पूरा पढ़ेंगे ???? यह मात्र सार और संक्षेप में है। मर्ज़ी हो तो लाइक करें या न करे , शेयर करे या न करे ,टिप्पणी करें या न करें। क्योंकि अगले 25 -30 सालों में यानि कि जितनी मेरी ज़िन्दगी बची है कोई बहुत फ़र्क़ नहीं नज़र आने वाला, जैसे 100 साल पहले मेरे पूर्वजों को नज़र नहीं आया था। उसके बाद राम नाम ही सत्य है, सुनते हुए अपन तो चार आदमियों के कन्धों चढ़ कर निकल लेंगे, और लड़े वो जिसकी लड़ाई हो।
मुझे लगा था कि विषय अत्यंत गंभीर है , और ईसाई मिशनरी जिस सूक्ष्म विवरण के साथ रणनीति बना रहे हैं और उस पर अम्ल कर रहे है, उसके विषय में अधिक से अधिक हिन्दुओं को जानकारी होनी चाहिए। इसीलिए उनकी रणनीति के एक एक हिस्से को मैं हिन्दुओं के सामने लाना चाहता था।
किन्तु इस श्रृंखला के पहले और दूसरे भाग कि अपने मापदंडों पर परिणीति को देख कर मुझे लग रहा है कि शायद मैं इस विषय को बेवजह तूल दे रहा हूँ। हिन्दू समाज के लिए यह कोई गंभीर विषय प्रतीत नहीं होता। इसलिए जितना लिख लिया है उतना आपके सामने रख रहा हूँ, क्योंकि मेरा मानना है की सोते हुए व्यक्ति को जगाया जा सकता है लेकिन सेकुलरिज्म की आड़ में जो हिन्दू समाज सोने का नाटक कर रहा उसे कोई भी नहीं जगा सकता।
बहुत संक्षेप में ----- इनकी कार्यप्रणाली मिशनरी स्कूलों , अस्पतालों और अनाथालयों से चलायी जाती है। इनके टारगेट समूहों में दलित और पिछड़े वर्ग के लोग, आदिवासी, विभिन्न समूहों के नेता ,एड्स तथा छूत की बीमारी वाले, समाज से उपेक्षित वेश्याएं और सज़ायाफ्ता मुज़रिम और एक राज्य से दूसरे राज्य में गए हुए विद्यार्थी आते है। नए ईसाईयों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे अपने क्षेत्र में चर्च बनायें और जब उनके समूह से 20 लोग जुड़ जाते हैं तो उस चर्च की फंडिंग ये लोग शुरू कर देते हैं। यह इसलिए क्योंकि जब क्षेत्रीय लोग अपनी ज़मीन पर कोई निर्माण करते हैं उसका प्रतिरोध न के बराबर होता है और उसके बाद कोई नहीं पूछता कि इस इमारत को बनाने के लिए और इन गतिविधियों को चलने के लिए पैसा कहाँ से आ रहा है।
इन सबसे ऊपर जो सबसे अहम बात है , वो यह कि हिन्दू समाज के विभिन्न वर्गों में जाति पाती के नाम पर तनाव कैसे उत्पन्न किया जाये। इसके लिए दिलीप सी मंडल, सुनील सरदार, कांचा इल्लैया जैसे लोगों की फ़ौज प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हिन्दू धर्म को हीन साबित करके, हिन्दुओं को भ्रमित करके, समाज के विभिन्न वर्गों में फूट डलवा कर, वैमनस्यता फैला कर ईसाईयत की जड़ों को अपने खून पसीनेऔर विदेशी पैसे से सींच रहे हैं। वर्णव्यवस्था को जितना कुरूप प्रचार इन ईसाई मिशनरियों ने जबरदस्ती का ढोल पीट पीट कर किया है यह उतनी कुरूप कभी थी नहीं । ----- (Rudolph and Rudolph, The Modernity of Tradition, p 114. Quoted in Claude Alvares, Decolonising History, p 190.)
------More importantly, Shri M N Srinivas, who coined the word Sanskritisation', was talking within the context of Hinduism, and has clearly shown that the caste system was not as rigid as it is made out to be. He said, "The tendency of the lower castes to imitate the higher has been a powerful factor in the spread of Sanskritic ritual and customs, and in the achievements of a certain amount of cultural uniformity not only throughout the caste scale, but over the entire length and breadth of India."
