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए। किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए।”(भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त 1923 )

(ii) कालीकट के अपने सेना नायकको लिखित पत्र दिनांक 14  दिसम्बर 1788 
”मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन अली के साथ अपने दो अनुयायी भेज रहा हूँ। उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लेना और वध कर देना…”। मेरे आदेश हैं कि बीस वर्ष से कम उम्र वालों को काराग्रह में रख लेना और शेष में से पाँच हजार का पेड़ पर लटकाकार वध कर देना।”
(iii) बदरुज़ समाँ खान को लिखित पत्र (दिनांक 19 जनवरी 1790)
”क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है निकट समय में मैंने मलाबार में एक बड़ी विजय प्राप्त की है चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मूसलमान बना लिया गया था। मेरा अब अति शीघ्र ही उस पानी रमन नायर की ओर अग्रसर होने का निश्चय हैं यह विचार कर कि कालान्तर में वह और उसकी प्रजा इस्लाम में धर्मान्तरित कर लिए जाएँगे, मैंने श्री रंगापटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।”
(उसी पुस्तक में)
टीपू ने हिन्दुओं के प्रति यातनाआं के लिए मलाबार के विभिन्न क्षेत्रों के अपने सेना नायकों को अनेकों पत्र लिखे थे।
”जिले के प्रत्येक हिन्दू का इस्लाम में आदर (धर्मान्तरण) किया जाना चाहिए; उन्हें उनके छिपने के स्थान में खोजा जाना चाहिए; उनके इस्लाममें सर्वव्यापी धर्मान्तरण के लिए सभी मार्ग व युक्तियाँ- सत्य और असत्य, कपट और बल-सभी का प्रयोग किया जाना चाहिए।”
(हिस्टौरीकल स्कैचैज ऑफ दी साउथ ऑफ इण्डिया इन एन अटेम्पट टूट्रेस दी हिस्ट्री ऑफ मैसूर- मार्क विल्क्स, खण्ड 2  पृष्ठ 120)
 इतिहासकार कहते हैं कि टीपू बहुत धर्म सहिषुण और राष्ट्रीयता से ओतप्रोत था ------ मैसूर के तृतीय युद्ध (1792 ) के पूर्व से लेकर निरन्तर 1798 तक अफगानिस्तान के शासक, अहमदशाह अब्दाली के प्रपौत्र, जमनशाह, के साथ टीपू ने पत्र व्यवहार स्थापित कर लिया था। कबीर कौसर द्वारा लिखित, ‘हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान’ (पृ’ 141-147) में इस पत्र व्यवहार का अनुवाद हुआ है जिसमे उसने अफगानिस्तान के शासक और तुर्किस्तान के शासक से भारत पर हमला कर ईसाईयों को भगाने और काफिरों को खत्म करके इसे दारुल इस्लाम बनाने का प्रस्ताव भेजा था। 
विकिपीडिया पढ़ेंगे तो टीपू को बहुत दानवीर बताया गया है लेकिन हक़ीक़त यह है कि जिस वर्ष टीपू सुलतान मारा गया था उस वर्ष सिर्फ दो मंदिरों ( श्रीरंगपत्तनम और श्रृंगेरी के मठ ) को ही राजकीय सहायता मिलती थी , श्रीरंगपत्तनम को इसलिए कि वो वहां राज करता था और श्रृंगेरी को इसलिए क्योंकि उस मठ पर हमला करने के बाद ही टीपू की हार हुई थी। और अगर टीपू इतना ही बड़ा धर्म सहिषुण व्यक्ति था तो पुरातत्व के संकलनकर्ता रवि वर्मा के हिसाब से उसने 8000 मंदिरों को न तोड़ा होता। 
टीपू कितना बड़ा धर्म सहिषुणता का पालक था वो उसकी तलवार पर लिखी हुई निम्न नज़ीर से ही पता चलता है ---  टीपू की बहुचर्चित तलवार’ पर फारसी भाषा में निम्नांकित शब्द लिखे थे- ”मेरी चमकती तलवार अविश्वासियों के विनाश के लिए आकाश की कड़कड़ाती बिजली है। तू हमारा मालिक है, हमारी मदद कर उन लोगों के विरुद्ध जो अविश्वासी हैं। हे मालिक ! जो मुहम्मद के मत को विकसित करता है उसे विजयी बना। जो मुहम्मद के मत को नहीं मानता उसकी बुद्धि को भृष्ट कर; और जो ऐसी मनोवृत्ति रखते हैं, हमें उनसे दूर रख। अल्लाह मालिक बड़ी विजय में तेरी मदद करे, हे मुहम्मद!”
इस अकाट्य तथ्य के बावजूद पिछले 70 सालों से कांग्रेस सरकार टीपू का महिमामण्डन हर संभव तरीके से कर कर रही है। अफ़सोस जिन्हे गुलामी में रहने की आदत पड़ गयी है वो दूसरों की मानसिकता भी गुलाम ही बनाये रखना कहते हैं। 
एक ने टीपू सुलतान पर सीरियल बनाया और आग में जल गया।  दूसरे ने तलवार खरीदी और बर्बाद हो गया। टीपू की जयंती मनाने वाली कांग्रेस का क्या होगा शायद साफ़ नज़र आ रहा है। 

गुलाम लोगों की गुलाम मानसिकता (1)



#तेलंगाना_में_मुस्लिमों_को_नौकरियों_में_12%_आरक्षण ( 10  नवम्बर के समाचारपत्रों में छपी मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की घोषणा )
#टीपू_सुलतान_की_जयन्ती_ समारोह ( 11 नवम्बर के समाचार पत्रों में सिद्धरमैया द्वारा महिमागान) और #पद्मावती_जी_के_ऊपर_विवादित_चलचित्र।  
 तेलंगाना में आरक्षण की खबर कुछ यूँ है कि मुख्यमंत्री ने पिछड़े हुए मुसलामानों का आरक्षण का कोटा 6 से 12 प्रतिशत तथा मुस्लिम जनजातियों के 4% से 10 प्रतिशत करने का बिल इस शीतकालीन विधानसभा सत्र में करने की घोषणा की है और कुल आरक्षण फिलहाल 62 % तक ले जाने की बात कही है जिसे तमिनाडु की तर्ज़ पर 69% तक ले जाने की चाहत जतायी है। मुसलामानों पर इतनी इनायत क्यों ????

दो पंक्तियों में इस्लाम की मानसिकता को समझने के बाद जब मुस्लिम बादशाह भारत पर राज्य कर रहे थे उस समय के हिन्दुओं और मुसलामानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर एक नज़र डालते है। 
कुरान के अनुसार इस पूरी दुनिया को अल्लाह ने बनाया है और वही इसका सही मायने में राजा है। धरती पर हुकूमत चलाने वाला राजा ही अल्लाह नाम के उस राजा का सही प्रतिनिधि है; अल्लाह के मज़हब का प्रचार और प्रसार करना ही हुकूमत का अहम् लक्ष्य होता है। अल्लाह के प्रतिस्पर्धी किसी और खुदा के प्रति विश्वास रखता है या ऐसे प्रतिस्पर्धी खुदा के अस्तित्व का प्रचार और प्रसार करता है तो वह राजद्रोह करता है , उससे बढ़कर कोई पाप नहीं होता और उसके लिए मौत ही सही दंड है : अल्लाह के इस मार्ग पर चलना ही #जिहाद कहलाता है। लड़ाई में जीत जाने के बाद इस्लाम में विश्वास नहीं रखने वाले सभी लोग , जीतने वालों के गुलाम बन जाते हैं। और फिर भी जो धर्म परिवर्तन नहीं करता उसे मार दिया जाए ऐसा क़ुरान की सूरा 9 आयत 5-6 और सूरा 8 आयत 38 कहती है कि यदि वे इस्लाम कबूल कर लेते हैं तो उनके पिछले सारे गुनाह माफ़। काफिरों के न मानने पर उन्हें जान से मार देने वाली दसियों आयतें कुरान में दी गयीं हैं। ये थी कुरान मानने वालों की मानसिकता और इसके परिणाम जो हिन्दुओं ने झेले उसका साराँश इतिहास की पुस्तकों में कुछ यूँ दिया हुआ है। 

जो मुसलमान नहीं होता, उसके लिए कोई राजनितिक अधिकार भी नहीं होता।  मुसलमानी सल्तनत में उसे जीने का हक़ भी नहीं होता। उसे जीने दिया जाता है तो वह भी तत्काल के लिए ही। तब भी उसकी हालत गुलामों की हालत से थोड़ी सी बेहतर होतीथी।  तब उसको "जिम्मी" कहा जाता था क्योंकि तब वह एक करारनामे के तहत जीता था। इसके इलावा मुसलमानी सल्तनत के तहत जीने दिए जाने के एवज़ में उसे एक खास टैक्स भरना पड़ता था। उसका नाम था जजिया ( जज़िया का प्रावधान कुरान के सूरा 9 आयत 29 में है)। मुसलामानों को जिस भूमिकर से छूट मिली होती थी उसे जजिया के साथ वो कर "खरज" भी भरना पड़ता था। लड़ाई के लिए पाले जाने वाले सैनिकों के लिए उसे एक और टैक्स देना होता था।  मुसलामानों को ही सिपाही बनने का अवसर मिलता था और जो गैर मुसलमान होता था उसे सिर्फ निचले दर्जे का नौकर बनने दिया जाता था , वह कभी सिपहसालार या घुड़सवार नहीं बन सकता था। वह कभी घोड़े पर सवार नहीं हो सकता था था अच्छे कपडे नहीं पहन सकता था, हथियार नहीं रख सकता था। मुसलमान जाति के सभी सभी व्यक्तियों के सामने उसे विनीत रहना होता था । अदालत में उसके सबूत के लिए वह मान्यता नहीं होती थी जो एक मुसलमान के सबूत को मिलती थी। वह मेलों, पर्वो तथा त्योहारों में भाग नहीं ले सकते थे। नए मंदिरों का निर्माण नहीं कर सकता था : पुराने मंदिरों को दुरुस्त नहीं करवा सकता था। कमर झुका कर , खुद आ कर खड़े होकर उसे जजिया चुकाना होता था। ये प्रथा कुरआन की सूरा 9 आयत 29  के आधार पर बनायीं गयी थी ( जब तक काफिर जजिया नहीं भरते उनके साथ लड़ते रहो) , जजिया स्वीकार करने वाले मुसलमान को ऊँचे स्थान पर बैठना होता था। 
कभी कोई मुसलमान खंखार के थूकता था तो जिम्मी को भय और भक्ति के साथ , मुंह खोलकर उसको स्वीकार कर लेना चाहिए। परहेज़ की भावना व्यक्त न करते हुए , इसे निगल लेना चाहिए। यदि कोई मुसलमान गैर मुसलमान का  क़त्ल कर देता था तो यह गुनाह नहीं होता था। ये सब जिम्मियों पर इसलिए थोपा जाता था ताकि बेइज़्ज़ती, गरीबी और करों के बोझ से बचने के लिए ये जिम्मी धर्मांतरण करके मुसलमान बन जाएँ। 
मुसलमान व्यापारियों पर ढाई प्रतिशत टैक्स लगता था तो हिन्दू व्यापारियों पर पांच प्रतिशत।  एक समय ऐसा भी आया जब मुसलमान व्यापारियों का टैक्स तो पूरी तरह माफ़ कर दिया गया लेकिन हिन्दू व्यापारियों का यथावत रखा गया। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई हिन्दुओं को इन सब करों के अतिरिक्त जब कभी तीर्थयात्रा ( प्रयाग में कुम्भ,काशी , मथुरा वगैरह ) करनी होती थी तो उसके लिए अलग से कर देना होता था। 
नीतिविहीन युद्ध करके जीतना और जीत कर काफिर आदमियों को मार डालना , गुलाम बना लेना और कंधार से लेकर ईरान तक के बाजार में बेचना ,औरतों को अपने जनानखाने में लौंडिया  बना कर रखना और 15 साल से काम उम्र के लड़कों को हिजड़ा बनाने को ये दारुल इस्लाम की तरफ एक कदम मानते थे। 
किसानों के ऊपर लगान का इतना बोझ लाद दिया था कि लगान न चुका पाने की स्थिति में किसान को अपने चार चार साल के  बच्चों को हिजड़ा बना कर गुलामों के बाज़ार में बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता था। और वक़्त के साथ ये मजबूरी एक प्रथा बन गयी जिसके विषय में अकबर के बेटे जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा "तुजुक ए जहाँगीरी " में लिखा है कि -- "हिन्दुस्तान में , खासकर बंगाल की मातहत में रहने वाले सिलहट प्रांत के लोगों में अपने बच्चों को हिजड़ा बना कर , लगान के बदले सुबहदारों को सौंप देने की प्रथा जारी थी। अन्य प्रांत के लोग भी इस प्रथा को धीरे धीरे अपनाने लगे हैं। इस वजह से बच्चे अपनी सृजन शक्ति से वंचित हो रहे हैं। " यह प्रथा बंगाल के बाहर भी प्रचलित थी यानि सारी मुग़ल सल्तनत में फैली हुई थी। स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी थी की हिजड़ों की तादाद के आधार पर राज्य के लगान का हिसाब किताब होता था। .जहांगीर ने ही लिखा है कि उसके दरबारी सैय्यद खान छुगताय के पास ही हज़ार दो सौ हिजड़े थे। इसके अलावा हिजड़ों का व्यवसाय बहुत फायदे का बना हुआ था। एक हिजड़े की कीमत आम गुलाम के मुकाबले तीन गुना हुआ करती थी। भारत के हिजड़ों की मांग इस्पहान , समरकंद और विदेशों में बहुत अधिक थी। औरंगज़ेब ने बेशक मज़हबी कारणों से अण्डकोष फोड़ने की प्रक्रिया का निषेद किया था,फिर भी इस प्रथा को बंद नहीं करवा पाया।  उसकी हुकूमत के दौरान गोलकुण्डा (हैदराबाद) शहर में 1659 में ही बाईस हज़ार मर्दों के अंडकोष फोड़े गए थे। ऐसे हिजड़ों की बजाय लगान के रूप में बच्चों को को ही लेकर उनका धर्मांतरण कर देने से मुसलामानों की तादाद बढ़ेगी , यह जहांगीर का विचार था।" 

यह सिर्फ सारांश है , अत्याचारों की पराकाष्ठा की कल्पना भी आज की पीढ़ी नहीं कर सकती और नामपंथी इतिहासकार पूरी शिद्दत से उन ज़ख़्मों को छुपाने में व्यस्त हैं। मुझे गर्व है और आपको भी होना चाहिए अपने पूर्वजों पर जो अत्याचारों को सहते हुए प्रलोभनों को नकारते हुए मुगलों के सामने नहीं झुके।  पर आज के हिजड़ों का क्या किया जाये ?????

इतिहास में हिन्दुओं द्वारा झेले गए ये असहनीय अत्याचारों का संक्षेप लिखने के बाद चन्द्रशेखर राव  मैं ये पूछना चाहता हूँ कि जब मुग़ल सल्तनत थी तब भी मुसलामानों ने सत्ता का सुख भोगा, जो कष्ट नहीं झेल पाए वो सुख भोगने के लिए मुसलमान बन गए। क्या उन्ही कष्टों को भोगने का सिला आज तुम हिन्दुओं को दे रहे हो , बिना अंडकोष फुड़वाये हुए हिजड़े बनकर ??????

क्रमशः ----#टीपू_सुलतान_की_जयन्ती_ समारोह ( 11 नवम्बर के समाचार पत्रों में सिद्धरमैया द्वारा महिमागान) और #पद्मावती_जी_के_ऊपर_विवादित_चलचित्र।