कश्मीर में जनमत संग्रह का दुराग्रह
वर्ष 1900 में जम्मू कश्मीर में 10 लाख हिन्दू और कश्मीरी पण्डित रहते थे जोकि 1947 से 1989 के बीच 4.5 लाख रह गये और फिर 19 जनवरी 1989 को कश्मीर की मस्जिदों से ऐलान हुआ कि हिन्दुओं, अपनी औरतें और लड़कियों को छोड़कर चले जाओ वर्ना मार दिये जाओगे। मस्जिदों से इतने भड़कीले भाषण हुए कि सरेराह हिन्दु मारे जाने लगे और आज की तारीख में सिर्फ और सिर्फ 20000 से भी कम हिन्दु कश्मीर में रह गये। कश्मीर घाटी में रामबन से आगे खन्नाबल अनन्तनाग से श्रीनगर और श्रीनगर से सोफियाँ, सोफियाँ से सूरनकोट होते हुए पूंछ में एक तरफ से जले हुए घर, खाली पड़ी हुई बस्तियां इस बात की चश्मदीद गवाह है कि किस तरह से कश्मीरी पण्डितों और हिन्दुओं को मार कर भगाया गया, जो आज अपने ही देश में शरणार्थी होकर रह गये। 24 साल गुजरने को है और उनका आज तक कोई जनमत संग्रह नहीं किया गया। 24 साल गुजरने को है वे आज भी दिल्ली और जम्मू के कैम्पों में शरणार्थियों की जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं।
5 जनवरी 2014 को ही कश्मीर के मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से माना कि कश्मीरी पण्डितों के साथ अन्याय हुआ है और हम उन्हें कश्मीर घाटी में वापिस लाने में सुरक्षा की दृष्टि से सक्षम नहीं हो सके। यदि सुरक्षा बल न हो तो सम्भव नहीं कि आप (कोई हिन्दु) अमरनाथ जी, क्षीर भवानी या शंकराचार्य जी के मंदिर के दर्शन कर पाये।
इन सबके ऊपर प्रशान्त भूषण जी का एक वर्ष में दूसरी बार कश्मीर में सुरक्षा जवानों की तैनाती को लेकर जनमत संग्रह करवाने का वक्तव्य आता है। ये प्रशान्त भूषण जी उस राज्य में सेना की तैनाती को लेकर जनमत संग्रह करवाना चाहते हैं जहाँ श्रीनगर के लाल चौक पर भारतीय तिरंगा फहराना तो दूर, पिछले माह ही एक फिल्म की शूटिंग के लिए तिरंगा नहीं फहराया जा सका। प्रशान्त भूषण जी का यह बयान बन्द कमरे से उन लोगों से लिए आदर्शवादी लोकतन्त्र का ख्याल है जो लोग भारतीय लोकतन्त्र और संविधान में आस्था ही नहीं रखते। यदि प्रशान्त जी ने कभी आम कश्मीरी से बात की होती तो उन्हें पता चलता कि कश्मीरी जब बोलते है तो यही बोलते हैं कि ‘‘आपकी हिन्दुस्तानी सरकार ने हमारे साथ ये नाइन्साफी की या हमारे साथ वो नाइन्साफी की।’’ 66 वर्षो बाद भी वो भारत को अपना भारत नही कहते। ऐसे जनसमूह के जनमत संग्रह के क्या नतीजे आयेगें, वही जो वहाँ के अलगाववादी और पाकिस्तान परस्त लोग चाहते हैं और अब इस बात को प्रशान्त जी समझना नहीं चाहते। समझें भी तो कैसे क्योंकि उनके वकालत के पेशे ने उनसे हमेशा सच को झूठ और झूठ को सच साबित करवाया है और यही उनके अवचेतन मन की मानसिकता बनकर रह गया है कि वे पिटने के बावजूद कश्मीर में जनमत संग्रह की बात करने लगते हैं।
आपने यदि जनमत संग्र्रह की बात ही करनी थी तो फिर कश्मीर में जनमत संग्रह न कहकर भारत में कश्मीर पर जनमत संग्रह की बात की होती तो पूरा देश आपके साथ होता। यदि आप जनमत संग्रह की बात करते है तो सिर्फ कश्मीर मुद्दे पर ही क्यों? क्या श्रीलंकाई तमिलों के हालात बहुत अच्छे हैं? या जिन तिब्बती शरणार्थियों को भारत ढो रहा है उनके देश में आपकी सुनवाई नहीं है। यदि आप जनमत के इतने पक्षधर हैं तो अपने देश के तमाम मुद्दों जैसे राम और कृष्ण जन्मभूमि, समान नागरिकता कानून, आरक्षण, कावेरी जल विवाद, आर्टिकल 370, हिन्दी का राष्ट्रभाषा होते हुए भी राजभाषा न होना। इन मुद्दो पर जनमत संग्रह का मशविरा क्यों नहीं देते। क्या ‘निर्भया’ काण्ड में आपको जनमत संग्रह नजर नहीं आया था, तब क्यों अदालत में एक साल तक मुकदमा चला।