लेकिन आज मेरे मित्रों की पोस्ट पर एक एक सवर्ण से पिछले 3000 सालों का हिसाब माँगा जाता है। सिर्फ यही नहीं , इन लोगों से जुड़े हुए किसी भी व्यक्ति की फेसबुक प्रोफाइल उठा कर देख लीजिये, अपने आप को 85% कहने वालों के दिलों में मात्र और मात्र सवर्णो प्रति ज़हर से भरे हुए समुद्र मिल जायेंगे।परन्तु वे बिलकुल अनभिज्ञ हैं उन ईसाई और कसाई डॉकटरों से, जो बहुत महीन तरीके से उनकी नसों में जहर के इन्जेक्शन भी लगा रहे हैं और उनकी सहानुभूति भी बटोर रहे हैं। ------------
------------------------------ ----यदि आप के पास समय हो तो नीचे के पैरा जो पहले लिख चुका था पढ़ लीजियेगा , अंत में इस सच्चाई से रूबरू करवाने वाले कुछ लिंक भी दिए हैं उनसे स्थिति की भयावहता का अंदाज़ लगा लीजियेगा। मैं, अपने परिवार और मित्रों को इन तथ्यों से वाकिफ करवा कर इस सोते हुए समाज के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहा हूँ। यदि आप उचित समझे तो अपने मित्रों को भी इस हक़ीक़त से वाकिफ करवा दें, वैसे कोई ज़रूरी भी नहीं है क्योंकि सब लोग इसी खामख्याली जी रहे है --"यूनान मिस्र रोमा सब मिट गए जहाँ से , क्या बात है कि मिटटी हुई नहीं हमारी। "
#भाग_2_का _शेष_भाग ------ जब एक व्यक्ति अपना धर्मांतरण करता है, तो उसका परिवार टूटता है, समाज में तनाव व्याप्त होता है। क्योंकि धर्मांतरण की प्रक्रिया के दौरान ही उससे ऐसी बातें कहलायी जातीं है और ऐसे कृत्य करवाये जाते हैं जिससे उसके मूल सम्प्रदाय की भावनाएं आहात होती हैं। उससे उन देवताओं को अपशब्द कहलवाये जाते हैं, जिन्हे वो और उसका मूल समाज अभी तक पूजता रहा है। उससे वो कृत्य करवाये जाते है जो उसके मूल समाज में प्रतिबंधित है जैसे कि मांसाहार। धर्मपरिवर्तित व्यक्ति के ये कृत्य उसे मूल समाज से बहिष्कृत करवा देते हैं और उसे अपने नए समाज में रहने के लिए ,नयी निष्ठाओं के प्रति अपना पूर्ण दायित्व निभाने के लिए , इन नए "मर्यादित" कृत्यों को और जोर शोर से करना पड़ता है। इसीलिए यही देखते हुए स्वामी विवेकानन्द ने 125 वर्ष पहले ही यह कह दिया था कि --- "हिन्दू धर्म से बाहर जाता हुआ एक व्यक्ति इस धर्म में एक हिन्दू कम नहीं करता बल्कि एक दुश्मन बढ़ा देता है।"
वैसे इसी "प्रब्बुद्द भारत" को दिए गए साक्षात्कार के दौरान स्वामी विवेकानन्द जी ने यह भी कहा था , कि समाज में कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे इनकी "घर वापसी" सुनिश्चित करवाई जा सके।
चर्च का मुख्य और एक मात्र "धन्धा " धर्मांतरण है, क्योंकि उन्हें ऐसा आदेश जीसस ने दिया है -----
-----तब ईसा ने उनके पास आ कर कहा, "मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है। इसलिए तुम लोग सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता,पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो। मैंने तुम्हे जो -जो आदेश दिए हैं, तुम लोग उनका पालन करना उन्हें सिखलाओ और और याद रखो -मैं संसार के अंत तक तुम्हारे साथ हूँ। ------( बाइबिल , Mathews 28 ,कथन 18-20 )
और आज की तारीख में जो लोग देवी देवताओं को गालियाँ देते हैं, ऐसा नहीं है कि गालियां देने वाली नस्ल एक दिन में पैदा हो गयी। यह नतीजा है ईसाईयों की 500 सालों की अथक मेहनत का और बेशुमार दौलत जो इन्होने इस स्थिति को पैदा करने के लिए खर्च की है।
इस्लाम की तरह ईसाई भी एक ही मत के हैं , की अंत समय में सिर्फ वही लोग बचेंगे जिन्हे प्रभु ईसा पर विश्वास है। इसलिए प्रभु की इच्छा के अनुसार ज्यादा से ज्यादा लोगों / आत्माओं को "harvest " करके प्रभु के चरणों में समर्पित करना ही ईसाई धर्म को मानना है और यही एक ड्यूटी है। एक उत्पाद बनाने वाली कंपनी की तरह चर्च हमेशा अपने मार्किट शेयर के प्रति बहुत चिंतित रहता है। यूरोपियन देशों से पादरियों , नन्स और अतिरिक्त सहायक स्टाफ में भर्तियां चूँकि कम हो गयीं हैं इसलिए चर्च का पूरा ध्यान भारत की तरफ आकर्षित हो गया है।
