आज महान गणितज्ञ श्री श्रीनिवास रामानुजन की जन्म तिथि पर आपको गणित शुभकामनायें। भारत को सपेरों और मदारियों का देश बताने वाले अंग्रेज़ों और भारत छूट गए उनके वंशजों ने रामानुजन को तभी विद्वान माना जब रॉयल सोसाइटी ऑफ़ इंग्लैंड ने उन्हें इस लायक समझा वर्ना उनके द्वारा सुलझाए गए 3900 समीकरणों का श्रेय भी शायद उन्हें नहीं दिया जाता।
बात सिर्फ रामानुजन जी की नहीं है और बात सिर्फ अंग्रेज़ों द्वारा अपने को श्रेष्ठ साबित करने की नहीं है। भारतियों ने ही कौन सी कसर छोड़ी अपनी विद्वता और धरोहर की खिल्ली उड़ाने में। आज भी मैं विद्यालय स्तर की बात नहीं कर रहा बल्कि विश्वविद्यालयों में भी अध्यापक स्नातक और परास्नातक कर रहे छात्रों के दिमाग में ठूंस ठूंस कर बिठाते हैं कि भारत अज्ञानियों साधुओं और भिखारियों का देश था जितना और जो भी ज्ञान और विज्ञानं भारत में आया है सब अंग्रेज़ों की बदौलत आया है। यही सुन सुन कर पीढ़ियां जवान हो गयीं और अपने बच्चों को बताने लगीं कि भारत तो सपेरों और मदारियों का देश था।
नीचे बहुत ही संक्षेप में जो लिख रहा हूँ वो " Essential Writings Of Dharmpal " से है जबकि उन्होंने इस विषय पर " Indian Science and Technology In The Eighteenth Century" 1971 में ही बाकायदा ब्रिटिश विद्वानों और ब्रिटिश दस्तावेज़ों में उपलब्ध साक्ष्यों पर शोध के उपरान्त लिखी थी। मुझे नहीं मालूम कि भारत सरकार ने इस शोध का संज्ञान लिया या नहीं , लेकिन यदि ले लिया होता तो आज #न्यूटन की कुर्सी हिल चुकी होती।
1780 के आसपास यूनिवर्सिटी ऑफ़ एडिनबर्ग के प्रतिष्ठित गणितज्ञ प्रो जॉन प्लेफेयर ने बहुत शोध के उपरांत मन कि भारतीय खगोलशास्त्रियों की गणना और अवलोकन 3102 बी सी ( भारतीय परम्परा के अनुसार कलियुग का आरम्भ) तक एकदम सटीक हैं। लेकिन उन्हें इसे मानने में भी गुरेज़ था तो उन्होंने दो बातें कहीं। एक या तो ऐसा जटिल गणनाओं से सम्भव है या सीधे अवलोकन से संभव है। फिर प्रो. प्लेफेयर कहता है कि ये जटिल गणनाएं तो ब्राह्मणों के बस की बात हो नहीं सकतीं इसलिए उन्होंने सीधे अवलोकन किया होगा।
अगर वो यह मान जाता कि यह गणना ब्राह्मणों ने की है तो न्यूटन की कुर्सी छिन जाती और और ईसाईयत के श्रेष्ठता भी खतरे में पड़ जाती क्योंकी बाईबल के अनुसार वो बाढ़ जिसने नूह के समय पूरे विश्व को डुबो दिया था वो 2348 बी सी में आयी थी।
बनारस के मानमंदिर में बनायीं गयी वेधशाला भी 16वीं शताब्दी की है मानने में भी हेठी है जबकि अन्य यूरोपीय यात्रियों के अनुसार यह 16वीं शताब्दी से भी पहले की है। ब्राह्मणों द्वारा बताये गए बृहस्पति के चार और शनि के सात उपग्रहों पर उन्होंने सितम्बर 1789 तक यकीन नहीं किया जब तक अपने बनाये गए टेलिस्कोप से देख नहीं लिया। 1789 में ही प्रो. प्लेफेयर ने अपनी एक समीक्षा " Remarks on The Astronomy Of Brahmin" में एक खगोल सारणी, जो कि उन्होंने बतया कि उन्हें ईस्ट इंडीज के सियाम से मिली है, की यह 21 मार्च 628 की है। जबकि उस सारणी का मद्यान्ह (Median) बनारस का निकला सियाम का नहीं।
एकतरफ उस समय के अंग्रेज़ों का एक तबका अलजेब्रा , अंकगणित , क्षेत्रमिति और बीजगणित के लिए ब्रह्मगुप्त ,भास्कराचार्य,और आर्यभट्ट को श्रेय देता है दूसरी तरफ एक तबका जिसमे भारतीय भेड़ें भी हैं आज तक इनका श्रेय भारतीय गणितज्ञों को देना नहीं चाहते।
1775 में बर्फ कैसे जमाई जाती है ,अँगरेज़ भारतियों से ही सीख कर गए थे। Wootz ( परिष्कृत लोहा या स्टील) कैसे बनाया जाता है यह 1795 में अंग्रेज़ों ने भारतियों से सीखा और फिर 1825 में इंग्लैंड में बनाना शुरू किया। जबकि 16वीं शताब्दी में ही भारत में 10000 हज़ार से ज्यादा लोहा और स्टील बनाने वाली भटियाँ थीं।
1792 में डॉ एच स्कॉट अलसर और बड़े फोड़ों की विस्मृत कर देने वाली भारतियों द्वारा शल्य चिकित्सा की
