बुधवार, 29 जनवरी 2014

6 दिसम्बरकी साम्प्रदायिकता बनाम 19 जनवरी की धर्मनिरपेक्षता

  6 दिसम्बरकी साम्प्रदायिकता  बनाम 19  जनवरी की धर्मनिरपेक्षता 

इस लेख को लिखने से पहले मैंने 19 जनवरी को पूरा दिन आँखें गड़ा कर सभी न्यूज़ चैनल बहुत गौर से देखे।  शिद्दत से 20 जनवरी के समाचार पत्रों का इंतज़ार किया कि पूरे देश में 19 जनवरी के सन्दर्भ में किस नेता या किस राजनितिक दल ने क्या कहा।  इत्तेफाक से इसी दिन भाजपा की कार्यकारिणी में मोदी बोले सुषमा स्वराज बोलीं राजनाथ सिंह बोले इससे पहले कांग्रेस की राज्यइकाइयों की बैठक में राहुल गांधी बोले मणिशंकर अय्यर बोले सलमान खुर्शीद बोले।  लखनऊ में आयोजित " साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाम की प्रतिध्वनि " में बृंदा करात बोलीं। केजरीवाल भी बोले और उनके अतिप्रतिभावान मंत्री सोमनाथ भारती भी बोले।  समाज और नेताओं को अपने पैमाने पर सही और गलत नापने वाला मीडिया भी बोला। सब ने सब कुछ कहा पर नहीं कहा तो 19 जनवरी और 19 जनवरी 1989 पर कुछ नहीं कहा। नहीं कहा तो एक भी शब्द आज़ाद भारत के मुंह पर कालिख पोतने वाली 19 जनवरी 1989 की उस तारीख के बारे में नहीं कहा जिस दिन कश्मीर की तमाम मस्जिदों से हिंदुओं के खिलाफ इतना जहर उगला गया था कि हिंदुओं का सरेराह  कत्लेआम शुरू हो गया था जिसके चलते साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडितों को रातों रात खाली हाथ अपना घर द्वार छोड़ना पड़ा और जो 24 साल से अपने ही देश में विस्थापित हो कर कैम्पों में शर्णार्थियों की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। 
अजब है इस देश की जनता और नेता कि कुछ सौ दंगा पीड़ित परिवारों को चंद दिनों में ही पांच लाख प्रति परिवार के हिसाब से 90 करोड़ का मुआवज़ा बाँट दिया जाता है। अगर सत्ताधारी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव या कुछ मीडिया रिपोर्टों का संज्ञान लें तो दंगापीड़ितों के लिए लगाये गए कैम्पों में रहने वाले आधे से अधिक लोगों को मुआवज़े मुफ्त कपडे और खाने का लालच दे कर स्थानीय नेताओं ने ज़बरदस्ती उन केम्पों में बसाया था। अजब है इस तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष देश का मानवाधिकार आयोग और मीडिया जिसे चार माह के अस्थायी रूप से विस्थापित एक सम्प्रदाय विशेष के उन लोगों का दर्द तो नज़र आ रहा है जो एक परिवार को मिलाने वाले पांच लाख ले कर भी इस लिए कैम्प नहीं छोड़ रहे थे कि उनके परिवार के हर सदस्य को पांच लाख रुपए चाहिए। लेकिन 24 साल से बेघर हुए साढ़े तीन  लाख लोगों का दर्द इन्हे नज़र नहीं आता। अजब हैं इस देश के विदेश मंत्री जिन्हे चार विदेशी महिलाओं से अभद्रता से दो देशों के बीच सम्बन्ध खराब होने की चिंता है पर कश्मीर में 19 जनवरी 1989 के बाद  कितनी महिलाएं बेइज़ज़त हुईं और कितनी अपनी जान और आबरू बचा कर भागीं इस पर सलमान खुर्शीद जी की आज तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। सरकार तब भी केंद्र में कांग्रेस की ही थी और आज भी उसी कांग्रेस की है जिस की वो नुमाइंदगी कर रहे हैं।  
जिस तारीख में पूरी कश्मीर घाटी से धर्म के आधार पर हिंदुओं को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया था वो तारीख किसी भी धर्म निरपेक्ष नेता या साम्प्रदायिकता के खिलाफ आग उगलने वाले राजनितिक दल को याद नहीं रहती। हाँ याद रहती है तो 6 दिसम्बर जिस दिन एक दमनकारी सेनापति द्वारा मंदिर तोड़ कर बनवाई गयी उस मस्जिद को तोड़ दिया था जिसमे नमाज़ भी अदा नहीं होती थी। यह एक सांप्रदायिक शक्तियों का कृत्य था पर जब मंदिर या महात्मा बुद्ध की मूर्ति तोड़ी जाती है चाहें वो घटना लखनऊ कि हो या अफगानिस्तान कि उससे शरारती या तालिबानियों की उद्दण्डता कह कर इतिश्री कर ली जाती है। मुसलमान जब हिन्दू देवी देवताओं के नग्न चित्र बनाता है तो उसके लिए वो कला है इसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले साम्प्रदायिक और संकीर्ण मानसिकता के हो जाते हैं। लेकिन जब कोई विदेशी पैग़म्बर का कार्टून बना देता है तो और उग्र प्रदर्शन भारत में होते हैं तब किसी  धर्मनिरपेक्ष नेता की जबान उन्हें शांत करवाने के लिए नहीं खुलती। अगर गोधरा में सुनियोजित ढंग से कारसेवकों की बोगी जलाई जाती है तो वो धर्मनिर्पेक्षकों की नज़ार में हादसा हो जाता है लेकिन जब उसकी प्रतिक्रिया होती है वो साम्प्रदायिकता हो जाती है।  