धारा 377 पर भी तो जनसमूह उमड़ा था तो क्या समलैंकिगता को जायज ठहरा दिया जाये? आप 1983 पंजाब में जनमत संग्रह करवाते, दो दिन में खालिस्तान बन जाता । आप उस कश्मीर में जनमत संग्रह की बात कर रहे हैं जिसे शान्त बनाये रखने के लिए पिछले दस वर्षों में 6000 करोड़ रूपये खर्च हो चुके हैं। आज भी यदि कोई स्थानीय कश्मीरी किसी भी प्रकार से भारतीय सरकार या फौज की सहायता करता है तो उग्रवादी उसके हाथ पांव काट देते हैं उसके घर की महिलाओं के साथ रोज बलात्कार किया जाता है। मई 2008 के अपने एक ब्लाग में वर्तमान मुख्यमंत्री श्री उमर अब्दुल्ला ने लिखा कि जब हिन्दुओं के साथ अत्याचार हो रहा था तो मैं तो यहाँ नहीं था लेकिन मेरे दोस्तों ओर जानकारों ने बताया कि यह जानते हुए भी कि अन्याय हो रहा है किसी ने उग्रवादियांें के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की थी। खाली हाथ हिन्दु रातों रात अपनी जमीन जायदाद छोड़कर चले गये। क्या आपका जनमत संग्रह उन्हंें उनकी जानमाल और आबरू की गारण्टी देते हुए उन्हीं के कश्मीर में लुटी हुयी जमीन जायदाद वापिस दिलवा पायेगा।
आप किस लिहाज से कश्मीर में सुरक्षा बलों को हटाने के लिए जनमत संग्रह की बात कर रहें हैं। यदि सुरक्षाबल हटा लिए गये तो कश्मीर में बचे खुचे अल्पसंख्यक हिन्दु भी बेमौत मारे जायेगें जैसा कि किश्तवाड़ में 9 अगस्त 2013 को हुआ। एक बार को स्थानीय नागरिकों की और कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी की चिन्ता को छोड़ दे, तो आप चाहते हैं कि देश की अखण्डता को आप जैसे लोगों की सनक के हवाले कर दिया जाये। वैसे भी 1947 से लेकर 2013 तक एक भी सरकार ने वोट बैंक की राजनीति के चलते कभी इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, वर्ना जो सेना 1971 में एक नया देश बना सकती है, खालिस्तान के सपने को खाक में मिला सकती है, क्या वो एक राज्य को सही नहीं कर सकती?, कर सकती है लेकिन जब जगमोहन सरीखा गर्वनर कुछ करना चाहता है तो उसे मानवाधिकारों की दुहाई पर 4 माह में हटा दिया जाता है।
इस समस्या के बीज सत्ता लोलुप शेख अब्दुला और हरि सिंह के जमाने के बोये हुए हैं। प्रशान्त जी इस समस्या की मानसिकता को समझने के लिए आपको शेरे-कश्मीर तथा वर्तमान मुख्यमंत्री के दादा शेख अब्दुल्ला की आत्मकथा - ‘‘आतिशे-चिनार‘‘ पढ़नी पढ़ेगी जिसमें उन्होंने लिखा है कि कश्मीरियत मुस्लिम धर्म को कट्टरता से मानने के लिए एक हिज़ाब है। उन्होंने कश्मीरी पण्डितों को तीन विकल्प दिये थे रालिव (धर्म परिवर्तन), गालिव (मौत को अंगीकार कर लो) तथा चालिव (कश्मीर छोड़ दो)। हो तो सब कुछ वैसे ही रहा है जैसा शेख साहब ने चाहा, क्योंकि उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला और पौत्र उमर अब्दुल्ला ने अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में कोई ऐसा कदम नही उठाया जिससे उनके दादा की सोच गलत प्रतीत होती। हाँ Land Tillar Act जरूर पास करवा दिया जिसके तहत वहाँ कि हिन्दु जमींदारों की जमीन उन जमीनों पर काम करने वाले मजदूरों की हो गई। आज जब बिहारी मजदूर उसी जमीन पर काम करते हैं ते वे मजदूर ही रहते हैं।
प्रशान्त जी, कश्मीर में अल्पसंख्यक जिन्दा रहें तथा कश्मीर भारत के लिए और सिरदर्द न बने, इसलिए एक आम आदमी की तरह इस तरह की छोटी सोच को कृपया अपने तक ही सीमित रखे। जनमत संग्रह की बात वही करते हैं जिन्हें सही अथवा गलत में संशय होता है अथवा सही एवं कठोर निर्णय लेने की क्षमता नहीं होती।
