शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

तैयारी एक और विभाजन की

वर्ष 634 में समुद्र के रास्ते व्यापारियों के रूप में आये फिर 674 में काबुल और मुल्तान तक आक्रमणकारियों के रूप में आये। कुछ शताब्दियों तक शांत रहने के बाद आये थे व्यापार करने और यहीं बस गए। आये थे लूटने और यहीं बस गए। आये थे सूफी बनकर धर्मपरिवर्तन करने और यहीं बस गए। आये  थे शरणार्थी बनकर और यहीं बस गए।    --------------------- 
अगर आपमें अपने विरोधियों की प्रशंसा करने का कलेजा है तो आप एक बात की प्रशंसा ज़रूर करेंगे कि ये आये भी मुसलमान थे रहे भी मुसलमान की तरह और बजाये कि हिन्दू धर्म अपनाने के हिन्दुओं का धर्म बदल दिया। सिर्फ इतना ही होता तो काफी था , लेकिन मजे की बात यह है कि भारत में आज जितने भी मुसलमान हैं उनमे से 95% हिन्दू धर्म से परिवर्तित हैं और उनकी भी निष्ठाएँ भारत माता नहीं बल्कि मक्का मदीना और मुस्लिम देशों के साथ हैं। 
बात यहीं ख़त्म हो जाती तो गनीमत थी, इनकी धार्मिक मान्यता के हिसाब से पूरी दुनिया को #दारुल_इस्लाम बनाना है।  दारुल इस्लाम में राजा और प्रजा दोनों मुसलमान होते हैं।  लेकिन इकलौता भारत ऐसा देश है जहाँ ये आये और पूरी प्रजा को मुसलमान नहीं बना पाए तो इन्होने इस्लामिक राजा के राज को ही  दारुल इस्लाम मान कर दिल को तसल्ली दे ली। 
1857 में बहादुर शाह ज़फर की सत्ता ख़त्म होते ही #दारुल_इस्लाम के इनके कीड़े कुलबुलाने लगे। आगे की 50 साल की  कहानी को छोड़ते हुए यह समझ लीजिये 1906 में इन्होने अपने हितों को सर्वोपरि मानते हुए मुस्लिम लीग का गठन किया और इसी वर्ष अपनी मांगों की लम्बी चौड़ी फेहरिस्त के साथ अपने लिए जनसँख्या के अनुपात में पृथक निर्वाचन की मांग कर दी। 1909 में मिंटो मोर्ले रिफार्म इनकी यह मांग मान भी ली गयी और सोने में सुहागा कांग्रेस ने 1916 के लखनऊ समझौते के तहत इनकी इस मांग को स्वीकार करके कर दिया। आगे बताने की ज़रुरत नहीं है कि पृथक निर्वाचन की मांग से शुरू होकर इन्होने धर्म के नाम पर सिंध अलग देश बना दिया पकिस्तान और बांग्लादेश अलग देश बना दिए। वो एक मांग उठी थी 1906 में जो आपको ग़लतफहमी है कि 1947 में ख़त्म हो गयी। लेकिन नहीं, आज है 2018 और फिर वही पृथक निर्वाचन और सरकारी प्रतिष्ठानों में जनसंख्या के अनुपात में  प्रतिनिधित्व की मांग शुरू हो गयी। ( आगे समझने के लिए एक तथ्य जान लीजिये की वर्तमान में पश्चिमी बंगाल में 30% मुसलमान हैं जो वृद्धिदर को मद्देनज़र रखते हुए 2035 में 37% होंगे कुछ जिलों में में ये अभी 40% से अधिक हैं)।    
22 सितम्बर 2018 शनिवार को कोलकाता के बीचोंबीच स्थापित मिल्ली अल अमीन कन्या विद्यालय में एक अधिवेशन आयोजित किया गया । जिसमे मुस्लिम जमात के 350 सेवानिवृत और वर्तमान सरकार में कार्यरत प्रशाशनिक अधिकारियों , प्रोफेशनल्स , बुद्धिजीवियों , राजनीतिज्ञों और मौलवियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में "आल इंडिया नब चेतना"के संयोजक फारुख अहमद ने मांग रखी कि यदि तृणमूल वाकई में मुसलामानों का भला करना चाहती है तो  जनसंख्या के अनुपात में बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 14 और विधानसभा की 294 सीटों में से 98 सीटों पर मुसलामानों के लिए आरक्षित करे। 
2006 की सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के हिसाब से बंगाल की वामपंथी सरकार में 3.4 मुस्लिम सरकारी नौकरियों में थे। इस तथ्य से नाराज़ मुसलामानों ने वामपंथियों का साथ छोड़ कर ममता का साथ पकड़ा जिन्होंने इनकी आरक्षण समेत 123 मांगे मानने का वायदा किया था और उसी आधार पर 2011 चुनाव जीता और तुष्टिकरण की प्रबल राजनीती करते हुए 2016 का चुनाव भी जीता। 
इसी अधिवेशन में क़ाज़ी फज़लुर रेहमान जो कि कोलकाता में ईद की सबसे बड़ी नमाज़ अदा करवाते हैं ने सरकारी नौकरियों में मुसलामानों के लिए 30% आरक्षण की मांग करते हुए कहा कि ममता ने अभी हमारी खास 12 मांगों में से सिर्फ 6 मांगें ही मानी हैं और यदि समयसीमा में 123 मांगें पूरी नहीं की गयीं तो ममता को हम वोट दें इसकी कोई गारंटी नहीं है।    
उधर इस गोष्ठी में जो तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संदीप बंधोपाध्याय , डेरेक ओ ब्रेन , नदीमुल हक़ और अहमद हसन इमरान भी मौजूद थे उन्होंने वहां मौजूद तमाम संगठनों के पार्टिनिधित्वों को विश्वास दिलाया कि उनकी सभी मांगे वैसे ही मान ली जाएँगी जैसे 97% बंगाल के मुसलामानों को OBC में शामिल करके आरक्षण दे दिया गया है। 
यदि तृणमूल के अंदरूनी वरिष्ठ सदस्य की मानी जाये तो उनके हिसाब से 14 लोकसभा सीटों पर जनसँख्या के अनुपात में प्रत्याशी खड़ा करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि बंगाल की जनता समझदार और #सेक्युलर है और वो धर्म के आधार पर वोट नहीं डालती और कोई भी खड़ा हो जनता दीदी को वोट डालती है इसलिए जीत तो ये जायेंगे ही।  यदि यह प्रयोग सफल रहा तो हम जनसँख्या के अनुपात में 2021 के विधान सभा चुनावों में प्रत्याशी खड़े करेंगे। 
चाहें इसे 1200 (वर्ष 634 ) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें 112 (वर्ष 1906) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें 72 (1947) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें इसे NRC से और रोहिंगियों को वापस भेजने पर उठे बवाल से जोड़िये । देश के एक और विभाजन का बीज बो दिया गया है। उसमे फल कितने साल बाद लगेंगे यह तो मैं नहीं बता सकता लेकिन फिलहाल मुंह से यही निकल रहा है -----
जंगल के कटने का किस्सा न होता। 
कुल्हाड़ी में अगर लकड़ी का हिस्सा न होता। 
      

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