6 दिसम्बरकी साम्प्रदायिकता बनाम 19 जनवरी की धर्मनिरपेक्षता
इस लेख को लिखने से पहले मैंने 19 जनवरी को पूरा दिन आँखें गड़ा कर सभी न्यूज़ चैनल बहुत गौर से देखे। शिद्दत से 20 जनवरी के समाचार पत्रों का इंतज़ार किया कि पूरे देश में 19 जनवरी के सन्दर्भ में किस नेता या किस राजनितिक दल ने क्या कहा। इत्तेफाक से इसी दिन भाजपा की कार्यकारिणी में मोदी बोले सुषमा स्वराज बोलीं राजनाथ सिंह बोले इससे पहले कांग्रेस की राज्यइकाइयों की बैठक में राहुल गांधी बोले मणिशंकर अय्यर बोले सलमान खुर्शीद बोले। लखनऊ में आयोजित " साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाम की प्रतिध्वनि " में बृंदा करात बोलीं। केजरीवाल भी बोले और उनके अतिप्रतिभावान मंत्री सोमनाथ भारती भी बोले। समाज और नेताओं को अपने पैमाने पर सही और गलत नापने वाला मीडिया भी बोला। सब ने सब कुछ कहा पर नहीं कहा तो 19 जनवरी और 19 जनवरी 1989 पर कुछ नहीं कहा। नहीं कहा तो एक भी शब्द आज़ाद भारत के मुंह पर कालिख पोतने वाली 19 जनवरी 1989 की उस तारीख के बारे में नहीं कहा जिस दिन कश्मीर की तमाम मस्जिदों से हिंदुओं के खिलाफ इतना जहर उगला गया था कि हिंदुओं का सरेराह कत्लेआम शुरू हो गया था जिसके चलते साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडितों को रातों रात खाली हाथ अपना घर द्वार छोड़ना पड़ा और जो 24 साल से अपने ही देश में विस्थापित हो कर कैम्पों में शर्णार्थियों की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं।
अजब है इस देश की जनता और नेता कि कुछ सौ दंगा पीड़ित परिवारों को चंद दिनों में ही पांच लाख प्रति परिवार के हिसाब से 90 करोड़ का मुआवज़ा बाँट दिया जाता है। अगर सत्ताधारी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव या कुछ मीडिया रिपोर्टों का संज्ञान लें तो दंगापीड़ितों के लिए लगाये गए कैम्पों में रहने वाले आधे से अधिक लोगों को मुआवज़े मुफ्त कपडे और खाने का लालच दे कर स्थानीय नेताओं ने ज़बरदस्ती उन केम्पों में बसाया था। अजब है इस तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष देश का मानवाधिकार आयोग और मीडिया जिसे चार माह के अस्थायी रूप से विस्थापित एक सम्प्रदाय विशेष के उन लोगों का दर्द तो नज़र आ रहा है जो एक परिवार को मिलाने वाले पांच लाख ले कर भी इस लिए कैम्प नहीं छोड़ रहे थे कि उनके परिवार के हर सदस्य को पांच लाख रुपए चाहिए। लेकिन 24 साल से बेघर हुए साढ़े तीन लाख लोगों का दर्द इन्हे नज़र नहीं आता। अजब हैं इस देश के विदेश मंत्री जिन्हे चार विदेशी महिलाओं से अभद्रता से दो देशों के बीच सम्बन्ध खराब होने की चिंता है पर कश्मीर में 19 जनवरी 1989 के बाद कितनी महिलाएं बेइज़ज़त हुईं और कितनी अपनी जान और आबरू बचा कर भागीं इस पर सलमान खुर्शीद जी की आज तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। सरकार तब भी केंद्र में कांग्रेस की ही थी और आज भी उसी कांग्रेस की है जिस की वो नुमाइंदगी कर रहे हैं।
जिस तारीख में पूरी कश्मीर घाटी से धर्म के आधार पर हिंदुओं को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया था वो तारीख किसी भी धर्म निरपेक्ष नेता या साम्प्रदायिकता के खिलाफ आग उगलने वाले राजनितिक दल को याद नहीं रहती। हाँ याद रहती है तो 6 दिसम्बर जिस दिन एक दमनकारी सेनापति द्वारा मंदिर तोड़ कर बनवाई गयी उस मस्जिद को तोड़ दिया था जिसमे नमाज़ भी अदा नहीं होती थी। यह एक सांप्रदायिक शक्तियों का कृत्य था पर जब मंदिर या महात्मा बुद्ध की मूर्ति तोड़ी जाती है चाहें वो घटना लखनऊ कि हो या अफगानिस्तान कि उससे शरारती या तालिबानियों की उद्दण्डता कह कर इतिश्री कर ली जाती है। मुसलमान जब हिन्दू देवी देवताओं के नग्न चित्र बनाता है तो उसके लिए वो कला है इसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले साम्प्रदायिक और संकीर्ण मानसिकता के हो जाते हैं। लेकिन