मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

गन्दा है पर धंधा है

अनेक पोस्टों पर मित्रों की टिपण्णियां आ रहीं हैं कि वर्तमान घटनाओं के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है।  अरे भाई क्यों न हो ?? उसके जीने मरने का सवाल है। कैसे उसके जीने मरने का सवाल है यह जानने से पहले क्या हम बीजेपी को अकर्मण्यता के लिए क्लीन चिट दे दें ??? क्या करता है इनका ख़ुफ़िया तंत्र यदि उसे पहले से इन सुनियोजित षड्यंत्रों की खबर नहीं लगती। मान लिया कि एक घटना हो गयी लेकिन प्रशासन को ऐसे इन्तेज़ामात करने चाहिए कि पहले तो कोई ऐसी घटना करने से पहले दस बार सोचे नहीं तो दूसरी घटना तक इतना सख्त सन्देश चला जाना चाहिए की प्रजातंत्र को मज़ाक समझने वाले ऐसा करने का ख्वाब सपने में भी न लें। ऐसा क्यों नहीं होता, मालूम नहीं लेकिन कांग्रेस ऐसा करने के लिए क्यों मजबूर है यह हम सबको समझना बहुत ज़रूरी है। 
एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की मई 2018 में जारी की गयी रिपोर्ट के हिसाब से वर्ष 2015 से 2017 तक कांग्रेस को जितना चन्दा मिला उससे ज्यादा चन्दा शिव सेना और आप को जोड़ कर मिला। रुपयों के हिसाब से कांग्रेस को इस समय में 42 करोड़ रुपये मिले शिव सेना को 26 और आप को 25 करोड़। चन्दे की बात छोड़ दें तो कांग्रेस ने वर्ष 2016 -17 में इन दोनों पार्टियों से साढ़े तीन गुना ज्यादा कमाई की। ( अब यह कमाई कहाँ से की यह ADR को भी नहीं पता। 2016-17 में कमाई के मामले में सपा चौथे नंबर की पार्टी रही( यहाँ चंदे का नहीं पता )।  जबकि बीजेपी ने इस समय में 532 करोड़ रूपये चन्दा मिलने की घोषणा की है। फर्क दिख रहा है न , सीधे सीधे 500 करोड़ का नज़र आ रहा है। 
कांग्रेस की माली हालत इतनी खस्ता हो चुकी है कि उसने अपने राज्यों की इकाइयों को सुचारु रूप से चलने के लिए भी न सिर्फ पैसे भेजने बंद कर दिए हैं बल्कि पिछले हफ्ते केन्द्र और राज्यों की इकाइयों को 40 दिन का एक जनता से तक पहुँच कर चन्दा  इकठ्ठा करने का कार्यक्रम भी तय किया है । एक तरफ बीजेपी ने अपने लिए दीनदयाल मार्ग पर भव्य कार्यालय बनवा लिया है दूसरी तरफ इनके पास इतने पैसे नहीं थे कि उत्तर पूर्वी राज्यों में चुनाव पर्यवेक्षक को हवाई टिकट मुहैय्या करवा पाते। उत्तर पूर्वी राज्यों में हालिया हार का कारन तो कांग्रेस यही बता रही है कि किसी वरिष्ठ सदस्य को चुनाव पर्वेक्षण के लिए नहीं भेज पाए। मजे की बात देखिये कि जिन वरिष्ठ सदस्यों को उत्तर पूर्वी राज्यों की ज़िम्मेदारी दी गयी थी वे इतने निष्ठावान थे कि चुनाव ख़त्म होने तक हवाई टिकट का इंतज़ार करते रहे ट्रैन से नहीं जा सकते थे। 
गौर करें 2014 के चुनावों में बीजेपी ने कांग्रेस के मुकाबले डेढ़ गुना ज्यादा पैसा खर्च किया था और साढ़े छह गुना ज्यादा सीटें जीतीं थीं। जिस तेज़ी से कांग्रेस को चंदा देने वालों की संख्या घट रही है अगर ये अगले लोकसभा चुनाव भी हार जाती है तो इसको चंदा देने वाले सारे कुँए सूख जायेंगे और जो इसका अस्तित्व आज खतरे में है कल ख़त्म हो जायेगा।  
इसलिए आज कांग्रेस के लिए बहुत ज़रूरी है कि देश भर में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए कैम्ब्रिज अनलयतिका के बताये हुए रास्ते पर चले।  कहीं बिहारियों को पिटवायेगी कहीं मनु महारज की मूर्ती काली करवाएगी कहीं रामजन्म भूमि का मुद्दा उठायेगी  कहीं एस सी / एस टी एक्ट का मुद्दा उठायेगी  कहीं अर्बन नक्सल्स के साथ खड़ी होगी। 
 पूरा दम लगा कर राफेल मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा ही दिया है जिसकी 10 अक्टूबर यानि की कल  सुनवाई होनी है और कैम्ब्रिज अनलिटिका ने इनके तरकश में और कौन कौन से तीर डाल दिए हैं ये मुझ जैसा साधारण आदमी तो समझ नहीं सकता है देखते रहिये अप्रैल 2019 तक क्या क्या गुल खिलते हैं फिलहाल यही हाल रहे तो कांग्रेस को अपनी बत्ती गुल होने से बचाने के लिए यह सब करना ही पड़ेगा जिसके लिए आज सब उसे दोष दे रहे हैं।
हाँ चलते चलते एक बात और बता दूँ , जब मैंने वो रिपोर्ट पढ़ी थी तब रूपया डॉलर के मुकाबले 68 रुपये का था ,आज 74.03 का है और चुनाव आते आते मोदी को हराने के लिए 100 रुपये तक पहुँचाने के लिए विदेशी ताकतें  और घर के भेदी पूरी ताकत लगाए हुए हैं। कौन हैं वो लोग जाने के लिए नीचे दिया गया लिंक खोल कर पढ़ लें 
https://www.sundayguardianlive.com/news/pm-modi-takes-direct-charge-economic-measures-avert-crisis#.W54mptd_SJE.facebook
बहुत कुछ होगा और सब कुछ होगा भाई ये कांग्रेस के जीने मारने का सवाल है और आपको देश की पड़ी है। 