मुज़फ्फरनगर में जब मुसलमान हिन्दू लड़की को छेड़ने के विरोध में उसके भाई को मार देते हैं और थाने से छोड़ दिए जाते हैं यह नाइंसाफी किसी को नज़र नहीं आती लेकिन उसकी प्रतिध्वनि साम्प्रदायिक हो जाती है। गुजरात में जहां इशरत जहाँ उग्रवादियों के साथ मारी जाती है तो वो इन सब धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए बेक़सूर हो जाती है लेकिन अपनी जान पर खेल कर उग्रवादियों को मारने वालों को मानवाधिकार के सामने मुज़रिमों की तरह अपनी सफाई देनी पड़ती है। भारत का यदि कोई नेता यह कहता है कि वह राष्ट्रवादी हिन्दू है तो सभी राजनीतिक दलों  और मीडिया में आग लग जाती है और दूसरी तरफ मुस्लिमों को खुश करने के लिए एक नेता अपनी एक रैली में डंके की चोट पर कहता है की कारसेवकों पर गोली मैंने चलवाई थी या दूसरी रैली में कहता है कि देश के विकास में सिर्फ किसानों और मुसलमानों का सहयोग है तो एक भी राजनितिक दल या मीडिया यह नहीं कहता की आप साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं।  यही नेता जी प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखने का हक़ उसी वक़्त खो देते हैं जब वो कहते हैं कि मैं मरते दम तक मुसलामानों का भला करूंगा।  आप यदि प्रधानमंत्री बनाने का सपना संजोते हुए यह बयान देते कि मैं मरते दम तक देशवासियों का भला करूंगा तो राष्ट्रीयता और धर्मनिर्पेक्षता के पक्ष में यह बयान ज्यादा शोभा देता। इन्ही नेता जी के पास निहत्थे कारसेवकों पर चलवाने के लिए तो गोलियां थीं परन्तु जब रक्षामंत्री बने तो शायद  कश्मीर में सक्रिय उग्रवादियों के लिए इनकी गोलियां खत्म हो गयीं थीं या इन्हे साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडितों में वोट बैंक नज़र नहीं आया कि उन्हें वापिस उनके घरों में बसा देते। चूँकि आज इन कश्मीरी पंडितों के वोट मायने नहीं रखते इसलिए किसी भी तथाकथित साम्प्रदायिक अथवा धर्मनिरपेक्ष दलों को इनकी न दुर्दशा दिखती है न ही यह 19 जनवरी को अपनी रैलीओं अथवा अधिवेशनों में मुद्दा बनाते हैं। अजब है यह देश जहाँ का कानून कहता है कि चाहे सौ गुनहगार बच जाएँ लेकिन एक बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी शायद इसीलिए कुछ सौ उग्रवादियों को इस लिए नहीं मारा जा सकता कि जो साढ़े तीन लाख लोग बेघर हो कर अपने ही देश में शरणार्थियों कि ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं उन्हें उनके घर मिल जायेंगे।
 जिस तरह आप सोते हुए व्यक्ति तो जगा सकते हैं लेकिन सोने का नाटक करने वाले को आप जगा नहीं सकते उसी तरह वोट की राजनीति में अंधे तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष राजनीतिज्ञों को आप 6 दिसम्बर भुलवा नहीं सकते और आज़ाद भारत के सबसे काले अध्याय 19 जनवरी को याद करवा नहीं सकते। जिन साढ़े पांच सौ वर्ष पुरानी  दमनकारी नीतियों के प्रतीक बाबरी मस्जिद के गिरने का अफ़सोस जो धर्मनिर्पेक्ष दल हर वर्ष करते हैं, इतिहास उन्हें ही कश्मीरी पंडितों की  ढाई हज़ार वर्ष पुरानी सभ्यता और संस्कृति को मिटाने के लिए ज़िम्मेदार ठहरायेगा। आज से सात सौ वर्ष पहले भी हिंदुस्तान के कमज़ोर शासक प्रजा को लुटेरों की दमनकारी नीतियों से नहीं बचा पाये थे और आज के सत्तालोलुप शासक भी इतिहास के पन्नों कायर और कमज़ोर कहलायेंगे जो एक नस्ल को मिटते हुए देखते रहे लेकिन अतातायिओं के खिलाफ इस लिए कार्यवाही नहीं की क्यूँकि इस से उनके धर्मनिर्पेक्ष होने का तमगा छिन जाता।   

                                                            विवेक मिश्र     

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

"आप: कल, आज और कल "

बचपन में  एक कहानी पढ़ी थी, "एक बार  शिवा जी एक युद्ध में हार कर जंगलों में चले गए।  रात बिताने के लिए उन्होंने एक बुढ़िया की झोंपड़ी में शरण मांगी । बुढ़िया उन्हें पहचानती नहीं थी,  उसने उन्हें वहाँ रुकने की  इज़ाज़त दे दी । रात में  खाने के लिए बुढ़िया ने जब गरम गरम खिचड़ी परोसी तो शिवा जी ने जल्दी से खिचड़ी को बीचों बीच से खाने की शुरुआत की । खिचड़ी गरम थी और उनका हाथ जल गया । यह देख कर बुढ़िया बोली तुम भी बिलकुल शिवा जी की तरह हो, बजाये कि एक तरफ से राज्यों पर आक्रमण कर के उन्हें जीतने के बजाय बीचों बीच हाथ डाल दिया और जल गए । शिवा जी ने मन ही मन में उस बुढ़िया की  बात को गाँठ में बांध लिया और इस नीति पर चलते हुए वह एक दिन "छत्रपति शिवाजी" बने.'' शायद यह कहानी या तो अरविन्द केजरीवाल ने सुनी नहीं या एक ही जीत ने उन्हें इतना महत्वाकांक्षी बना दिया कि "आप" पार्टी ने न सिर्फ इस वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों में हिस्सा लेने की बल्कि सभी दलों के प्रमुख राजनेताओं के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा कर दी। 