वर्ष 1900 में जम्मू कश्मीर में 10 लाख हिन्दू और कश्मीरी पण्डित रहते थे जोकि 1947 से 1989 के बीच 4.5 लाख रह गये और फिर 19 जनवरी 1989 को कश्मीर की मस्जिदों से ऐलान हुआ कि हिन्दुओं, अपनी औरतें और लड़कियों को छोड़कर चले जाओ वर्ना मार दिये जाओगे। मस्जिदों से इतने भड़कीले भाषण हुए कि सरेराह हिन्दु मारे जाने लगे और आज की तारीख में सिर्फ और सिर्फ 20000 से भी कम हिन्दु कश्मीर में रह गये। कश्मीर घाटी में रामबन से आगे खन्नाबल अनन्तनाग से श्रीनगर और श्रीनगर से सोफियाँ, सोफियाँ से सूरनकोट होते हुए पूंछ में एक तरफ से जले हुए घर, खाली पड़ी हुई बस्तियां इस बात की चश्मदीद गवाह है कि किस तरह से कश्मीरी पण्डितों और हिन्दुओं को मार कर भगाया गया, जो आज अपने ही देश में शरणार्थी होकर रह गये। 24 साल गुजरने को है और उनका आज तक कोई जनमत संग्रह नहीं किया गया। 24 साल गुजरने को है वे आज भी दिल्ली और जम्मू के कैम्पों में शरणार्थियों की जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं।
5 जनवरी 2014 को ही कश्मीर के मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से माना कि कश्मीरी पण्डितों के साथ अन्याय हुआ है और हम उन्हें कश्मीर घाटी में वापिस लाने में सुरक्षा की दृष्टि से सक्षम नहीं हो सके। यदि सुरक्षा बल न हो तो सम्भव नहीं कि आप (कोई हिन्दु) अमरनाथ जी, क्षीर भवानी या शंकराचार्य जी के मंदिर के दर्शन कर पाये।
इन सबके ऊपर प्रशान्त भूषण जी का एक वर्ष में दूसरी बार कश्मीर में सुरक्षा जवानों की तैनाती को लेकर जनमत संग्रह करवाने का वक्तव्य आता है। ये प्रशान्त भूषण जी उस राज्य में सेना की तैनाती को लेकर जनमत संग्रह करवाना चाहते हैं जहाँ श्रीनगर के लाल चौक पर भारतीय तिरंगा फहराना तो दूर, पिछले माह ही एक फिल्म की शूटिंग के लिए तिरंगा नहीं फहराया जा सका। प्रशान्त भूषण जी का यह बयान बन्द कमरे से उन लोगों से लिए आदर्शवादी लोकतन्त्र का ख्याल है जो लोग भारतीय लोकतन्त्र और संविधान में आस्था ही नहीं रखते। यदि प्रशान्त जी ने कभी आम कश्मीरी से बात की होती तो उन्हें पता चलता कि कश्मीरी जब बोलते है तो यही बोलते हैं कि ‘‘आपकी हिन्दुस्तानी सरकार ने हमारे साथ ये नाइन्साफी की या हमारे साथ वो नाइन्साफी की।’’ 66 वर्षो बाद भी वो भारत को अपना भारत नही कहते। ऐसे जनसमूह के जनमत संग्रह के क्या नतीजे आयेगें, वही जो वहाँ के अलगाववादी और पाकिस्तान परस्त लोग चाहते हैं और अब इस बात को प्रशान्त जी समझना नहीं चाहते। समझें भी तो कैसे क्योंकि उनके वकालत के पेशे ने उनसे हमेशा सच को झूठ और झूठ को सच साबित करवाया है और यही उनके अवचेतन मन की मानसिकता बनकर रह गया है कि वे पिटने के बावजूद कश्मीर में जनमत संग्रह की बात करने लगते हैं।
आपने यदि जनमत संग्र्रह की बात ही करनी थी तो फिर कश्मीर में जनमत संग्रह न कहकर भारत में कश्मीर पर जनमत संग्रह की बात की होती तो पूरा देश आपके साथ होता। यदि आप जनमत संग्रह की बात करते है तो सिर्फ कश्मीर मुद्दे पर ही क्यों? क्या श्रीलंकाई तमिलों के हालात बहुत अच्छे हैं? या जिन तिब्बती शरणार्थियों को भारत ढो रहा है उनके देश में आपकी सुनवाई नहीं है। यदि आप जनमत के इतने पक्षधर हैं तो अपने देश के तमाम मुद्दों जैसे राम और कृष्ण जन्मभूमि, समान नागरिकता कानून, आरक्षण, कावेरी जल विवाद, आर्टिकल 370, हिन्दी का राष्ट्रभाषा होते हुए भी राजभाषा न होना। इन मुद्दो पर जनमत संग्रह का मशविरा क्यों नहीं देते। क्या ‘निर्भया’ काण्ड में आपको जनमत संग्रह नजर नहीं आया था, तब क्यों अदालत में एक साल तक मुकदमा चला।