रविवार, 7 अक्टूबर 2018

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः

22 अगस्त 2017 को ट्रिप्पल तलाक पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने निर्णय सुनाया जिसमे से दो जजों जिसमे एक मुख्यन्यायधीश केहर थे का निर्णय था चूँकि यह 1400 वर्षों पुरानी परम्परा है और आस्था से सम्बंधित है इसलिए यह संवैधानिक रूप से जायज़ है। अन्य तीन जजों ने माना कि यह संविधान  अनुछेद 14 जो कि समानता का अधिकार देता है , के विरुद्ध एवं एक घिनौनी प्रथा है इसलिए इसे हटाया जाना चाहिए। परन्तु सुप्रीम कोर्ट के पास इसे प्रतिबंधित करने का अधिकार नहीं है इसलिए सरकार इसपर कानून लाये। 
इस निर्णय के ठीक एक साल एक महीने और एक हफ्ते बाद यानि कि 29 सितम्बर 2018 को सबरीमाला केस में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ आस्था के प्रश्न को भूल गए और उन्हें यह अधिकार भी मिल गया कि परशुराम जी द्वारा स्थापित मंदिर जिसमें 12वीं सदी से कुछ परम्पराओं के साथ अनवरत पूजा की जा रही है की हिन्दुओं की आस्थाओं को ताक पर रख कर यह आदेश पारित कर दें कि इस मंदिर में महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता। यदि इस मंदिर में महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता होता तो न तो इस मंदिर के प्रांगण में देवी मालिकापुरम का मंदिर होता और न नागराज के मंदिर के साथ  उनकी धर्मपत्नी नागाक्षी का मंदिर होता और न ही यहाँ 10 वर्ष से कम और 50 वर्ष से अधिक आयु की महिला को प्रवेश मिलता। 
खैर मेरा विषय यहाँ पर मन्दिर में महिलाओं की समानता सिद्ध करना नहीं है जो कि सबरीमाला मन्दिर के प्रबुद्ध वकीलों ने बेहतर तरीके से किया होगा।  मेरे दिमाग में तो सिर्फ एक सवाल उठ रहा है कि एक साल में आस्था पर अपना निर्णय न देने वाली सुप्रीम कोर्ट को यहाँ पर आस्थायें और परम्पराएं नज़र क्यों नहीं आयीं। 
जज साहेबान धार्मिक मामलों में यदि महिला समानता के प्रति इतने चिंतित और जागरूक हैं तो कभी ईसाईयों की धर्मव्यवस्था पर भी निगाह डालिये जहाँ ननों के साथ दासियों की तरह व्यवहार किया जाता है।  कभी उनके धर्म ग्रन्थ भी पढ़ कर देखिये। लिखने के लिए तो बहुत से उदाहरण हैं लेकिन बाइबल से एक दो उदाहरण दे रहा हूँ --
1) अध्याय LEVITICUS, कथन 12 में 2 से 7 --- प्रभु ने मूसा से कहा , " इस्राएलियों से कहो -- यदि कोई स्त्री पुत्र प्रसव करेगी तो वह सात दिन तक अशुद्ध रहेगी। जैसे वह ऋतुकाल में अशुद्ध रहती है। आठवें दिन पुत्र का खतना किया जायेगा ,इसके बाद वह प्रसव के रक्तस्राव से तैतीस दिन तक अशुद्ध रहेगी। जब तक उसके शुद्ध होने के दिन पूरे नहीं हो जायेंगे तब तक वह न तो किसी पवित्र वास्तु का स्पर्श करेगी और न किसी पवित्र स्थान में प्रवेश करेगी। यदि वह कन्या प्रसव करेगी तो वह दो सप्ताह तक अशुद्ध रहेगी, जैसे वह ऋतुकाल में रहती है।  वह प्रसव के छियासठ दिन तक अशुद्ध रहेगी। जब उसके शुद्धिकरण के दिन पूरे हो हो जायेंगे, तब चाहें उसने पुत्र प्रसव किया हो या कन्या, वह दर्शन कक्ष के द्वार के सामने याजक के पास होम -बलि के लिए एक वर्ष का मेमना और प्रायश्चित बलि के लिए एक कबूतर या पण्डुक लाये। याजक उनको प्रभु के सामने चढ़ा कर उसके लिए प्रायश्चित - विधि संपन्न करेगा। इस प्रकार वह प्रसव के रक्तस्राव से शुद्ध हो जायेगी। 
2) Timothy'S letter 1  ( टिमोथी का पहला पत्र) कथन 2 में 11 से 14 ---धर्मशिक्षा के समय स्त्रियाँ अधीनता स्वीकार करते हुए मौन रहें।  मैं नहीं चाहता कि वे शिक्षा दें या पुरुषों पर अधिकार जतायें। वे मौन ही रहें : क्योंकि आदम पहले बना और हव्वा बाद में और आदम बहकावे में नहीं पड़ा बल्कि हव्वा ने बहकावे में पड़कर अपराध किया।   