इस पूरे घटनाक्रम में "आप" के जनक और सलाहकार शायद यह भूल गए कि दिल्ली एक राज्य होते हुए भी सिर्फ एक बड़ा शहर है और दिल्ली नाम के इस खेत में  जो फसल " आप" ने काटी है उसके लिए हल अन्ना ने ढाई साल पहले भूखे रहकर और जेल जा कर चलाया था। अगर दो साल पहले सितम्बर 2011 में कांग्रेस ने हठधर्मिता का परिचय न देते हुए अन्ना के जनलोकपाल को तब पारित कर दिया होता तो न तो कांग्रेस की  यह दुर्दशा होती न ही "आप" पैदा होती। वैसे तो पूरा देश ही भ्रष्टाचार से त्रस्त है और इससे मुक्ति चाहता है पर देश में जब भी कोई राष्ट्रीय मुद्दा उठता है तो उसे सुलझाने के लिए दिल्ली ही कर्मक्षेत्र बनता है। चाहें अन्ना का आंदोलन हो या रामदेव  का;  उसमे जान तो दिल्ली की  जनता ही फूंकती है। भ्रष्टाचार से आन्दोलित जनता को दिल्ली में ही "निर्भया काण्ड" और "गीतिका-गोपाल कांडा" का मुद्दा  भी मिल गया जिसने पूरी दिल्ली को धर्म  और वर्ग से ऊपर उठा कर एक समुदाय में बदल दिया जिसे वर्त्तमान सरकार  से नफरत हो गयी थी.।  वो एक ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ व्यवस्था चाहती थी।
यदि हम "आप" को बिना किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो कर देखें तो आप ने एक ईमानदार और आदर्श सरकार का ख्वाब जनता को दिखाया। चुनाव जीतने के लिए मुफ्त पानी सस्ती बिजली वी.आई.पी कल्चर से निजात और न जाने क्या क्या वायदे कर डाले। इसी लहर  पर सवार हो कर "आप" एक बड़े दल के रूप में उभरी भी। सरकार बनने पर मुख्यमंत्री   ने शर्तों के साथ वायदों को घोषणाओं में तब्दील कर दिया। आम आदमी का भला करने चली "आप"ने कहने को तो मुफ्त पानी दे दिया, बिजली सस्ती कर दी परन्तु एक आई.आर.एस क्वालीफाईड व्यक्ति  ने एक बार भी जनता को यह नहीं चेताया की कोई भी चीज़ वाकई मुफ्त नहीं मिलती।  सरकार जो इसकी कीमत चुकाती  है वो बजट में कहीं न कहीं वित्तीय घाटे  के रूप में नज़र जरूर आती है और इसी घाटे को पूरा करने के लिए सरकार हर वर्ष आम आदमी पर नए कर का बोझ लाद देती है या पेट्रोल डीज़ल या रसोई गैस के दाम बढ़ा देती है।  
केजरीवाल एण्ड पार्टी ने अपनी मुहीम तो भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू की थी पर वो अपने को न तो राजनीति में आने से रोक सके न ही इसकी गंदगी को अपनाने से रोक सके।  चुनाव जीतने में कोई कसर न रह जाये इस लिए विवादस्पद मुस्लिम नेताओं से समर्थन लिया।  सत्तारूढ़ होने के लिए लोकलुभावन वायदे किये। यदि  "आप" अपने वायदे पूरे भी करेगी तो किसकी जेब से और किस कीमत पर।  यदि विभिन्न समाचार पत्रों की रिपोर्ट पर या अन्य राजनीतिक दलों की मांग पर जाएँ तो "आप" तो अपनी दुकान विदेश से विशेषकर 'फोर्ड फाउंडेशन' से मिलने वाले चंदे से चला लेगी पर देश चलाने के लिए तो आम आदमी की जेब से पैसा निकालेंगे ना ।  यह यक्ष प्रश्न सिर्फ "आप" पार्टी से नहीं है बल्कि बसपा से भी है जिसने जनता की गाढ़ी कमाई के 6000 करोड़ रुपये प्रदेश के उत्थान में लगाने की बजाए स्मारक बनवाने में लगा दिए जिसमे से 1400 करोड़ घोटाले के रूप में कलियुगी देवी देवताओ की बलि चढ़ गए।सपा किसके पैसे से 15 लाख लैपटॉप बंटवा रही है। दक्षिण में डी.एम.के तमिलनाडु में 40 लाख टीवी शर्तिया अपने पार्टी फण्ड से नहीं बांटेगी या कांग्रेस सवा लाख करोड़ खाद्य सुरक्षा योजना के लिए किसकी कमाई से निकालेगी। सत्ता में आने और अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए ये राजनीतिक  दल किस तरह से देश को खोखला कर रहें है कि हर कदम पर टैक्स देने के बावज़ूद यदि इसी आम आदमी को शहर के बीच लघुशंका का समाधान करना पड़ जाये तो उसे हर बार शौचालय का प्रयोग करने के लिए दो से पांच रुपये देने पड़ते हैं। एक आम आदमी इन्कम टैक्स देने के बाद अपनी जरूरत की हर खरीद पर 12 से 15% सेल्स टैक्स, सर्विस टैक्स ,आबकारी टैक्स या वैट अदा करता है। किसलिए कि सरकार अपना खर्च चला सके या उसकी गाढ़ी कमाई को सत्ता में बने रहने के लिए मुफ्त में लुटवा सके। "आप" से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वो भी आम आदमी का कांग्रेस की तरह ही लेकिन परिष्कृत ढंग से शोषण और दोहन करेगी।  