जानकारी रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन को पत्र द्वारा देते हैं और 1794 में कटी हुई नाक कैसे जोड़ी जाती है या जानवरों के अंगों को कैसे जोड़ा जाता है ये जानकारी और जोड़ने वाले पदार्थ भरी मात्रा में भारत से ले कर इंग्लैंड गए।
कृषि,बागवानी, पशु चिकित्सा एवं प्रजनन, कृत्रिम सिंचाई , क्रॉप रोटेशन वगैरह वगैरह कौन सा विषय है जो अंग्रेज़ों ने भारतियों से नहीं सीखा और यह सब कहा जा रहा है 1790 तक के ब्रिटिश दस्तावेज़ों के आधार पर।
इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में मद्रास प्रेसीडेंसी ,कलकत्ता प्रेसीडेंसी बम्बई प्रेसीडेंसी और पंजाब प्रेसीडेंसी की 1825 से ब्रिटिश दस्तावेज़ों के आधार पर समीक्षा की गयी है। भारतीय शिक्षा, शिक्षा पद्धति के सामने अँगरेज़ कहीं नहीं ठहरते थे। बाकायदा स्कूलों कॉलेजों छात्रों छात्राओं की जिलावार तथा विषयवार सारणियाँ तैयार की गयीं हैं।(एक रोचक तथ्य इन सारणियों से निकल कर जो सामने आया वो यह है कि सबसे अधिक पड़ने में रूचि शूद्र वर्ण की थी (70% तक) फिर ब्राह्मणों की (27% तक) फिर वैश्यों की (23%) और शायद क्षत्रियों का (0-9%) पढ़ाई से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था।)
और फिर अंग्रेज़ों ने चलनी शुरू कीं अपनी नीतियां, भूमि अधिग्रहण, कर सम्बन्धी, चिकित्सा सम्बन्धी और आया 2 फरवरी 1835,जब मैकाले साहब को लगा कि भारत में जो कुछ है वो कूड़ा करकट से ज्यादा कुछ नहीं है। इंडियन एजुकेशन एक्ट के ज़रिये वो शिक्षा पद्धति लाद दी कि जहाँ वही भारत बेरोज़गारी और तुष्टिकरण के जाल में उलझता जा रहा है जिसका अट्ठारवीं सदी में सिर्फ इलाहाबाद और बनारस ही इतना अनाज पैदा कर लेते थे जितना पूरे इंग्लैंड में पैदा नहीं होता था।
इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए सारांश , Essential Writings of Dharmpal" में उपलब्ध है और विस्तार में जान्ने के लिए पढ़ें "Indian Science and Technology in The eighteenth Century" By Dharmpal
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''रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा, हंस चुगेगा दाना और कौवा मोती खायेगा''.....और ऐसे समय में विवश मन की आग है मेरी लेखनी में......
शनिवार, 22 दिसंबर 2018
मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018
गन्दा है पर धंधा है
अनेक पोस्टों पर मित्रों की टिपण्णियां आ रहीं हैं कि वर्तमान घटनाओं के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है। अरे भाई क्यों न हो ?? उसके जीने मरने का सवाल है। कैसे उसके जीने मरने का सवाल है यह जानने से पहले क्या हम बीजेपी को अकर्मण्यता के लिए क्लीन चिट दे दें ??? क्या करता है इनका ख़ुफ़िया तंत्र यदि उसे पहले से इन सुनियोजित षड्यंत्रों की खबर नहीं लगती। मान लिया कि एक घटना हो गयी लेकिन प्रशासन को ऐसे इन्तेज़ामात करने चाहिए कि पहले तो कोई ऐसी घटना करने से पहले दस बार सोचे नहीं तो दूसरी घटना तक इतना सख्त सन्देश चला जाना चाहिए की प्रजातंत्र को मज़ाक समझने वाले ऐसा करने का ख्वाब सपने में भी न लें। ऐसा क्यों नहीं होता, मालूम नहीं लेकिन कांग्रेस ऐसा करने के लिए क्यों मजबूर है यह हम सबको समझना बहुत ज़रूरी है।
एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की मई 2018 में जारी की गयी रिपोर्ट के हिसाब से वर्ष 2015 से 2017 तक कांग्रेस को जितना चन्दा मिला उससे ज्यादा चन्दा शिव सेना और आप को जोड़ कर मिला। रुपयों के हिसाब से कांग्रेस को इस समय में 42 करोड़ रुपये मिले शिव सेना को 26 और आप को 25 करोड़। चन्दे की बात छोड़ दें तो कांग्रेस ने वर्ष 2016 -17 में इन दोनों पार्टियों से साढ़े तीन गुना ज्यादा कमाई की। ( अब यह कमाई कहाँ से की यह ADR को भी नहीं पता। 2016-17 में कमाई के मामले में सपा चौथे नंबर की पार्टी रही( यहाँ चंदे का नहीं पता )। जबकि बीजेपी ने इस समय में 532 करोड़ रूपये चन्दा मिलने की घोषणा की है। फर्क दिख रहा है न , सीधे सीधे 500 करोड़ का नज़र आ रहा है।