धारा 377 पर भी तो जनसमूह उमड़ा था तो क्या समलैंकिगता को जायज ठहरा दिया जाये? आप 1983 पंजाब में जनमत संग्रह करवाते, दो दिन में खालिस्तान बन जाता । आप उस कश्मीर में जनमत संग्रह की बात कर रहे हैं जिसे शान्त बनाये रखने के लिए पिछले दस वर्षों में 6000 करोड़ रूपये खर्च हो चुके हैं। आज भी यदि कोई स्थानीय कश्मीरी किसी भी प्रकार से भारतीय सरकार या फौज की सहायता करता है तो उग्रवादी उसके हाथ पांव काट देते हैं उसके घर की महिलाओं के साथ रोज बलात्कार किया जाता है। मई 2008 के अपने एक ब्लाग में वर्तमान मुख्यमंत्री श्री उमर अब्दुल्ला ने लिखा कि जब हिन्दुओं के साथ अत्याचार हो रहा था तो मैं तो यहाँ नहीं था लेकिन मेरे दोस्तों ओर जानकारों ने बताया कि यह जानते हुए भी कि अन्याय हो रहा है किसी ने उग्रवादियांें के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की थी। खाली हाथ हिन्दु रातों रात अपनी जमीन जायदाद छोड़कर चले गये। क्या आपका जनमत संग्रह उन्हंें उनकी जानमाल और आबरू की गारण्टी देते हुए उन्हीं के कश्मीर में लुटी हुयी जमीन जायदाद वापिस दिलवा पायेगा।
आप किस लिहाज से कश्मीर में सुरक्षा बलों को हटाने के लिए जनमत संग्रह की बात कर रहें हैं। यदि सुरक्षाबल हटा लिए गये तो कश्मीर में बचे खुचे अल्पसंख्यक हिन्दु भी बेमौत मारे जायेगें जैसा कि किश्तवाड़ में 9 अगस्त 2013 को हुआ। एक बार को स्थानीय नागरिकों की और कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी की चिन्ता को छोड़ दे, तो आप चाहते हैं कि देश की अखण्डता को आप जैसे लोगों की सनक के हवाले कर दिया जाये। वैसे भी 1947 से लेकर 2013 तक एक भी सरकार ने वोट बैंक की राजनीति के चलते कभी इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, वर्ना जो सेना 1971 में एक नया देश बना सकती है, खालिस्तान के सपने को खाक में मिला सकती है, क्या वो एक राज्य को सही नहीं कर सकती?, कर सकती है लेकिन जब जगमोहन सरीखा गर्वनर कुछ करना चाहता है तो उसे मानवाधिकारों की दुहाई पर 4 माह में हटा दिया जाता है।
इस समस्या के बीज सत्ता लोलुप शेख अब्दुला और हरि सिंह के जमाने के बोये हुए हैं। प्रशान्त जी इस समस्या की मानसिकता को समझने के लिए आपको शेरे-कश्मीर तथा वर्तमान मुख्यमंत्री के दादा शेख अब्दुल्ला की आत्मकथा - ‘‘आतिशे-चिनार‘‘ पढ़नी पढ़ेगी जिसमें उन्होंने लिखा है कि कश्मीरियत मुस्लिम धर्म को कट्टरता से मानने के लिए एक हिज़ाब है। उन्होंने कश्मीरी पण्डितों को तीन विकल्प दिये थे रालिव (धर्म परिवर्तन), गालिव (मौत को अंगीकार कर लो) तथा चालिव (कश्मीर छोड़ दो)। हो तो सब कुछ वैसे ही रहा है जैसा शेख साहब ने चाहा, क्योंकि उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला और पौत्र उमर अब्दुल्ला ने अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में कोई ऐसा कदम नही उठाया जिससे उनके दादा की सोच गलत प्रतीत होती। हाँ Land Tillar Act जरूर पास करवा दिया जिसके तहत वहाँ कि हिन्दु जमींदारों की जमीन उन जमीनों पर काम करने वाले मजदूरों की हो गई। आज जब बिहारी मजदूर उसी जमीन पर काम करते हैं ते वे मजदूर ही रहते हैं।
प्रशान्त जी, कश्मीर में अल्पसंख्यक जिन्दा रहें तथा कश्मीर भारत के लिए और सिरदर्द न बने, इसलिए एक आम आदमी की तरह इस तरह की छोटी सोच को कृपया अपने तक ही सीमित रखे। जनमत संग्रह की बात वही करते हैं जिन्हें सही अथवा गलत में संशय होता है अथवा सही एवं कठोर निर्णय लेने की क्षमता नहीं होती।
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