खैर इस मुफ्त पानी सस्ती बिजली और एफ.डी.आई में विदेशी निवेश के विरोध की लहर पर जो जीत हासिल हुई उसमे "आप" यह भूल गयी कि यह उसकी एक राज्यनुमा शहर में दो साल की हलजुताई का नतीज़ा है और इसकी पृष्टभूमि की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं । "आप" की इस अप्रत्याशित जीत से पूरा देश अचंभित,खुश और उदास है।  जिसकी जैसी निष्ठा है वैसी ही उसकी प्रतिक्रिया है।  आप भी अपनी इस जीत से जोश में भर गयी। यहाँ तक तो ठीक था परन्तु सफलता यदि किसी के सर पर चढ़ कर बोलने लगे तो यह ठीक नहीं है। वर्त्तमान में आप के मंत्रियों के कृत्यों और बयानों से लगने लगा है कि ये सफलता को पचा नहीं पा रहे हैं। सफलता के नशे में चूर आप का थिंक टैंक भारत के मतदाताओं और राजनीति का इतिहास भूल गया जहाँ एक लहर  आपातकाल के बाद आयी थी जिसने कांग्रेस को इसी तरह उखाड़ फेंका था। एक लहर आंध्र  में रामाराव की आयी थी जब आंध्र से कांग्रेस साफ़ हो गयी थी। उस समय भी कई सत्तालोलुप बिन्नी पैदा हो गए थे और देश को मध्याविधि चुनाव देखने पड़े थे। "आप" ने भी एक लहर के सहारे जीत तो देख ली है और उसमें विनोद बिन्नी, और टीना शर्मा के रूप में विद्रोह भी शुरू हो गया है।  
 मुख्यमंत्री बनने के पंद्रह दिन के भीतर बिना किसी पूर्वानुमान के अधकचरी तैयारी के साथ खुले दरबार का आयोजन और फिर जनता से पीछा छुड़ाकर भागना  'आप' की  मानसिक परिपक्वता और दूरदृष्टि पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।  सत्ता ग्रहण करने के 15 दिन के भीतर ही इनके मंत्री जिस तरह कि उच्श्रंखलता का परिचय दे रहे हैं या  देशहित को दरकिनार कर बयानबाजी कर रहे हैं, वह इनकी आंतरिक अनुशासनहीनता दर्शाता है। दिल्लीवालों की जो समस्याएं 67 वर्षों में पल-बढ़कर जवान हुई हैं, उसे यदि 'आप' जनता दरबार लगाकर हैरी पॉटर की छड़ी हिलाकर दूर करने की ग़लतफ़हमी पाले हुए हैं; तो   यकीन मानिये दिल्लीवालों का मोहभंग होने में भी ज्यादा समय नहीं लगेगा।"आप" ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए जो लड़ाई जीती थी, उसी के तहत यदि भ्रष्ट व्यवस्था  को सही करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता तो आम आदमी कि समस्याओं का निदान अपने आप ही हो जाता। यदि दिल्ली सरकार में सभी विभागों की उनके उत्तरदायित्वों के प्रति जवाबदेही तय कर दी जाती,भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को आप ने अपने आंदोलन के दौरान उठाया था उन पर कार्यवाही की जाती या पूरी दिल्ली की जनता को अपने दरबार में बुलाने की अपेक्षा जैसे आप वोट मांगने जनता के दरवाजे पर गए थे वैसे ही क्षेत्रवार समस्याएं समझने के लिए क्षेत्रों और सम्बंधित विभागों का औचक निरीक्षण किया होता तो निश्चित रूप से जैसा आप कह रही थी करने में सफल होती।  वैसे एक महीने में किसी भी सरकार के कार्यों की समीक्षा करना उसके साथ सरासर अन्याय होगा। परन्तु जिस तरह के निर्णय आप के मंत्री ले रहे हैं या विवादों में पड़ रहे हैं यह आप कि अपरिपक्व मानसिकता और अनियोजित कार्यशैली दर्शाता है।  
बात शुरू हुई थी आप कि जीत के जोश में होश खोने से।  अभी एक छोटे से राज्य का ठीक से सञ्चालन करने की स्थिति में आये  नहीं है और महतवकांक्षाएं हो गईं 300 सीटों पर  लोकसभा चुनाव लड़ने की। सम्भव है लोकसभा चुनावों से सम्बंधित कागज़ी तैयारी आप ने कर ली हो ,परन्तु इतिहास और बिन्नी प्रकरण से आप को यह आभास हो जाना चाहिए कि इस जीत की लहर में आपसे इस वक्त जो लोग जुड़ रहे हैं उन में से 50% लोग मौकापरस्त और हवा के साथ रुख बदलने वाले हैं। यदि ईमानदारी से देखें तो अधिकांश राज्यों में "आप" के संगठन के कार्यालय भी नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भी यदि आप लोकसभा चुनाव लड़ना चाह रही है तो तीन बातें ही समझ में आती हैं। एक,आप देश को एक अस्थिर सरकार या त्रिशंकु लोकसभा की तरफ धकेल रही है। दूसरे आप कांग्रेस जिसने चुनाव से पहले ही अपनी हार मान ली है के एजेंट के रूप में मतदाताओं को भ्रमित करने की भूमिका अदा करने जा रही है। और तीसरे आप वाकई फोर्ड फाउंडेशन द्वारा दिए जा रहे अनुदान का क़र्ज़ एक अस्थिर भारत के रूप में अदा करने जा रही है। 