कांग्रेस की माली हालत इतनी खस्ता हो चुकी है कि उसने अपने राज्यों की इकाइयों को सुचारु रूप से चलने के लिए भी न सिर्फ पैसे भेजने बंद कर दिए हैं बल्कि पिछले हफ्ते केन्द्र और राज्यों की इकाइयों को 40 दिन का एक जनता से तक पहुँच कर चन्दा इकठ्ठा करने का कार्यक्रम भी तय किया है । एक तरफ बीजेपी ने अपने लिए दीनदयाल मार्ग पर भव्य कार्यालय बनवा लिया है दूसरी तरफ इनके पास इतने पैसे नहीं थे कि उत्तर पूर्वी राज्यों में चुनाव पर्यवेक्षक को हवाई टिकट मुहैय्या करवा पाते। उत्तर पूर्वी राज्यों में हालिया हार का कारन तो कांग्रेस यही बता रही है कि किसी वरिष्ठ सदस्य को चुनाव पर्वेक्षण के लिए नहीं भेज पाए। मजे की बात देखिये कि जिन वरिष्ठ सदस्यों को उत्तर पूर्वी राज्यों की ज़िम्मेदारी दी गयी थी वे इतने निष्ठावान थे कि चुनाव ख़त्म होने तक हवाई टिकट का इंतज़ार करते रहे ट्रैन से नहीं जा सकते थे।
गौर करें 2014 के चुनावों में बीजेपी ने कांग्रेस के मुकाबले डेढ़ गुना ज्यादा पैसा खर्च किया था और साढ़े छह गुना ज्यादा सीटें जीतीं थीं। जिस तेज़ी से कांग्रेस को चंदा देने वालों की संख्या घट रही है अगर ये अगले लोकसभा चुनाव भी हार जाती है तो इसको चंदा देने वाले सारे कुँए सूख जायेंगे और जो इसका अस्तित्व आज खतरे में है कल ख़त्म हो जायेगा।
इसलिए आज कांग्रेस के लिए बहुत ज़रूरी है कि देश भर में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए कैम्ब्रिज अनलयतिका के बताये हुए रास्ते पर चले। कहीं बिहारियों को पिटवायेगी कहीं मनु महारज की मूर्ती काली करवाएगी कहीं रामजन्म भूमि का मुद्दा उठायेगी कहीं एस सी / एस टी एक्ट का मुद्दा उठायेगी कहीं अर्बन नक्सल्स के साथ खड़ी होगी।
पूरा दम लगा कर राफेल मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा ही दिया है जिसकी 10 अक्टूबर यानि की कल सुनवाई होनी है और कैम्ब्रिज अनलिटिका ने इनके तरकश में और कौन कौन से तीर डाल दिए हैं ये मुझ जैसा साधारण आदमी तो समझ नहीं सकता है देखते रहिये अप्रैल 2019 तक क्या क्या गुल खिलते हैं फिलहाल यही हाल रहे तो कांग्रेस को अपनी बत्ती गुल होने से बचाने के लिए यह सब करना ही पड़ेगा जिसके लिए आज सब उसे दोष दे रहे हैं।
हाँ चलते चलते एक बात और बता दूँ , जब मैंने वो रिपोर्ट पढ़ी थी तब रूपया डॉलर के मुकाबले 68 रुपये का था ,आज 74.03 का है और चुनाव आते आते मोदी को हराने के लिए 100 रुपये तक पहुँचाने के लिए विदेशी ताकतें और घर के भेदी पूरी ताकत लगाए हुए हैं। कौन हैं वो लोग जाने के लिए नीचे दिया गया लिंक खोल कर पढ़ लें
https://www.sundayguardianlive.com/news/pm-modi-takes-direct-charge-economic-measures-avert-crisis#.W54mptd_SJE.facebook
बहुत कुछ होगा और सब कुछ होगा भाई ये कांग्रेस के जीने मारने का सवाल है और आपको देश की पड़ी है।
रविवार, 7 अक्टूबर 2018
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
22 अगस्त 2017 को ट्रिप्पल तलाक पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने निर्णय सुनाया जिसमे से दो जजों जिसमे एक मुख्यन्यायधीश केहर थे का निर्णय था चूँकि यह 1400 वर्षों पुरानी परम्परा है और आस्था से सम्बंधित है इसलिए यह संवैधानिक रूप से जायज़ है। अन्य तीन जजों ने माना कि यह संविधान अनुछेद 14 जो कि समानता का अधिकार देता है , के विरुद्ध एवं एक घिनौनी प्रथा है इसलिए इसे हटाया जाना चाहिए। परन्तु सुप्रीम कोर्ट के पास इसे प्रतिबंधित करने का अधिकार नहीं है इसलिए सरकार इसपर कानून लाये।