जब कोई विदेशी पैग़म्बर का कार्टून बना देता है तो और उग्र प्रदर्शन भारत में होते हैं तब किसी धर्मनिरपेक्ष नेता की जबान उन्हें शांत करवाने के लिए नहीं खुलती। अगर गोधरा में सुनियोजित ढंग से कारसेवकों की बोगी जलाई जाती है तो वो धर्मनिर्पेक्षकों की नज़ार में हादसा हो जाता है लेकिन जब उसकी प्रतिक्रिया होती है वो साम्प्रदायिकता हो जाती है। मुज़फ्फरनगर में जब मुसलमान हिन्दू लड़की को छेड़ने के विरोध में उसके भाई को मार देते हैं और थाने से छोड़ दिए जाते हैं यह नाइंसाफी किसी को नज़र नहीं आती लेकिन उसकी प्रतिध्वनि साम्प्रदायिक हो जाती है। गुजरात में जहां इशरत जहाँ उग्रवादियों के साथ मारी जाती है तो वो इन सब धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए बेक़सूर हो जाती है लेकिन अपनी जान पर खेल कर उग्रवादियों को मारने वालों को मानवाधिकार के सामने मुज़रिमों की तरह अपनी सफाई देनी पड़ती है। भारत का यदि कोई नेता यह कहता है कि वह राष्ट्रवादी हिन्दू है तो सभी राजनीतिक दलों और मीडिया में आग लग जाती है और दूसरी तरफ मुस्लिमों को खुश करने के लिए एक नेता अपनी एक रैली में डंके की चोट पर कहता है की कारसेवकों पर गोली मैंने चलवाई थी या दूसरी रैली में कहता है कि देश के विकास में सिर्फ किसानों और मुसलमानों का सहयोग है तो एक भी राजनितिक दल या मीडिया यह नहीं कहता की आप साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं। यही नेता जी प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखने का हक़ उसी वक़्त खो देते हैं जब वो कहते हैं कि मैं मरते दम तक मुसलामानों का भला करूंगा। आप यदि प्रधानमंत्री बनाने का सपना संजोते हुए यह बयान देते कि मैं मरते दम तक देशवासियों का भला करूंगा तो राष्ट्रीयता और धर्मनिर्पेक्षता के पक्ष में यह बयान ज्यादा शोभा देता। इन्ही नेता जी के पास निहत्थे कारसेवकों पर चलवाने के लिए तो गोलियां थीं परन्तु जब रक्षामंत्री बने तो शायद कश्मीर में सक्रिय उग्रवादियों के लिए इनकी गोलियां खत्म हो गयीं थीं या इन्हे साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडितों में वोट बैंक नज़र नहीं आया कि उन्हें वापिस उनके घरों में बसा देते। चूँकि आज इन कश्मीरी पंडितों के वोट मायने नहीं रखते इसलिए किसी भी तथाकथित साम्प्रदायिक अथवा धर्मनिरपेक्ष दलों को इनकी न दुर्दशा दिखती है न ही यह 19 जनवरी को अपनी रैलीओं अथवा अधिवेशनों में मुद्दा बनाते हैं। अजब है यह देश जहाँ का कानून कहता है कि चाहे सौ गुनहगार बच जाएँ लेकिन एक बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी शायद इसीलिए कुछ सौ उग्रवादियों को इस लिए नहीं मारा जा सकता कि जो साढ़े तीन लाख लोग बेघर हो कर अपने ही देश में शरणार्थियों कि ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं उन्हें उनके घर मिल जायेंगे।
जिस तरह आप सोते हुए व्यक्ति तो जगा सकते हैं लेकिन सोने का नाटक करने वाले को आप जगा नहीं सकते उसी तरह वोट की राजनीति में अंधे तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष राजनीतिज्ञों को आप 6 दिसम्बर भुलवा नहीं सकते और आज़ाद भारत के सबसे काले अध्याय 19 जनवरी को याद करवा नहीं सकते। जिन साढ़े पांच सौ वर्ष पुरानी दमनकारी नीतियों के प्रतीक बाबरी मस्जिद के गिरने का अफ़सोस जो धर्मनिर्पेक्ष दल हर वर्ष करते हैं, इतिहास उन्हें ही कश्मीरी पंडितों की ढाई हज़ार वर्ष पुरानी सभ्यता और संस्कृति को मिटाने के लिए ज़िम्मेदार ठहरायेगा। आज से सात सौ वर्ष पहले भी हिंदुस्तान के कमज़ोर शासक प्रजा को लुटेरों की दमनकारी नीतियों से नहीं बचा पाये थे और आज के सत्तालोलुप शासक भी इतिहास के पन्नों कायर और कमज़ोर कहलायेंगे जो एक नस्ल को मिटते हुए देखते रहे लेकिन अतातायिओं के खिलाफ इस लिए कार्यवाही नहीं की क्यूँकि इस से उनके धर्मनिर्पेक्ष होने का तमगा छिन जाता।
विवेक मिश्र
विवेक मिश्र