चुनावी परिणाम कुछ  भी आयें लेकिन नुक्सान देश, आम आदमी और आप का ही होगा। अस्थिर सरकार बनने से देश उसी गति से चलेगा जिस से देश की जनता निजात पाना चाहती है। स्पष्ट और निर्णायक जनमत न आने की स्थिति में दुबारा चुनाव सम्भव हैं जिसके खर्चे का वहन आम आदमी को ही करना पड़ेगा। संगठनात्म्क और राजनीतिक रूप से आप अभी इतनी मज़बूत नहीं है कि किंग मेकर की भूमिका में आ जायेगी,हाँ कांग्रेस के शिखंडी का तमगा आप को ज़रूर मिल जायेगा। 
जिस तरह से देश के विभिन हिस्सों से आप में विद्रोह के स्वर उठने लगें हैं तो यही लग रहा है कि शहर बसा नहीं और लुटेरे चले आये। यदि आप पूरे देश के वोटिंग पैटर्न को दिल्ली कि तर्ज़ पर देख रही है तो उसकी यह ग़लतफहमी भी जल्दी ही दूर हो जायेगी। क्योकि आज भी देश कि अधिकांश जनता जाती, धर्म और व्यक्तिगत  निष्ठा के नाम पर वोट डालती है।  अन्यथा न तो चुनावों से चार महीने पहले कांग्रेस जाटों को आरक्षण देती ,न अपनी सावधान रैली में माया वती दलित लड़की के लिए वोट मांगती, न ही मुलायम सिंह और नितीश कुमार अपने बजट में मुस्लिमों के नाम पर भरी भरकम प्रावधान करके आला पदों पर मुस्लिमो की नियुक्ति करते। 
इन सब बातों को मद्देनज़र रखते हुए यदि फिर भी "आप" 2014 के लोकसभा चुनाव लड़ती है तो सिर्फ एक बात ही कही जा सकती है कि धैर्य  रखिये ईमानदारी से अपने व्यवस्था परिवर्तन के लक्ष्य को उपार्जित करके दिखाइये, 2019 बहुत दूर नहीं है। अन्यथा आप कल तक एक आंदोलनकारी के रूप में सड़क पर थी। आज अपनी मर्ज़ी से सड़क से सरकार चलाना चाह  रही है लेकिन अपनी महत्वाकांछा और हठधर्मिता में आप का आंकलन गलत न हो जाये।  ऐसी स्थिति में आप जनता की मर्ज़ी से सड़क पर होगी। 
                                                                 विवेक मिश्रा 

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

कश्मीर में जनमत संग्रह का दुराग्रह

                                   कश्मीर में जनमत संग्रह का दुराग्रह 

वर्ष 1900 में जम्मू कश्मीर में 10 लाख हिन्दू और कश्मीरी पण्डित रहते थे जोकि 1947 से 1989 के बीच 4.5 लाख रह गये और फिर 19 जनवरी 1989 को कश्मीर की मस्जिदों से ऐलान हुआ कि हिन्दुओं, अपनी औरतें और लड़कियों को छोड़कर चले जाओ वर्ना मार दिये जाओगे। मस्जिदों से इतने भड़कीले भाषण हुए कि सरेराह हिन्दु मारे जाने लगे और आज की तारीख में सिर्फ और सिर्फ 20000 से भी कम हिन्दु कश्मीर में रह गये। कश्मीर घाटी में रामबन से आगे खन्नाबल अनन्तनाग से श्रीनगर और श्रीनगर से सोफियाँ, सोफियाँ से सूरनकोट होते हुए पूंछ में एक तरफ से जले हुए घर, खाली पड़ी हुई बस्तियां इस बात की चश्मदीद गवाह है कि किस तरह से कश्मीरी पण्डितों और हिन्दुओं को मार कर भगाया गया, जो आज अपने ही देश में शरणार्थी होकर रह गये। 24 साल गुजरने को है और उनका आज तक कोई जनमत संग्रह नहीं किया गया। 24 साल गुजरने को है वे आज भी दिल्ली और जम्मू के कैम्पों में शरणार्थियों की जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं। 
5 जनवरी 2014 को ही कश्मीर के मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से माना कि कश्मीरी पण्डितों के साथ अन्याय हुआ है और हम उन्हें कश्मीर घाटी में वापिस लाने में सुरक्षा की दृष्टि से सक्षम नहीं हो सके। यदि सुरक्षा बल न हो तो सम्भव नहीं कि आप (कोई हिन्दु) अमरनाथ जी, क्षीर भवानी या शंकराचार्य जी के मंदिर के दर्शन कर पाये। 
इन सबके ऊपर प्रशान्त भूषण जी का एक वर्ष में दूसरी बार कश्मीर में सुरक्षा जवानों की तैनाती को लेकर जनमत संग्रह करवाने का वक्तव्य आता है। ये प्रशान्त भूषण जी उस राज्य में सेना की तैनाती को लेकर जनमत संग्रह करवाना चाहते हैं जहाँ श्रीनगर के लाल चौक पर भारतीय तिरंगा फहराना तो दूर, पिछले माह ही एक फिल्म की शूटिंग के लिए तिरंगा नहीं फहराया जा सका। प्रशान्त भूषण जी का यह बयान बन्द कमरे से उन लोगों से लिए आदर्शवादी लोकतन्त्र का ख्याल है जो लोग भारतीय लोकतन्त्र और संविधान में आस्था ही नहीं रखते। यदि प्रशान्त जी ने कभी आम कश्मीरी से बात की होती तो उन्हें पता चलता कि कश्मीरी जब बोलते है तो यही बोलते हैं कि ‘‘आपकी हिन्दुस्तानी सरकार ने हमारे साथ ये नाइन्साफी की या हमारे साथ वो नाइन्साफी की।’’  66 वर्षो बाद भी वो भारत को अपना भारत नही कहते। ऐसे जनसमूह के जनमत संग्रह के क्या नतीजे आयेगें, वही जो वहाँ के अलगाववादी और पाकिस्तान परस्त लोग चाहते हैं और अब इस बात को प्रशान्त जी समझना नहीं चाहते। समझें भी तो कैसे क्योंकि उनके वकालत के पेशे ने उनसे हमेशा सच को झूठ और झूठ को सच साबित करवाया है और यही उनके अवचेतन मन की मानसिकता बनकर रह गया है कि वे पिटने के बावजूद कश्मीर में जनमत संग्रह की बात करने लगते हैं। 