इस निर्णय के ठीक एक साल एक महीने और एक हफ्ते बाद यानि कि 29 सितम्बर 2018 को सबरीमाला केस में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ आस्था के प्रश्न को भूल गए और उन्हें यह अधिकार भी मिल गया कि परशुराम जी द्वारा स्थापित मंदिर जिसमें 12वीं सदी से कुछ परम्पराओं के साथ अनवरत पूजा की जा रही है की हिन्दुओं की आस्थाओं को ताक पर रख कर यह आदेश पारित कर दें कि इस मंदिर में महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता। यदि इस मंदिर में महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता होता तो न तो इस मंदिर के प्रांगण में देवी मालिकापुरम का मंदिर होता और न नागराज के मंदिर के साथ उनकी धर्मपत्नी नागाक्षी का मंदिर होता और न ही यहाँ 10 वर्ष से कम और 50 वर्ष से अधिक आयु की महिला को प्रवेश मिलता।
खैर मेरा विषय यहाँ पर मन्दिर में महिलाओं की समानता सिद्ध करना नहीं है जो कि सबरीमाला मन्दिर के प्रबुद्ध वकीलों ने बेहतर तरीके से किया होगा। मेरे दिमाग में तो सिर्फ एक सवाल उठ रहा है कि एक साल में आस्था पर अपना निर्णय न देने वाली सुप्रीम कोर्ट को यहाँ पर आस्थायें और परम्पराएं नज़र क्यों नहीं आयीं।
जज साहेबान धार्मिक मामलों में यदि महिला समानता के प्रति इतने चिंतित और जागरूक हैं तो कभी ईसाईयों की धर्मव्यवस्था पर भी निगाह डालिये जहाँ ननों के साथ दासियों की तरह व्यवहार किया जाता है। कभी उनके धर्म ग्रन्थ भी पढ़ कर देखिये। लिखने के लिए तो बहुत से उदाहरण हैं लेकिन बाइबल से एक दो उदाहरण दे रहा हूँ --
1) अध्याय LEVITICUS, कथन 12 में 2 से 7 --- प्रभु ने मूसा से कहा , " इस्राएलियों से कहो -- यदि कोई स्त्री पुत्र प्रसव करेगी तो वह सात दिन तक अशुद्ध रहेगी। जैसे वह ऋतुकाल में अशुद्ध रहती है। आठवें दिन पुत्र का खतना किया जायेगा ,इसके बाद वह प्रसव के रक्तस्राव से तैतीस दिन तक अशुद्ध रहेगी। जब तक उसके शुद्ध होने के दिन पूरे नहीं हो जायेंगे तब तक वह न तो किसी पवित्र वास्तु का स्पर्श करेगी और न किसी पवित्र स्थान में प्रवेश करेगी। यदि वह कन्या प्रसव करेगी तो वह दो सप्ताह तक अशुद्ध रहेगी, जैसे वह ऋतुकाल में रहती है। वह प्रसव के छियासठ दिन तक अशुद्ध रहेगी। जब उसके शुद्धिकरण के दिन पूरे हो हो जायेंगे, तब चाहें उसने पुत्र प्रसव किया हो या कन्या, वह दर्शन कक्ष के द्वार के सामने याजक के पास होम -बलि के लिए एक वर्ष का मेमना और प्रायश्चित बलि के लिए एक कबूतर या पण्डुक लाये। याजक उनको प्रभु के सामने चढ़ा कर उसके लिए प्रायश्चित - विधि संपन्न करेगा। इस प्रकार वह प्रसव के रक्तस्राव से शुद्ध हो जायेगी।
2) Timothy'S letter 1 ( टिमोथी का पहला पत्र) कथन 2 में 11 से 14 ---धर्मशिक्षा के समय स्त्रियाँ अधीनता स्वीकार करते हुए मौन रहें। मैं नहीं चाहता कि वे शिक्षा दें या पुरुषों पर अधिकार जतायें। वे मौन ही रहें : क्योंकि आदम पहले बना और हव्वा बाद में और आदम बहकावे में नहीं पड़ा बल्कि हव्वा ने बहकावे में पड़कर अपराध किया।
महोदय ,स्त्री और पुरुष में बराबरी या समानता के विषय में लगे हाथ कुरान का मत भी जान लेते हैं कि क्या है।
1) सूरा 4 आयत 11 -- ( विरासत के सिलसिले में कही गयी यह आयत) लड़के का हिस्सा दो लड़कियों के हिस्से के बराबर , और अगर सिर्फ लड़कियाँ ही हों अगरचे दो से ज्यादा हों तो उन लड़कियों को दो तिहाई मिलेगा जो मूरिस छोड़ कर मरा है , और अगर एक ही लड़की हो तो उस लड़की को आधा मिलेगा _ _ _ _ _ _
2) सूरा 2 आयत 282 --- _ _ _ _ _ _ दो शख्सों को अपने मर्दों में से गवाह भी कर लिया करो , फिर अगर वो दो गवाह मर्द न हों तो एक मर्द और दो औरतें गवाह बना ली जाएँ _ _ _ _ _
3)सूरा 2 आयत 223 ----तुम्हारी बीवियाँ तुम्हारे खेत हैं। सो अपने खेत में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ। _ _ _ _ _
सिर्फ एक मन्दिर की एक परम्परा के आधार पर आपने पूरे सनातन धर्म को कटघरे में खड़ा कर दिया कि इसमें महलाओं के साथ सदियों से असमानता का व्यवहार किया जा रहा है। महोदय कभी हिन्दुओं की महिलाओं के विषय में अवधारणा का भी अवलोकन किया होता कि इनके धर्मशास्त्र क्या कहते है ???
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफलाः क्रियाः ।।
अर्थात -- जिस कुल में नारियों की पूजा अर्थात सत्कार (तत्र) उस कुल में (देवता) दिव्यगुण = दिव्य भोग और उत्तम संतान होते हैं (यत्र) और जिस कुल में (एतास्तु न पूज्यन्ते ) स्त्रियों की पूजा नहीं होती है वहाँ जानो उनकी सब क्रिया निष्फल है।
प्रजनार्थ महाभागाः पूजार्हाः गृहदीप्तयः।स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषो$स्ति कश्चन।।
हे पुरुषो ! संतानोत्पत्ति के लिए महाभाग्योदय करने वाली पूजा के योग्य गृहाश्रम को को प्रकाशित करती,सन्तानोपत्ति करने कराने वाली घरों में स्त्रियां हैं वे श्री अर्थात लक्ष्मीस्वरूप होती हैं क्योंकि लक्ष्मी, शोभा,धन और स्त्रियों में भेद नहीं है।
कहीं पढ़ा था कि कानून परम्पराओं के आधार पर बनाये जाते हैं , लेकिन भारत में तो ऐसा लग रहा है कि कानून परम्पराओं को तोड़ने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। ऐसा भारत में ही क्यों होता है कि धर्म देख कर कानून और संविधान की भाषा बदल जाती है??? ऐसा क्यों होता है कि बह्संख्यकों के देश में उनकी भावनाओं और परम्पराओं का कोई मूल्य नहीं है ??? ऐसा क्यों होता है भारत में कि मंदिरों पर तो सरकारी अधिकार चलते हैं और मुस्लिमों के लिए #दरगाह_ख्वाजा_एक्ट_1955 बना दिया जाता है ???
भारत में ही ऐसा क्यों होता है ??? क्योंकि हिन्दू असहिष्णु कहे जाने तक की हद तक बर्दाश्त करते हैं या वाकई ये कौम गुलाम होने तक की हद सहिष्णुता रखती है ???
शनिवार, 6 अक्टूबर 2018
तैयारी एक और विभाजन की
वर्ष 634 में समुद्र के रास्ते व्यापारियों के रूप में आये फिर 674 में काबुल और मुल्तान तक आक्रमणकारियों के रूप में आये। कुछ शताब्दियों तक शांत रहने के बाद आये थे व्यापार करने और यहीं बस गए। आये थे लूटने और यहीं बस गए। आये थे सूफी बनकर धर्मपरिवर्तन करने और यहीं बस गए। आये थे शरणार्थी बनकर और यहीं बस गए। ---------------------
अगर आपमें अपने विरोधियों की प्रशंसा करने का कलेजा है तो आप एक बात की प्रशंसा ज़रूर करेंगे कि ये आये भी मुसलमान थे रहे भी मुसलमान की तरह और बजाये कि हिन्दू धर्म अपनाने के हिन्दुओं का धर्म बदल दिया। सिर्फ इतना ही होता तो काफी था , लेकिन मजे की बात यह है कि भारत में आज जितने भी मुसलमान हैं उनमे से 95% हिन्दू धर्म से परिवर्तित हैं और उनकी भी निष्ठाएँ भारत माता नहीं बल्कि मक्का मदीना और मुस्लिम देशों के साथ हैं।
बात यहीं ख़त्म हो जाती तो गनीमत थी, इनकी धार्मिक मान्यता के हिसाब से पूरी दुनिया को #दारुल_इस्लाम बनाना है। दारुल इस्लाम में राजा और प्रजा दोनों मुसलमान होते हैं। लेकिन इकलौता भारत ऐसा देश है जहाँ ये आये और पूरी प्रजा को मुसलमान नहीं बना पाए तो इन्होने इस्लामिक राजा के राज को ही दारुल इस्लाम मान कर दिल को तसल्ली दे ली।
1857 में बहादुर शाह ज़फर की सत्ता ख़त्म होते ही #दारुल_इस्लाम के इनके कीड़े कुलबुलाने लगे। आगे की 50 साल की कहानी को छोड़ते हुए यह समझ लीजिये 1906 में इन्होने अपने हितों को सर्वोपरि मानते हुए मुस्लिम लीग का गठन किया और इसी वर्ष अपनी मांगों की लम्बी चौड़ी फेहरिस्त के साथ अपने लिए जनसँख्या के अनुपात में पृथक निर्वाचन की मांग कर दी। 1909 में मिंटो मोर्ले रिफार्म इनकी यह मांग मान भी ली गयी और सोने में सुहागा कांग्रेस ने 1916 के लखनऊ समझौते के तहत इनकी इस मांग को स्वीकार करके कर दिया। आगे बताने की ज़रुरत नहीं है कि पृथक निर्वाचन की मांग से शुरू होकर इन्होने धर्म के नाम पर सिंध अलग देश बना दिया पकिस्तान और बांग्लादेश अलग देश बना दिए। वो एक मांग उठी थी 1906 में जो आपको ग़लतफहमी है कि 1947 में ख़त्म हो गयी। लेकिन नहीं, आज है 2018 और फिर वही पृथक निर्वाचन और सरकारी प्रतिष्ठानों में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व की मांग शुरू हो गयी। ( आगे समझने के लिए एक तथ्य जान लीजिये की वर्तमान में पश्चिमी बंगाल में 30% मुसलमान हैं जो वृद्धिदर को मद्देनज़र रखते हुए 2035 में 37% होंगे कुछ जिलों में में ये अभी 40% से अधिक हैं)।
22 सितम्बर 2018 शनिवार को कोलकाता के बीचोंबीच स्थापित मिल्ली अल अमीन कन्या विद्यालय में एक अधिवेशन आयोजित किया गया । जिसमे मुस्लिम जमात के 350 सेवानिवृत और वर्तमान सरकार में कार्यरत प्रशाशनिक अधिकारियों , प्रोफेशनल्स , बुद्धिजीवियों , राजनीतिज्ञों और मौलवियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में "आल इंडिया नब चेतना"के संयोजक फारुख अहमद ने मांग रखी कि यदि तृणमूल वाकई में मुसलामानों का भला करना चाहती है तो जनसंख्या के अनुपात में बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 14 और विधानसभा की 294 सीटों में से 98 सीटों पर मुसलामानों के लिए आरक्षित करे।
2006 की सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के हिसाब से बंगाल की वामपंथी सरकार में 3.4 मुस्लिम सरकारी नौकरियों में थे। इस तथ्य से नाराज़ मुसलामानों ने वामपंथियों का साथ छोड़ कर ममता का साथ पकड़ा जिन्होंने इनकी आरक्षण समेत 123 मांगे मानने का वायदा किया था और उसी आधार पर 2011 चुनाव जीता और तुष्टिकरण की प्रबल राजनीती करते हुए 2016 का चुनाव भी जीता।
इसी अधिवेशन में क़ाज़ी फज़लुर रेहमान जो कि कोलकाता में ईद की सबसे बड़ी नमाज़ अदा करवाते हैं ने सरकारी नौकरियों में मुसलामानों के लिए 30% आरक्षण की मांग करते हुए कहा कि ममता ने अभी हमारी खास 12 मांगों में से सिर्फ 6 मांगें ही मानी हैं और यदि समयसीमा में 123 मांगें पूरी नहीं की गयीं तो ममता को हम वोट दें इसकी कोई गारंटी नहीं है।
उधर इस गोष्ठी में जो तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संदीप बंधोपाध्याय , डेरेक ओ ब्रेन , नदीमुल हक़ और अहमद हसन इमरान भी मौजूद थे उन्होंने वहां मौजूद तमाम संगठनों के पार्टिनिधित्वों को विश्वास दिलाया कि उनकी सभी मांगे वैसे ही मान ली जाएँगी जैसे 97% बंगाल के मुसलामानों को OBC में शामिल करके आरक्षण दे दिया गया है।
यदि तृणमूल के अंदरूनी वरिष्ठ सदस्य की मानी जाये तो उनके हिसाब से 14 लोकसभा सीटों पर जनसँख्या के अनुपात में प्रत्याशी खड़ा करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि बंगाल की जनता समझदार और #सेक्युलर है और वो धर्म के आधार पर वोट नहीं डालती और कोई भी खड़ा हो जनता दीदी को वोट डालती है इसलिए जीत तो ये जायेंगे ही। यदि यह प्रयोग सफल रहा तो हम जनसँख्या के अनुपात में 2021 के विधान सभा चुनावों में प्रत्याशी खड़े करेंगे।
चाहें इसे 1200 (वर्ष 634 ) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें 112 (वर्ष 1906) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें 72 (1947) साल पहले की घटनाओं से जोड़िये चाहें इसे NRC से और रोहिंगियों को वापस भेजने पर उठे बवाल से जोड़िये । देश के एक और विभाजन का बीज बो दिया गया है। उसमे फल कितने साल बाद लगेंगे यह तो मैं नहीं बता सकता लेकिन फिलहाल मुंह से यही निकल रहा है -----
जंगल के कटने का किस्सा न होता।
कुल्हाड़ी में अगर लकड़ी का हिस्सा न होता।
गुरुवार, 20 सितंबर 2018
कौन लेगा सबक इतिहास से ???
आपको याद तो होगा ही कि याकूब मेमन और अफ़ज़ल गुरु की फांसी रुकवाने के लिए बहुत से #हिन्दू_मुस्लिम एकता के कर्णधारों ने अपने पिछवाड़े आसमान तक उठा दिए थे। बुरहान बानी और खालिद मियाँ को नायक कैसे बनाया गया यह सब भी आप लोगों ने देखा। ऐसा नहीं है कि कातिलों की फांसी रुकवाने की यह कोशिश पहली बार की गयी थी। ऐसी ही कोशिश 1935 के आस पास की गयी थी बस कोशिश करने वाले पात्र और उस समय दिए गए तर्क कुछ अलग थे।
आज ही तरह #हिन्दू_मुस्लिम एकता की मृगतृष्णा में 1916 के खिलाफत आंदोलन से एक शख्स (नाम आप जानते है) ने भागना शुरू किया और और आज भी बहुत से लोग इस दिशा में बयान देते और शायद दौड़ते हुए नज़र आ रहे हैं।
100 सालों में स्थितियों में क्या फ़र्क़ आया है इसका आँकलन आप लोग खुद कर लीजियेगा लेकिन 100 साल पहले भी परिस्थितियां कुछ ज्यादा भिन्न नहीं थीं और उस समय की परिस्थितयों को बयान करते हुए डॉ अम्बेडकर लिखते हैं ----
"सबसे पहले स्वामी श्रद्धानन्द की 23 दिसम्बर 1926 को हत्या की गयी। उसके बाद लाला नानकचन्द जो कि दिल्ली के प्रसिद्द आर्यसमाजी थे उनकी हत्या की गयी। #रंगीला_रसूल के लेखक राजपाल का 6 अप्रैल 1929 को उस समय क़त्ल कर दिया गया जब वे अपनी दूकान पर बैठे थे। सितम्बर 1934 में अब्दुल कयूम ने नाथुरामल शर्मा की हत्या कर दी। यह एक बड़ा दुस्साहसिक कार्य था क्योंकि उस समय शर्मा सिंध के जुडिशियल कमिश्नर की अदालत में इस्लामिक इतिहास के बारे में एक पेम्फ्लेट प्रकाशित करने को लेकर भारतीय दंड संहिता की धारा 195 के अंतर्गत मिली सज़ा के विरुद्ध अपनी अपील की सुनवाई का इंतज़ार कर रहे थे।
यहाँ एक बहुत छोटी सी सूची दी गयी है और इसे आसानी से और लम्बा किया जा सकता है परन्तु महत्त्व की बात यह नहीं है कि धर्मांध मुसलामानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गयी ? मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का जिन्होंने ये क़त्ल किये। जहाँ कानून लागु किये जा सके वहां हत्यारों को कानून के अनुसार सजा मिली , तथापि प्रमुख मुसलामानों ने इन अपराधियों की निंदा कभी नहीं की। इसके विपरीत उन्हें #गाज़ी बताकर उनका स्वागत किया गया उनके क्षमादान के लिए आंदोलन शुरू कर दिए गए । इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बेरिस्टर मि बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथुरामल की हत्या का दोषी नहीं है क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलामानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है परन्तु जो बात समझ में नहीं आती , वह है गांधीजी का दृष्टिकोण।
गांधीजी ने हिंसा की किसी भी घटना का कोई अवसर नहीं छोड़ा ,उन्होंने कांग्रेस को भी उसकी इच्छा के विपरीत हिंसा की घटनाओं की निंदा की लिए विवश किया। परन्तु इन हत्याओं पर गाँधी जी ने कभी विरोध प्रकट नहीं किया।मुसलामानों ने तो कभी इन जघन्य अपराधों की निंदा की ही नहीं। इसके अतिरिक्त गाँधी जी ने कभी मुसलामानों से इन हत्याओं की निंदा करने का आग्रह नहीं किया। उनके इस विषय में चुप्पी साधने के दृष्टिकोण की केवल यही व्याख्या की जा सकती है कि गाँधी जी ने हिन्दू मुस्लिम एकता बनाये रखने की खातिर कुछ हिन्दुओं की हत्या की कोई चिंता नहीं की बशर्ते हिन्दुओं के बलिदान से यह एकता बनी रहे।
मालाबार में मोपलाओं ने हिन्दुओं पर वर्णानातीत हृदयविदारक अत्याचार किये। समग्र दक्षिण भारत में प्रत्येक वर्ग के हिन्दुओं में इनसे भय की एक भयानक लहर दौड़ गयी और खिलाफत के कुछ पथभ्रष्ट नेताओं द्वारा मोपलाओं को मज़हब की खातिर की जाने वाली इस जंग के लिए बधाई दी गयी। इससे दक्षिण भारत के हिन्दू और उद्धेलित हो उठे। प्रत्येक व्यक्ति जानता था कि यह हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए ज़रुरत से ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी थी। किन्तु गाँधी जी हिन्दू मुस्लिम एकता की ज़रुरत के बारे में इतने ज्यादा सनकी हो चुके थे कि उन्होंने मोपलाओं के कारनामों और बधाई देने वाले खिलाफ़तवादियों को अनदेखा कर दिया। मोपलाओं के बारे में उन्होंने कहा कि मोपला भगवान् से डरने वाले बहादुर लोग हैं और वे उस बात के लिए लड़ रहे हैं जिसे वे धर्म समझते हैं, और उस तरीके से लड़ रहे हैं जिसे वे धार्मिक सझते हैं। _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _"
बताया गया है कि स्वामी श्रद्धानन्द के हत्यारे अब्दुल रशीद की आत्मा की शांति के लिए देवबंद के प्रसिद्द इस्लामी कॉलेज के विद्यार्थियों और प्रोफेसरों ने पांच बार कुरान का पूरा पाठ किया और प्रतिदिन कुरान की सवा लाख आयतों की तिलावल की गयी। उनकी प्रार्थना थी कि 'अल्लाह मियां ' मरहूम ( अर्थात अब्दुल रशीद) को आला -ए -उलियीन (सातवें बहिश्त) में स्थान दें। ( टाइम्स ऑफ़ इंडिया 30. 07.1927 , 'थ्रू इंडियन आईज' नाम के स्तम्भ से।)
These were Excerpts from -- "Pakistan or Partition of India" By Dr. B.R Ambedkar
ये अब्दुल रशीद के बारे पढ़ कर बुरहान बानी और याकूब मेमन के जनाजे याद आये आपको ??? बुरहान बानी का महिमामंडन याद आया आपको ??? अफ़ज़ल हम शर्मिंदा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं , याद आया आपको ???_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#_#
क्या बदला 1920 के दशक की हत्यायों या 1921-22 के मोपला हत्याकाण्ड के बाद की और आज की सोच में ?? सिर्फ समय बदला है। मंच बदला है। वक्ता बदले हैं। पात्र बदले हैं। मगर कुरान जब से लिखी गयी है उसमे नुक्ता भर बदलाव नहीं हुआ है और कुरान को मानने वाले बखूबी जानते हैं कि बड़े बड़े मंचों से कोई कुछ भी कह ले उन्हें काफिरों के साथ वही करना है जो कुरान और हदीस के हिसाब से वो सदियों से करते आये हैं। मोपला के कत्लेआम से पहले 900 साल तक तक के कत्लेआम आप भूलना चाहते हैं। मोपला के बाद डायरेक्ट एक्शन डे , नोआखली , विभाजन के समय के कत्लेआम , 1990 में कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम, पश्चिमी बंगाल में 2015 में 16 दंगों और 2016 में 24 दंगे और सैंकड़ों गांव के हिन्दुविहीन हो गए आप भूलना चाहते हैं। मर्जी आपकी है।
