मंगलवार, 21 जनवरी 2014

"आप: कल, आज और कल "

बचपन में  एक कहानी पढ़ी थी, "एक बार  शिवा जी एक युद्ध में हार कर जंगलों में चले गए।  रात बिताने के लिए उन्होंने एक बुढ़िया की झोंपड़ी में शरण मांगी । बुढ़िया उन्हें पहचानती नहीं थी,  उसने उन्हें वहाँ रुकने की  इज़ाज़त दे दी । रात में  खाने के लिए बुढ़िया ने जब गरम गरम खिचड़ी परोसी तो शिवा जी ने जल्दी से खिचड़ी को बीचों बीच से खाने की शुरुआत की । खिचड़ी गरम थी और उनका हाथ जल गया । यह देख कर बुढ़िया बोली तुम भी बिलकुल शिवा जी की तरह हो, बजाये कि एक तरफ से राज्यों पर आक्रमण कर के उन्हें जीतने के बजाय बीचों बीच हाथ डाल दिया और जल गए । शिवा जी ने मन ही मन में उस बुढ़िया की  बात को गाँठ में बांध लिया और इस नीति पर चलते हुए वह एक दिन "छत्रपति शिवाजी" बने.'' शायद यह कहानी या तो अरविन्द केजरीवाल ने सुनी नहीं या एक ही जीत ने उन्हें इतना महत्वाकांक्षी बना दिया कि "आप" पार्टी ने न सिर्फ इस वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों में हिस्सा लेने की बल्कि सभी दलों के प्रमुख राजनेताओं के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा कर दी। 
इस पूरे घटनाक्रम में "आप" के जनक और सलाहकार शायद यह भूल गए कि दिल्ली एक राज्य होते हुए भी सिर्फ एक बड़ा शहर है और दिल्ली नाम के इस खेत में  जो फसल " आप" ने काटी है उसके लिए हल अन्ना ने ढाई साल पहले भूखे रहकर और जेल जा कर चलाया था। अगर दो साल पहले सितम्बर 2011 में कांग्रेस ने हठधर्मिता का परिचय न देते हुए अन्ना के जनलोकपाल को तब पारित कर दिया होता तो न तो कांग्रेस की  यह दुर्दशा होती न ही "आप" पैदा होती। वैसे तो पूरा देश ही भ्रष्टाचार से त्रस्त है और इससे मुक्ति चाहता है पर देश में जब भी कोई राष्ट्रीय मुद्दा उठता है तो उसे सुलझाने के लिए दिल्ली ही कर्मक्षेत्र बनता है। चाहें अन्ना का आंदोलन हो या रामदेव  का;  उसमे जान तो दिल्ली की  जनता ही फूंकती है। भ्रष्टाचार से आन्दोलित जनता को दिल्ली में ही "निर्भया काण्ड" और "गीतिका-गोपाल कांडा" का मुद्दा  भी मिल गया जिसने पूरी दिल्ली को धर्म  और वर्ग से ऊपर उठा कर एक समुदाय में बदल दिया जिसे वर्त्तमान सरकार  से नफरत हो गयी थी.।  वो एक ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ व्यवस्था चाहती थी।
यदि हम "आप" को बिना किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो कर देखें तो आप ने एक ईमानदार और आदर्श सरकार का ख्वाब जनता को दिखाया। चुनाव जीतने के लिए मुफ्त पानी सस्ती बिजली वी.आई.पी कल्चर से निजात और न जाने क्या क्या वायदे कर डाले। इसी लहर  पर सवार हो कर "आप" एक बड़े दल के रूप में उभरी भी। सरकार बनने पर मुख्यमंत्री   ने शर्तों के साथ वायदों को घोषणाओं में तब्दील कर दिया। आम आदमी का भला करने चली "आप"ने कहने को तो मुफ्त पानी दे दिया, बिजली सस्ती कर दी परन्तु एक आई.आर.एस क्वालीफाईड व्यक्ति  ने एक बार भी जनता को यह नहीं चेताया की कोई भी चीज़ वाकई मुफ्त नहीं मिलती।  सरकार जो इसकी कीमत चुकाती  है वो बजट में कहीं न कहीं वित्तीय घाटे  के रूप में नज़र जरूर आती है और इसी घाटे को पूरा करने के लिए सरकार हर वर्ष आम आदमी पर नए कर का बोझ लाद देती है या पेट्रोल डीज़ल या रसोई गैस के दाम बढ़ा देती है।  