आपने यदि जनमत संग्र्रह की बात ही करनी थी तो फिर कश्मीर में जनमत संग्रह न कहकर भारत में कश्मीर पर जनमत संग्रह की बात की होती तो पूरा देश आपके साथ होता। यदि आप जनमत संग्रह की बात करते है तो सिर्फ कश्मीर मुद्दे पर ही क्यों? क्या श्रीलंकाई तमिलों के हालात बहुत अच्छे हैं? या जिन तिब्बती शरणार्थियों को भारत ढो रहा है उनके देश में आपकी सुनवाई नहीं है। यदि आप जनमत के इतने पक्षधर हैं तो अपने देश के तमाम मुद्दों जैसे राम और कृष्ण जन्मभूमि, समान नागरिकता कानून, आरक्षण, कावेरी जल विवाद, आर्टिकल 370, हिन्दी का राष्ट्रभाषा होते हुए भी राजभाषा न होना। इन मुद्दो पर जनमत संग्रह का मशविरा क्यों नहीं देते। क्या ‘निर्भया’ काण्ड में आपको जनमत संग्रह नजर नहीं आया था, तब क्यों अदालत में एक साल तक मुकदमा चला।
धारा 377 पर भी तो जनसमूह उमड़ा था तो क्या समलैंकिगता को जायज ठहरा दिया जाये? आप 1983 पंजाब में जनमत संग्रह करवाते, दो दिन में खालिस्तान बन जाता ।  आप उस कश्मीर में जनमत संग्रह की बात कर रहे हैं जिसे शान्त बनाये रखने के लिए पिछले दस वर्षों में 6000 करोड़ रूपये खर्च हो चुके हैं। आज भी यदि कोई स्थानीय कश्मीरी किसी भी प्रकार से भारतीय सरकार या फौज की सहायता करता है तो उग्रवादी उसके हाथ पांव काट देते हैं उसके घर की महिलाओं के साथ रोज बलात्कार किया जाता है। मई 2008 के अपने एक ब्लाग में वर्तमान मुख्यमंत्री श्री उमर अब्दुल्ला ने लिखा कि जब हिन्दुओं के साथ अत्याचार हो रहा था तो मैं तो यहाँ नहीं था लेकिन मेरे दोस्तों ओर जानकारों ने बताया कि यह जानते हुए भी कि अन्याय हो रहा है किसी ने उग्रवादियांें के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की थी। खाली हाथ हिन्दु रातों रात अपनी जमीन जायदाद छोड़कर चले गये। क्या आपका जनमत संग्रह उन्हंें उनकी जानमाल और आबरू की गारण्टी देते हुए उन्हीं के कश्मीर में लुटी हुयी जमीन जायदाद वापिस दिलवा पायेगा।
आप किस लिहाज से कश्मीर में सुरक्षा बलों को हटाने के लिए जनमत संग्रह की बात कर रहें हैं। यदि सुरक्षाबल हटा लिए गये तो कश्मीर में बचे खुचे अल्पसंख्यक हिन्दु भी बेमौत मारे जायेगें जैसा कि किश्तवाड़ में 9 अगस्त 2013 को हुआ। एक बार को स्थानीय नागरिकों की और कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी की चिन्ता को छोड़ दे, तो आप चाहते हैं कि देश की अखण्डता को आप जैसे लोगों की सनक के हवाले कर दिया जाये। वैसे भी 1947 से लेकर 2013 तक एक भी सरकार ने वोट बैंक की राजनीति के चलते कभी इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, वर्ना जो सेना 1971 में एक नया देश बना सकती है, खालिस्तान के सपने को खाक में मिला सकती है, क्या वो एक राज्य को सही नहीं कर सकती?, कर सकती है लेकिन जब जगमोहन सरीखा गर्वनर कुछ करना चाहता है तो उसे मानवाधिकारों की दुहाई पर 4 माह में हटा दिया जाता है।
इस समस्या के बीज सत्ता लोलुप शेख अब्दुला और हरि सिंह के जमाने के बोये हुए हैं। प्रशान्त जी इस समस्या की मानसिकता को समझने के लिए आपको शेरे-कश्मीर तथा वर्तमान मुख्यमंत्री के दादा शेख अब्दुल्ला की आत्मकथा - ‘‘आतिशे-चिनार‘‘ पढ़नी पढ़ेगी जिसमें उन्होंने लिखा है कि कश्मीरियत मुस्लिम धर्म को कट्टरता से मानने के लिए एक हिज़ाब है। उन्होंने कश्मीरी पण्डितों को तीन विकल्प दिये थे रालिव (धर्म परिवर्तन), गालिव (मौत को अंगीकार कर लो) तथा चालिव (कश्मीर छोड़ दो)। हो तो सब कुछ वैसे ही रहा है जैसा शेख साहब ने चाहा, क्योंकि उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला और पौत्र उमर अब्दुल्ला ने अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में कोई ऐसा कदम नही उठाया जिससे उनके दादा की सोच गलत प्रतीत होती। हाँ Land Tillar Act जरूर पास करवा दिया जिसके तहत वहाँ कि हिन्दु जमींदारों की जमीन उन जमीनों पर काम करने वाले मजदूरों की हो गई। आज जब बिहारी मजदूर उसी जमीन पर काम करते हैं ते वे मजदूर ही रहते हैं।
प्रशान्त जी, कश्मीर में अल्पसंख्यक जिन्दा रहें तथा कश्मीर भारत के लिए और सिरदर्द न बने, इसलिए एक आम आदमी की तरह इस तरह की छोटी सोच को कृपया अपने तक ही सीमित रखे। जनमत संग्रह की बात वही करते हैं जिन्हें सही अथवा गलत में संशय होता है अथवा सही एवं कठोर निर्णय लेने की क्षमता  नहीं होती।

"क्या वाकई मोदी विनाशकारी है"?