महोदय ,स्त्री और पुरुष में बराबरी या समानता के विषय में लगे हाथ कुरान का मत भी जान लेते हैं कि क्या है। 
1) सूरा 4 आयत 11 -- ( विरासत के सिलसिले में कही गयी यह आयत) लड़के का हिस्सा दो लड़कियों के हिस्से के बराबर , और अगर सिर्फ लड़कियाँ ही हों अगरचे दो से ज्यादा हों तो उन लड़कियों को दो तिहाई मिलेगा जो मूरिस छोड़ कर मरा है , और अगर एक ही लड़की हो तो उस लड़की को आधा मिलेगा _ _ _  _ _ _
2) सूरा 2 आयत 282 --- _ _ _ _ _ _ दो शख्सों को अपने मर्दों में से गवाह भी कर लिया करो , फिर अगर वो दो गवाह मर्द न हों तो एक मर्द और दो औरतें गवाह बना ली जाएँ _ _ _ _ _ 
3)सूरा 2 आयत 223 ----तुम्हारी बीवियाँ तुम्हारे खेत हैं। सो अपने खेत में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ। _ _ _ _ _ 

सिर्फ एक मन्दिर की एक परम्परा के आधार पर आपने पूरे सनातन धर्म को कटघरे में खड़ा कर दिया कि इसमें महलाओं के साथ सदियों से असमानता का व्यवहार किया जा रहा है। महोदय कभी हिन्दुओं की महिलाओं के विषय में अवधारणा का भी अवलोकन किया होता कि इनके धर्मशास्त्र क्या कहते है ??? 