केजरीवाल एण्ड पार्टी ने अपनी मुहीम तो भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू की थी पर वो अपने को न तो राजनीति में आने से रोक सके न ही इसकी गंदगी को अपनाने से रोक सके।  चुनाव जीतने में कोई कसर न रह जाये इस लिए विवादस्पद मुस्लिम नेताओं से समर्थन लिया।  सत्तारूढ़ होने के लिए लोकलुभावन वायदे किये। यदि  "आप" अपने वायदे पूरे भी करेगी तो किसकी जेब से और किस कीमत पर।  यदि विभिन्न समाचार पत्रों की रिपोर्ट पर या अन्य राजनीतिक दलों की मांग पर जाएँ तो "आप" तो अपनी दुकान विदेश से विशेषकर 'फोर्ड फाउंडेशन' से मिलने वाले चंदे से चला लेगी पर देश चलाने के लिए तो आम आदमी की जेब से पैसा निकालेंगे ना ।  यह यक्ष प्रश्न सिर्फ "आप" पार्टी से नहीं है बल्कि बसपा से भी है जिसने जनता की गाढ़ी कमाई के 6000 करोड़ रुपये प्रदेश के उत्थान में लगाने की बजाए स्मारक बनवाने में लगा दिए जिसमे से 1400 करोड़ घोटाले के रूप में कलियुगी देवी देवताओ की बलि चढ़ गए।सपा किसके पैसे से 15 लाख लैपटॉप बंटवा रही है। दक्षिण में डी.एम.के तमिलनाडु में 40 लाख टीवी शर्तिया अपने पार्टी फण्ड से नहीं बांटेगी या कांग्रेस सवा लाख करोड़ खाद्य सुरक्षा योजना के लिए किसकी कमाई से निकालेगी। सत्ता में आने और अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए ये राजनीतिक  दल किस तरह से देश को खोखला कर रहें है कि हर कदम पर टैक्स देने के बावज़ूद यदि इसी आम आदमी को शहर के बीच लघुशंका का समाधान करना पड़ जाये तो उसे हर बार शौचालय का प्रयोग करने के लिए दो से पांच रुपये देने पड़ते हैं। एक आम आदमी इन्कम टैक्स देने के बाद अपनी जरूरत की हर खरीद पर 12 से 15% सेल्स टैक्स, सर्विस टैक्स ,आबकारी टैक्स या वैट अदा करता है। किसलिए कि सरकार अपना खर्च चला सके या उसकी गाढ़ी कमाई को सत्ता में बने रहने के लिए मुफ्त में लुटवा सके। "आप" से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वो भी आम आदमी का कांग्रेस की तरह ही लेकिन परिष्कृत ढंग से शोषण और दोहन करेगी।  
खैर इस मुफ्त पानी सस्ती बिजली और एफ.डी.आई में विदेशी निवेश के विरोध की लहर पर जो जीत हासिल हुई उसमे "आप" यह भूल गयी कि यह उसकी एक राज्यनुमा शहर में दो साल की हलजुताई का नतीज़ा है और इसकी पृष्टभूमि की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं । "आप" की इस अप्रत्याशित जीत से पूरा देश अचंभित,खुश और उदास है।  जिसकी जैसी निष्ठा है वैसी ही उसकी प्रतिक्रिया है।  आप भी अपनी इस जीत से जोश में भर गयी। यहाँ तक तो ठीक था परन्तु सफलता यदि किसी के सर पर चढ़ कर बोलने लगे तो यह ठीक नहीं है। वर्त्तमान में आप के मंत्रियों के कृत्यों और बयानों से लगने लगा है कि ये सफलता को पचा नहीं पा रहे हैं। सफलता के नशे में चूर आप का थिंक टैंक भारत के मतदाताओं और राजनीति का इतिहास भूल गया जहाँ एक लहर  आपातकाल के बाद आयी थी जिसने कांग्रेस को इसी तरह उखाड़ फेंका था। एक लहर आंध्र  में रामाराव की आयी थी जब आंध्र से कांग्रेस साफ़ हो गयी थी। उस समय भी कई सत्तालोलुप बिन्नी पैदा हो गए थे और देश को मध्याविधि चुनाव देखने पड़े थे। "आप" ने भी एक लहर के सहारे जीत तो देख ली है और उसमें विनोद बिन्नी, और टीना शर्मा के रूप में विद्रोह भी शुरू हो गया है।  
 मुख्यमंत्री बनने के पंद्रह दिन के भीतर बिना किसी पूर्वानुमान के अधकचरी तैयारी के साथ खुले दरबार का आयोजन और फिर जनता से पीछा छुड़ाकर भागना  'आप' की  मानसिक परिपक्वता और दूरदृष्टि पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।  सत्ता ग्रहण करने के 15 दिन के भीतर ही इनके मंत्री जिस तरह कि उच्श्रंखलता का परिचय दे रहे हैं या  देशहित को दरकिनार कर बयानबाजी कर रहे हैं, वह इनकी आंतरिक अनुशासनहीनता दर्शाता है। दिल्लीवालों की जो समस्याएं 67 वर्षों में पल-बढ़कर जवान हुई हैं, उसे यदि 'आप' जनता दरबार लगाकर हैरी पॉटर की छड़ी हिलाकर दूर करने की ग़लतफ़हमी पाले हुए हैं; तो   यकीन मानिये दिल्लीवालों का मोहभंग होने में भी ज्यादा समय नहीं लगेगा।"