                                           क्या वाकई मोदी विनाशकारी है?

प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह का बयान कि मोदी का प्रधानमंत्री बनना विनाशकारी होगा न सिर्फ उनकी बन्द कमरे के अन्दर की सोच, जोकि वास्तविकता से काफी दूर है, दर्शाता है बल्कि जयचन्द और विभीषण की याद दिलाता है। वे अपने ही देश के सिर्फ लोकतान्त्रिक तरीके से चुने हुए अपितु आज की तारीख में अत्यन्त लोकप्रिय नेता के लिए ऐसा बयान दे रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ पाकिस्तान जो लगातार डंके की चोट पर भारतीय जवानों के सिर काट रहा है, चीन जो आये दिन सीमा उल्लंधन कर रहा है, अमेरिका जो राजनायिकों का बेइज्जत कर रहा है उन सबसे प्रधानमंत्री जी दोस्ताना सम्बन्ध बनाने को आतुर प्रतीत होते हैं।
यदि मनमोहन सिंह जी के बयान का कायदे से मनन किया जाये तो दो बातें सामने आती हैं। एक, हाँ मोदी विनाशकारी हैं, किन्तु देश के लिए नहीं कांग्रेस के लिए। जैसा विनाश कांग्रेस का इन विधानसभा चुनावों में हुआ है तो मनमोहन जी ही नहीं अपितु कांग्रेस और जनसामान्य यह मानता है कि मोदी ने वाकई कांग्रेस का इन राज्यों में विनाश कर दिया। दूसरी बात यदि मनमोहन जी से ही पूछा जाये कि विगत 60 वर्षों में जो देश का विनाश इस कांग्रेस के नेताओं ने किया है उसकी और ज्यादा दुगर्ति क्या मोदी तो क्या कोई अनपढ़ या गंवार व्यक्ति भी नहीं कर सकता। मनमोहन जी कैसे भूल गये कि चीन और पाकिस्तान से सीमा विवाद कांग्रेस की देन है। देश में लहलहाता हुआ भ्रष्टाचार कांग्रेस की गोद मे पला बढ़ा है। देश में लचर कानून व्यवस्था कांग्रेस की अकर्मण्य नीतियों की देन है। आज समाज को कानून का कोई भय नहीं रह गया है। बलात्कार, रिश्वतखोरी और आतंकवादी गतिविधियां कोई भी कहीं भी बेखौफ कर जाता । यदि श्री प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति न बनते तो ये कांग्रेस अफजल गुरू और अजमल कसाब को तब तक पालती जब तक उन्हें छुड़ाने के लिए कोई और विमान हाईजेक न हो जाता।
देश के अन्दर राज्य पानी और सीमाओं के लिए लड़ रहे हैं  और कांग्रेस बंग्लादेश को पानी और जमीन देने की बात करती है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री खुद रूपये के अवमूल्यन को रोक नहीं पाये ओर मोदी को विनाशकारी को मैडल दे रहे हैं।
सिर्फ और सिर्फ 2002 के गुजरात दंगों की लाश को अपने कन्धों पर ढोकर भाजपा और मोदी को निशाना बनाने वाली कांग्रेस इस बात से कैसे मूंद सकती है कि गुजरात दंगे सुनियोजित गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया न सिर्फ थे बल्कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति में कांग्रेस ने बहुसंख्यक हिन्दुओं को उन्ही के देश में राम को पूजने से रोक रखा है का परिणाम थे। अफसोस तो इस बात का है कि अदालत के निर्णय आने के बाद श्री मनमोहन सिंह ने अदालत की गरिमा को  ताक पर रख दिया। क्या गुजरात दंगों से पहले या बाद में भारत मंें कभी दंगे नहीं हुए, तो उन राज्यों के मुख्यमंत्री विनाशकारी क्यांे नहीं कहे गयंे। पिछले दो वर्षों में उत्तर प्रदेश में दंगे हुए, असम में दंगे हुए, किश्तवाड में दंगे हुए, क्यों यहाँ के मुख्यमंत्रियों  को मानवाधिकार आयोग, स्वयंसेवी संगठन और मीडिया कठघरे में खड़ा नहीं करता।
यदि एक गुजरात दंगों की वजह से मोदी विनाशकारी कहे जा सकते हैं तो कांग्रेस अपने लिए उपर्युक्त शब्द का चयन करें क्योंकि 1947 से अब तक भारत में 13000 से अधिक दंगों में 75000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। अपने सहयोगी सपा के लिए भी कोई शब्द चुनें जिसके वर्ष 2013 के शासन काल में ही उत्तरप्रदेश में 250 दंगे हुए जिसमें 95 लोगों की जान गई तथा 313 लोग घायल हुये। ये कोई मीडिया की रिपोर्ट नहीं है। बल्कि गृह राज्यमंत्री आइ0पी0एन0 सिंह का लोक सभा में बी0 मेहताब तथा अन्य सदस्यांे द्वारा पूछे गये सवाल का लिखित जवाब है।