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफलाः क्रियाः ।।
अर्थात -- जिस कुल में नारियों की पूजा अर्थात सत्कार  (तत्र) उस कुल में (देवता) दिव्यगुण = दिव्य भोग और उत्तम संतान होते हैं (यत्र) और जिस कुल में (एतास्तु न पूज्यन्ते ) स्त्रियों की पूजा नहीं होती है वहाँ जानो उनकी सब क्रिया निष्फल है। 

प्रजनार्थ महाभागाः पूजार्हाः गृहदीप्तयः। 
स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषो$स्ति कश्चन।। 
हे पुरुषो ! संतानोत्पत्ति के लिए महाभाग्योदय करने वाली पूजा के योग्य गृहाश्रम को को प्रकाशित करती,सन्तानोपत्ति करने कराने वाली घरों में स्त्रियां हैं वे श्री अर्थात लक्ष्मीस्वरूप होती हैं क्योंकि लक्ष्मी, शोभा,धन और स्त्रियों में भेद नहीं है। 
कहीं पढ़ा था कि कानून परम्पराओं के आधार पर बनाये जाते हैं , लेकिन भारत में तो ऐसा लग रहा है कि कानून परम्पराओं को तोड़ने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। ऐसा भारत में ही क्यों होता है कि धर्म देख कर कानून और संविधान की भाषा बदल जाती है??? ऐसा क्यों होता है कि बह्संख्यकों के देश में उनकी भावनाओं और परम्पराओं का कोई मूल्य नहीं है ??? ऐसा क्यों होता है भारत में कि मंदिरों पर तो सरकारी अधिकार चलते हैं और मुस्लिमों के लिए #दरगाह_ख्वाजा_एक्ट_1955 बना दिया जाता है ???
भारत में ही ऐसा क्यों होता है ??? क्योंकि हिन्दू असहिष्णु कहे जाने तक की हद तक बर्दाश्त करते हैं या वाकई ये कौम गुलाम होने तक की हद सहिष्णुता रखती है ??? 

शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

तैयारी एक और विभाजन की

वर्ष 634 में समुद्र के रास्ते व्यापारियों के रूप में आये फिर 674 में काबुल और मुल्तान तक आक्रमणकारियों के रूप में आये। कुछ शताब्दियों तक शांत रहने के बाद आये थे व्यापार करने और यहीं बस गए। आये थे लूटने और यहीं बस गए। आये थे सूफी बनकर धर्मपरिवर्तन करने और यहीं बस गए। आये  थे शरणार्थी बनकर और यहीं बस गए।    --------------------- 
अगर आपमें अपने विरोधियों की प्रशंसा करने का कलेजा है तो आप एक बात की प्रशंसा ज़रूर करेंगे कि ये आये भी मुसलमान थे रहे भी मुसलमान की तरह और बजाये कि हिन्दू धर्म अपनाने के हिन्दुओं का धर्म बदल दिया। सिर्फ इतना ही होता तो काफी था , लेकिन मजे की बात यह है कि भारत में आज जितने भी मुसलमान हैं उनमे से 95% हिन्दू धर्म से परिवर्तित हैं और उनकी भी निष्ठाएँ भारत माता नहीं बल्कि मक्का मदीना और मुस्लिम देशों के साथ हैं। 
बात यहीं ख़त्म हो जाती तो गनीमत थी, इनकी धार्मिक मान्यता के हिसाब से पूरी दुनिया को #दारुल_इस्लाम बनाना है।  दारुल इस्लाम में राजा और प्रजा दोनों मुसलमान होते हैं।  लेकिन इकलौता भारत ऐसा देश है जहाँ ये आये और पूरी प्रजा को मुसलमान नहीं बना पाए तो इन्होने इस्लामिक राजा के राज को ही  दारुल इस्लाम मान कर दिल को तसल्ली दे ली। 
1857 में बहादुर शाह ज़फर की सत्ता ख़त्म होते ही #दारुल_इस्लाम के इनके कीड़े कुलबुलाने लगे। आगे की 50 साल की  कहानी को छोड़ते हुए यह समझ लीजिये 1906 में इन्होने अपने हितों को सर्वोपरि मानते हुए मुस्लिम लीग का गठन किया और इसी वर्ष अपनी मांगों की लम्बी चौड़ी फेहरिस्त के साथ अपने लिए जनसँख्या के अनुपात में पृथक निर्वाचन की मांग कर दी। 1909 में मिंटो मोर्ले रिफार्म इनकी यह मांग मान भी ली गयी और सोने में सुहागा कांग्रेस ने 1916 के लखनऊ समझौते के तहत इनकी इस मांग को स्वीकार करके कर दिया। आगे बताने की ज़रुरत नहीं है कि पृथक निर्वाचन की मांग से शुरू होकर इन्होने धर्म के नाम पर सिंध अलग देश बना दिया पकिस्तान और बांग्लादेश अलग देश बना दिए। वो एक मांग उठी थी 1906 में जो आपको ग़लतफहमी है कि 1947 में ख़त्म हो गयी। लेकिन नहीं, आज है 2018 और फिर वही पृथक निर्वाचन और सरकारी प्रतिष्ठानों में जनसंख्या के अनुपात में  प्रतिनिधित्व की मांग शुरू हो गयी। ( आगे समझने के लिए एक तथ्य जान लीजिये की वर्तमान में पश्चिमी बंगाल में 30% मुसलमान हैं जो वृद्धिदर को मद्देनज़र रखते हुए 2035 में 37% होंगे कुछ जिलों में में ये अभी 40% से अधिक हैं)।    
22 सितम्बर 2018 शनिवार को कोलकाता के बीचोंबीच स्थापित मिल्ली अल अमीन कन्या विद्यालय में एक अधिवेशन आयोजित किया गया । जिसमे मुस्लिम जमात के 350 सेवानिवृत और वर्तमान सरकार में कार्यरत प्रशाशनिक अधिकारियों , प्रोफेशनल्स , बुद्धिजीवियों , राजनीतिज्ञों और मौलवियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में "आल इंडिया नब चेतना"के संयोजक फारुख अहमद ने मांग रखी कि यदि तृणमूल वाकई में मुसलामानों का भला करना चाहती है तो  जनसंख्या के अनुपात में बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 14 और विधानसभा की 294 सीटों में से 98 सीटों पर मुसलामानों के लिए आरक्षित करे। 
2006 की सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के हिसाब से बंगाल की वामपंथी सरकार में 3.4 मुस्लिम सरकारी नौकरियों में थे। इस तथ्य से नाराज़ मुसलामानों ने वामपंथियों का साथ छोड़ कर ममता का साथ पकड़ा जिन्होंने इनकी आरक्षण समेत 123 मांगे मानने का वायदा किया था और उसी आधार पर 2011 चुनाव जीता और तुष्टिकरण की प्रबल राजनीती करते हुए 2016 का चुनाव भी जीता। 
इसी अधिवेशन में क़ाज़ी फज़लुर रेहमान जो कि कोलकाता में ईद की सबसे बड़ी नमाज़ अदा करवाते हैं ने सरकारी नौकरियों में मुसलामानों के लिए 30% आरक्षण की मांग करते हुए कहा कि ममता ने अभी हमारी खास 12 मांगों में से सिर्फ 6 मांगें ही मानी हैं और यदि समयसीमा में 123 मांगें पूरी नहीं की गयीं तो ममता को हम वोट दें इसकी कोई गारंटी नहीं है।    
उधर इस गोष्ठी में जो तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संदीप बंधोपाध्याय , डेरेक ओ ब्रेन , नदीमुल हक़ और अहमद हसन इमरान भी मौजूद थे उन्होंने वहां मौजूद तमाम संगठनों के पार्टिनिधित्वों को विश्वास दिलाया कि उनकी सभी मांगे वैसे ही मान ली जाएँगी जैसे 97% बंगाल के मुसलामानों को OBC में शामिल करके आरक्षण दे दिया गया है। 
यदि तृणमूल के अंदरूनी वरिष्ठ सदस्य की मानी जाये तो उनके हिसाब से 14 लोकसभा सीटों पर जनसँख्या के अनुपात में प्रत्याशी खड़ा करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि बंगाल की जनता समझदार और #सेक्युलर है और वो धर्म के आधार पर वोट नहीं डालती और कोई भी खड़ा हो जनता दीदी को वोट डालती है इसलिए जीत तो ये जायेंगे ही।  यदि यह प्रयोग सफल रहा तो हम जनसँख्या के अनुपात में 2021 के विधान सभा चुनावों में प्रत्याशी खड़े करेंगे। 
चाहें इसे 1200 (वर्ष 634 ) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें 112 (वर्ष 1906) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें 72 (1947) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें इसे NRC से और रोहिंगियों को वापस भेजने पर उठे बवाल से जोड़िये । देश के एक और विभाजन का बीज बो दिया गया है। उसमे फल कितने साल बाद लगेंगे यह तो मैं नहीं बता सकता लेकिन फिलहाल मुंह से यही निकल रहा है -----
जंगल के कटने का किस्सा न होता। 
कुल्हाड़ी में अगर लकड़ी का हिस्सा न होता।