मिशनरी प्रकाशनों से यह पूरी तरह साफ़ हो जाता है कि उनके टारगेट /लक्ष्य निर्धारित हैं, विस्तृत योजनाएं है ,मार्केटिंग स्ट्रेटेजीज हैं कि कैसे हर गाँव में एक चर्च स्थापित करना है, हर एक हाथ के जोड़े में कैसे बाइबल पहुंचनी है ,उन लोगों के समूह का चरित्र क्या है जैसे --- महिलाएं , अनुसूचित जातियां, और सबसे ज्यादा आदिवासी लोगों की धारणाएं क्या है, और हर समूह में ऐसे कौन से तत्व हैं जो रुकावटें पैदा कर सकते हैं, उन्हें अपने अनुकूल कैसे बना कर समूह में कैसे घुसना है।
"OPERATION WORLD" (OM प्रकाशन समूह की एक पत्रिका , इस OM प्रकाशन के विषय में पिछली पोस्ट में जानकारी दी गयी है ) के अनुसार यदि "राष्ट्रवाद" की भावना को भावना ख़त्म कर दी जाये तो हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम भी काम किया जा सकता है। एक नियम के तहत ईसाई धर्म प्रवर्तक राष्ट्रवाद की भावना के हमेशा खिलाफ बोलते है। लेकिन यह सिद्धांत "मैती" लोगों पर लागु नहीं होता है क्योंकि अधिकतर "मैती" हिन्दू हैं ( मैती , खासी और नागा की तरह उत्तर पूर्व की आदिवासी जनजाति है)। तो यहाँ पर राष्ट्रवाद की जगह कश्तवाड़ का जहर बोया जाये। मेघालय में वैसे ही 57% तथा मिजोरम में 85% ईसाई हैं। चकमा बौद्धों के बीच ईसाई प्रवर्तकों की पैठ हो चुकी है, बांग्लादेश से आये हुए शरणार्थी और हिन्दू ज़रूरतमंद हैं, इन्हे तथा जिनके बीच अभी तक पहुँच नहीं हुई है उन्हें अगला लक्षय बनाया जाये। यहाँ के ईसाईयों ने एक प्रतिज्ञापत्र तैयार किया कि नागालैंड से 10000 मिशनरी प्रभु की सेवा में भेजे जायेंगे।
"OPERATION WORLD" ने अफ़सोस जताया कि हरियाणा में जहाँ पर 80 लाख जाट और 15 लाख चमार , तथा सिख हैं वहां पर हमारी कोशिशे नाकाम हो रही है। पिछली शताब्दी में सबसे अधिक धर्मपरिवर्तन चमार और चूड़ा जाति के लोगों ने किया है , जबकि भारतीय कानून के अनुसार इन नामों से उदबोधन एक गैरजंनती जुर्म है। हद तो तब हो गयी जब इसी पत्रिका ने अपने 1993 के एक अंक में भारत के नक़्शे में जम्मू -कश्मीर तथा अरुणाचलप्रदेश को भारत का हिस्सा ही नहीं दर्शाया।
OM ---- OPERATION WORLD पत्रिका निकालने वाली कंपनी का नाम भी बहुत सोच समझ कर रखा गया। इस पत्रिका ने सुझाव दिया कि पादरी की वेशभूषा , चर्चों की रूपरेखा एवं ईसाई रीत रिवाज़ बिलकुल देशी /स्वदेशी लगने चाहिए जिससे कि किसी भी प्रकार का विदेशी या परायेपन का आभास न हो पाये। यह सुझाव "कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ़ इंडिया" ने कार्डिनल प्रेजिडेंट को भेजा,जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस सुझाव के तहत ----
1) जैसे देसी लोग पूजा में खड़े होते या बैठते हैं उसी तरह जूते उत्तर कर ईसाई प्रार्थना में बिठा या खड़े हुआ जाये।
2)घुटने टेकने की प्रथा को झुक कर "अंजलि हस्त " से बदल दिया जाये। अंजलि हस्त -- दूसरे के दोनों हाथों को अपनी हथेलिओं के बीच में लेने की क्रिया को कहा जाता है।
3) पश्चाताप की संस्कार क्रिया से पहले और बाद में पादरी तथा भक्त दोने "पंचांग प्रणाम" करेंगे।
4) चूमने की प्रथा की जगह , वास्तु या अंग को उंगली या हथेली से स्थानीय मान्यताओं के अनुसार छुआ जाये। जैसे की माथा या हाथ चूमने की जगह उसका हथेली से स्पर्श।
5) धूपबत्ती या अगरबत्ती की जगह हैंडल वाला धूपबत्तीदान इस्तेमाल किया जा सकता है।
6) रोमन पहनावे को देसी अंगवस्त्र से बदला जा सकता है।
7) मोमबत्ती की जगह घी या तेल के दिए का इस्तेमाल किया जा सकता है।
8) समूह प्रार्थना में विशिष्ठ व्यक्ति का स्वागत भातीय परम्परा के अनुसार आरती की थाली , दिया जला कर या हाथ धुलवा कर किया जा सकता है।
9) पूजा की क्रिया में फूलों से आरती , अगरबत्ती या दिए से आरती शामिल की जा सकती है।
10 ) हिन्दू पूजा के प्रतीक चिन्हों जैसे कमल, चरण, और देवीदेवताओं के चित्रों में जीसस का दिखाना सम्मिलित किया जा सकता है।