आप" ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए जो लड़ाई जीती थी, उसी के तहत यदि भ्रष्ट व्यवस्था  को सही करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता तो आम आदमी कि समस्याओं का निदान अपने आप ही हो जाता। यदि दिल्ली सरकार में सभी विभागों की उनके उत्तरदायित्वों के प्रति जवाबदेही तय कर दी जाती,भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को आप ने अपने आंदोलन के दौरान उठाया था उन पर कार्यवाही की जाती या पूरी दिल्ली की जनता को अपने दरबार में बुलाने की अपेक्षा जैसे आप वोट मांगने जनता के दरवाजे पर गए थे वैसे ही क्षेत्रवार समस्याएं समझने के लिए क्षेत्रों और सम्बंधित विभागों का औचक निरीक्षण किया होता तो निश्चित रूप से जैसा आप कह रही थी करने में सफल होती।  वैसे एक महीने में किसी भी सरकार के कार्यों की समीक्षा करना उसके साथ सरासर अन्याय होगा। परन्तु जिस तरह के निर्णय आप के मंत्री ले रहे हैं या विवादों में पड़ रहे हैं यह आप कि अपरिपक्व मानसिकता और अनियोजित कार्यशैली दर्शाता है।  
बात शुरू हुई थी आप कि जीत के जोश में होश खोने से।  अभी एक छोटे से राज्य का ठीक से सञ्चालन करने की स्थिति में आये  नहीं है और महतवकांक्षाएं हो गईं 300 सीटों पर  लोकसभा चुनाव लड़ने की। सम्भव है लोकसभा चुनावों से सम्बंधित कागज़ी तैयारी आप ने कर ली हो ,परन्तु इतिहास और बिन्नी प्रकरण से आप को यह आभास हो जाना चाहिए कि इस जीत की लहर में आपसे इस वक्त जो लोग जुड़ रहे हैं उन में से 50% लोग मौकापरस्त और हवा के साथ रुख बदलने वाले हैं। यदि ईमानदारी से देखें तो अधिकांश राज्यों में "आप" के संगठन के कार्यालय भी नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भी यदि आप लोकसभा चुनाव लड़ना चाह रही है तो तीन बातें ही समझ में आती हैं। एक,आप देश को एक अस्थिर सरकार या त्रिशंकु लोकसभा की तरफ धकेल रही है। दूसरे आप कांग्रेस जिसने चुनाव से पहले ही अपनी हार मान ली है के एजेंट के रूप में मतदाताओं को भ्रमित करने की भूमिका अदा करने जा रही है। और तीसरे आप वाकई फोर्ड फाउंडेशन द्वारा दिए जा रहे अनुदान का क़र्ज़ एक अस्थिर भारत के रूप में अदा करने जा रही है। 
चुनावी परिणाम कुछ  भी आयें लेकिन नुक्सान देश, आम आदमी और आप का ही होगा। अस्थिर सरकार बनने से देश उसी गति से चलेगा जिस से देश की जनता निजात पाना चाहती है। स्पष्ट और निर्णायक जनमत न आने की स्थिति में दुबारा चुनाव सम्भव हैं जिसके खर्चे का वहन आम आदमी को ही करना पड़ेगा। संगठनात्म्क और राजनीतिक रूप से आप अभी इतनी मज़बूत नहीं है कि किंग मेकर की भूमिका में आ जायेगी,हाँ कांग्रेस के शिखंडी का तमगा आप को ज़रूर मिल जायेगा। 
जिस तरह से देश के विभिन हिस्सों से आप में विद्रोह के स्वर उठने लगें हैं तो यही लग रहा है कि शहर बसा नहीं और लुटेरे चले आये। यदि आप पूरे देश के वोटिंग पैटर्न को दिल्ली कि तर्ज़ पर देख रही है तो उसकी यह ग़लतफहमी भी जल्दी ही दूर हो जायेगी। क्योकि आज भी देश कि अधिकांश जनता जाती, धर्म और व्यक्तिगत  निष्ठा के नाम पर वोट डालती है।  अन्यथा न तो चुनावों से चार महीने पहले कांग्रेस जाटों को आरक्षण देती ,न अपनी सावधान रैली में माया वती दलित लड़की के लिए वोट मांगती, न ही मुलायम सिंह और नितीश कुमार अपने बजट में मुस्लिमों के नाम पर भरी भरकम प्रावधान करके आला पदों पर मुस्लिमो की नियुक्ति करते। 
इन सब बातों को मद्देनज़र रखते हुए यदि फिर भी "आप" 2014 के लोकसभा चुनाव लड़ती है तो सिर्फ एक बात ही कही जा सकती है कि धैर्य  रखिये ईमानदारी से अपने व्यवस्था परिवर्तन के लक्ष्य को उपार्जित करके दिखाइये, 2019 बहुत दूर नहीं है। अन्यथा आप कल तक एक आंदोलनकारी के रूप में सड़क पर थी। आज अपनी मर्ज़ी से सड़क से सरकार चलाना चाह  रही है लेकिन अपनी महत्वाकांछा और हठधर्मिता में आप का आंकलन गलत न हो जाये।  ऐसी स्थिति में आप जनता की मर्ज़ी से सड़क पर होगी। 
                                                                 विवेक मिश्रा 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें