शुक्रवार, 12 जून 2015

रालिव --चालिव ---गालिव

रालिव ----- धर्म परिवर्तन कर लो 
चालिव ---- छोड़ कर चले जाओ  और 
गालिव ---- मौत को अंगीकार कर लो।


ये शेख अब्दुल्ला का फतवा मैं कश्मीरी हिन्दुओं , नेहरू और कश्मीर के सम्बन्ध में उद्धृत कर रहा हूँ। आज की तारिख में सब जानते हैं कि मोदी कश्मीर समस्या का लोकतान्त्रिक तरीके से जबरदस्ती एक समाधान ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। और मेरा यह मानना है कि जब वहां के लोगों के दिलों में ही ज़हर भरा हुआ है, तो यह सिर्फ नाम की चुनी हुई सरकार है बाकि पाकिस्तान के झंडे उन्होंने लहराने न अभी बंद किये हैं और न ही झंडे फहराने वालों के खिलाफ वहां की जनता और सरकार ही कोई प्रतिकार की आवाज़ उठाती है। आईये देखें नेहरू ने इस बेरी के पौधे को, कुचलने की बजाये झाड़ बनाने में कैसे मदद की। 

यहाँ पर एक बात का याद रखना ज़रूरी है कि , जिन्ना और माउण्टबैटन चाहते थे कि कश्मीर पाकिस्तान के पास जाना चाहिए। नेहरू चाहते थे कि या तो कश्मीर अपने आप में एक आज़ाद देश हो जाये या वहां जनता की रायशुमारी करवा कर जनता को यह हक़ दिया जाये कि वो तय करे कि उसे किस देश के साथ विलय करना है। इसी जनता की राय लेने वाले विषय पर चर्चा के लिए, जिन्ना ने माउंटबैटन और नेहरू को लाहौर आने का निमंत्रण दे दिया। माउण्टबैटन और नेहरू लाहौर जाने के लिए तैयार हो गए लेकिन सरदार पटेल और मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों ने विरोध जाता कर नेहरू को रोक दिया। ऐसी हर स्थिति को अपने पक्ष में करने के लिए नेहरू, गांधी की गोद में जा कर बैठ जाया करते थे। इधर गांधी ने भी पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने की ज़िद पकड़ ली थी, और सरदार पटेल एवं उनके साथियों का कहना था कि 55 करोड़ तभी दिए जायेंगे जब पाकिस्तानी सेना और कबायली कश्मीर खाली कर देंगे।  
एक अलग आज़ाद देश की परिकल्पना कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरी सिंह की भी हुआ करती थी जिस वजह से उन्होंने पहले भारत गणराज्य में विलय से मना कर दिया था। हरी सिंह की ऐसी इच्छा देख कर गांधी ने तो उन्हें यह सुझाव तक दे दिया था कि वे सन्यास लेकर काशी में बस जाएँ, क्योंकि गांधी और नेहरू शेख अब्दुल्ला को राज्य की कमान सौंपना चाहते थे।  उस समय मेहर चन्द महाजन, महाराजा हरी सिंह द्वारा नियुक्त कश्मीर के प्रधानमंत्री हुआ करते थे।
इसके आगे की कहानी का सार यह है कि शेख अब्दुल्ला ने महाजन को हटाने के बहुत से यत्न किये और अंत में नेहरू ने उसे महाजन के साथ  " Head of Emergency administration" बना ही दिया। अब्दुल्ला महाजन के खिलाफ नित नयी शिकायतें नेहरू और गांधी से किया करता था और यह दोनों तथ्यों को बिना परखे महाजन को दोषी करार देते थे। इसी समय कबायलियों से निपटने के लिए महाजन ने नेहरू से हवाई जहाज द्वारा फ़ौज को कश्मीर भेजने की इल्तिज़ा की ,जिसे नेहरू ने दो टूक लफ़्ज़ों में यह कह कर ठुकरा दिया कि हवाई जहाज द्वारा फ़ौज भेजना कोई आसान काम नहीं है। जब कश्मीर में हालत बहुत बिगड़ने लगे तो महाराजा हरी सिंह कश्मीर के भारत में विलय के लिए तैयार हो गए। यहाँ पर नेहरू ने दो शर्तें लगा दीं , पहली कि रियासत का विलय कश्मीर की जनता की सम्मति से तय किया जायेगा और दूसरी कि शेख अब्दुल्ला कश्मीर का प्रधानमंत्री होगा। 
मेहर चंद महाजन को कश्मीर के प्रधानमन्त्री के पद से जबरदस्ती हटा कर भारत में न्यायधीश नियुक्त कर दिया गया और दिसम्बर 1905 की पैदाइश वाले शेख अब्दुल्ला को वहां का प्रधानमंत्री बना दिया गया जिसका दिल पाकिस्तान चला गया था और दिमाग यहाँ के प्रधानमंत्रित्व में रह गया था । उस शेख अब्दुल्ला को जिसने अपनी आत्मकथा " आतिशे चिनार" में कश्मीरी हिन्दुलों को तीन विकल्प दिए थे -----
रालिव ----- धर्म परिवर्तन कर लो 
चालिव ---- छोड़ कर चले जाओ  और 
गालिव ---- मौत को अंगीकार कर लो।   19 जनवरी 1990 को यही वाक्य कश्मीर की मज़जिदों से दुबारा दोहराये गए, बस इस बार हरामियों ने इतना फ़र्क़ किया कि इस बार वे यह चाहते थे कि हिन्दू अपनी औरतें और लड़कियां उनके लिए छोड़ जाएँ।  इसका नतीजा क्या हुआ ???? वर्ष 1901 की जनगणना के मुताबिक कश्मीर घाटी में 6,89,073 हिन्दू रहते थे, 1900 के बाद 350000 हिन्दुओं ने कश्मीर घाटी छोड़ दी और आज वहां 3000 से भी कम बचे हैं, और 1928 की पैदाइश वाले गिलानी सरीखे आज भी जहर की खेती कश्मीर में बो रहे हैं। और मैं यह समझने में नाकामयाब हूँ कि जिस गांधी और नेहरू ने देश का बेडा गर्क किया उनका इतना महिमामंडन क्यों किया जाता है ???

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