मोदी को विनाशकारी कहने से पहले शर्म तो सिख होते हुए मनमोहन सिंह जी को आनी चाहिए कि वे उस कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जिसने 1984 में सिर्फ दिल्ली में 2733 सिख मारे गये, पूरे देश में जो सिखों के जानमाल का नुकसान हुआ उसका कोई आंकलन नही है, और वही कांग्रेस आज भी अपने रसूख से सज्जन कुमार और जगदीश टाईटलर को बचाने की कोशिश में लगी है। जब कांग्रेस की नेता मरीं, तब तो यह तर्क मान्य हो गया कि ‘‘जब भी बड़ा पेड़ गिरता है, तो हलचल तो होती ही है’’ वही तर्क गोधरा काण्ड के बाद गुजरात दंगों के लिए मान्य क्यों नहीं। गुजरात दंगे भी सुनियोजित गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया थे, और यह प्रतिक्रिया भी लम्बे समय से मुस्लिम तुष्टिकरण की उपज थी। हाईकोर्ट के फैसले के बाद मनमोहन जी को या तो ईमानदारी से नरेन्द्र मोदी को विनाशकारी सम्बोधित नहीं करना चाहिए था या उन्हें 1977 में आपातकाल में संजयगांधी द्वारा दिल्ली मंे निजामुद्दीन इलाके में अल्पसंख्यकों के विरूद्ध चलाये गये बुलडोजर याद कर लेने चाहिए थे।
बहुत अफसोस होता है कि जब मुजफ्फरनगर या असम में दंगे होते हैं तो आप या आपके नुमाइन्दे पीड़ितों का हाल जानने के लिए व्यक्तिगत रूप से मुआयना करते हैं। हर तरीके से उन्हें मुआवजा  दिया जाता है। किन्तु जब किश्तवाड़ में वहाँ के स्थानीय विधायक सज्जाद अहमद किचलू की मौजूदगी में दंगें होते हैं तो आपकी या अन्य किसी सेक्यूलर पार्टी का एक भी सदस्य पीड़ितों को मुआवजा देना तो दूर, उनका हाल पूछने की जहमत भी नहीं उठाते। बल्कि दंगों में संलिप्त विधायको और मौलानाओं को क्लीन चिट देकर लालबत्ती दी जाती है। और तो और सपा के मुख्यमंत्री तो रचनात्मकता की इस हद तक जा रहें है कि दंगों के लिए जिम्मेदार भड़काऊ भाषण देने वालों मौलानाओं के मुकदमें वापिस लेने की संस्तुति कर रहें हैं। एक सम्प्रदाय को हर तरफ से तुष्ट करके समाज में विद्वेष के बीज बोने वाले ये कृत्य क्या आपको सृजनात्मक नजर आते हैं?
क्या किश्तवाड़ में मरने वाले वहाँ के अल्पसंख्यक हिन्दु इन्सान नहीं हैं, या असम में जिन स्थानीय हिन्दुओं की जमीनों पर आपका बंग्लादेश्ी मुस्लिम वोट बैंक कब्जा कर रहा है उनके मानवाधिकार नही है या मुजफ्फरनगर में हिन्दु लड़कियों की इज्जत इशरत जहाँ से कम है।
आज मोदी तथा कथित सेक्यूलरवादी पार्टियों कि आंख की किरकरी इसलिए बने क्योंकि एक तरफ उनके सुशासन में विपक्षी कोई खामी नहीं निकाल पा रहे और मोदी बहुसंख्यकों की प्रगतिशील भावनाओं के अनुरूप हैं तो वे किसी भी विपक्षी दल को विनाशकारी नहीं, विध्वंसकारी ही नजर आयेगें।
यह तो स्पष्ट है कि गुजरात दंगों के लेकर पहले कांग्रेस तथा अन्य दल भाजपा पर वार करते थे, लेकिन कांगें्रस का यही दुष्प्रचार मोदी के लिए वरदान बन गया। कांग्रेस तथा इसके सहयोगी दलों की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों ने बहुसंख्यक हिन्दुओं को यह याद दिला दिया कि पाकिस्तान में तो हिन्दुओं को मरना ही है लेकिन अपने देश में वे दोयम दर्जे के नागरिक होकर रह गये हैं। इसीधर्म के नाम पर कांग्रेस ने पहले देश बंटने दिया। फिर उन्हीं मुस्लिमों को इसी देश में रहने दिया जिनके लिए पाकिस्तान बना था और अब उन्हें अल्पसंख्यकों के नाम पर हर कदम पर अतिरिक्त सुविधा प्रदान करके समाज में ईर्ष्या और विद्वेष के विनाशकारी बीज कांग्रेस या इसके सहयोगी दल ही बो रहे हैं।
यह आप किसी एक समुदाय को पुरस्कृत और दूसरे को तिरस्कृत करेंगे तो स्वाभाविक है उसकी प्रतिक्रिया होगी और आपके इन्हीं कृत्यों से एक नहीं कई मोदी पैदा होगें।
मनमोहन जी यदि आपकी कांग्रेस ने ईमानदारी से 60 वर्षों से वोटबैंक और तुष्टिकरण की राजनीति से ऊपर उठकर शासन किया होता तो आज न आपको मोदी विनाशकारी लगते और ना ही भारत 127 भ्रष्ट देशों की फेहरिस्त में 91वें पायदान पर होता।