अब इतिहास से सबक लेना है या कुरान से यह समझने की ज़िम्मेदारी हिन्दुस्तान के काफिरों की है मुसलामानों की नहीं।
शनिवार, 15 सितंबर 2018
हिन्दुओं की नियति
भारतीय इतिहास के पन्ने पलट रहा था खून खौल रहा था , शर्म आ रही थी , गर्व हो रहा था , दिल फट रहा था , रोना आ रहा था -- कि आदतन हाथ फोन / फेसबुक पर चला गया और सामने आया जॉन दयाल का वो वक्तव्य कि " मोदी को अगर कोई हरायेगा तो हिन्दू ही हरायेंगे।"बिलकुल गलत नहीं कहा जॉन दयाल ने। एक तो हम हिन्दू इतिहास पढ़ना नहीं चाहते। जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वो वैसे भी विद्रूप कर दिया गया है। फिर विद्रूप इतिहास को भी न याद रखने की ज़ेहमत करते हैं और न ही उससे कोई सबक लेते हैं। और यह सबक न लेने की हमारी फितरत से वाकिफ हो कर ही जॉन दयाल ने कहा कि " हिन्दू ही मोदी को हरायेंगे।
पूरा इतिहास लिखना एक पोस्ट में न संभव है और न #हिन्दू उसे पूरा पढ़ना चाहेंगे।वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में डॉ अम्बेडकर द्वारा रचित "पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया " (1940 )से दो पैराग्राफ यहाँ उद्धृत करने के पश्चात् कुछ वाक्यों में अपनी बात को विराम दूंगा।
1)पृष्ठ संख्या 75 --
" धर्मांतरण के लिए बाध्य करने हेतु अनेकानेक कठोर कदम उठाये गए थे। एक हृदयविदारक मामले का उल्लेख फ़िरोज़शाह के शासन काल (1351-1388) का है। दिल्ली के एक ब्राह्मण पर आरोप लगाया गया कि वो अपने घर में मूर्तियों की पूजा करते और मुस्लिम महिलाओं को काफिर बनाते उसको पकड़ा गया और उसका मामला न्यायधीशों , चिकित्सकों, बुजुर्गों और वकीलों के समक्ष पेश किया गया। उन्होंने उत्तर दिया कि कानून के प्रावधान सुस्पष्ट हैं। ब्राह्मण या तो मुसलमान बन जाये अथवा उसे जला दिया जाये। उसे सच्चे दीन से अवगत करा दिया गया और सही राह भी उसे दिखायी गयी परन्तु उसने मानने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप सुल्तान के आदेश से उसे जला दिया गया और टिप्पणीकार ने लिखा कि -- कानून और इन्साफ के प्रति सुलतान के गहन लगाव को देखो कि किस तरह से वह अपने आदेशों से तनिक भी नहीं डिगते। "
2) पृष्ठ 77 --
"हिन्दुओं पर कर (Tax) उनकी भूमि के उत्पादन में से आधा तक था और उन्हें अपनी सभी भैंसों, बकरियों और अन्य दुधारू पशुओं पर भी कर चुकाना पड़ता था। धनी और निर्धन सभी को प्रति एकड़ और प्रति पशु की दर से सामान रूप से कर चुकाना होता था। नए नियमों को कड़ाई से लागू किया जाता था। ऐसी व्यवस्था की गयी थी जिससे कि राजस्व अधिकारी बीस विशिष्ट हिन्दुओं को शिकंजे में कस कर उनपर घूंसों से प्रहार करें और वसूली कर सकें। किसी भी हिन्दू घर में सोना अथवा चांदी तो क्या सुपारी जिसे ख़ुशी के अवसर पर पेश किया जाता है तक भी दिखाई नहीं देती थी और इन असहाय बनाये गए देशज अधिकारीयों की पत्नियों को मुस्लिम परिवारों में नौकरी करके गुज़ारा करना पड़ता था। "
उस समय के इतिहासकार का कथन है कि -- सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने मुस्लिम क़ानून के अंतर्गत हिन्दुओं की स्थिति के बारे में जब क़ाज़ी से सवाल किया तो क़ाज़ी ने स्पष्ट करते हुए बताया --
" उन्हें ख़िराज (कर) अदा करने वाला कहा जाता है और जब राजस्व अधिकारी उनसे चांदी मांगे तो उन्हें बिना सवाल उठाये अति विनम्रता और आदर व्यक्त करते हुए सोना दे देना चाहिए। यदि अधिकारी उनके मुंह में मैला फेंके तो उन्हें निसंकोच अपना मुंह खोल कर उसे ले लेना चाहिए . . . . . । मुंह में मैला फेंके जाने और इस विनम्र अदायगी से धर्म की अपेक्षित अधीनता ही व्यक्त होती होती है। इस्लाम का गरिमा गान एक कर्तव्य और दीन के प्रति अनादर दम्भ है। खुदा उनसे नफ़रत करता है और उसका आदेश है कि उन्हें दासता में रखा जाये। हिन्दुओं को अपमानित करना खासतौर पर एक मज़हबी फ़र्ज़ है क्योंकि वे पैगम्बर के सर्वाधिक कट्टर दुश्मन हैं और क्योंकि पैगमबर ने हमें उनका कत्ल करने उन्हें लूटने और गुलाम बनाने का आदेश यह कहते हुए दिया है --उन्हें इस्लाम में दीक्षित करो अथवा मार डालो और उन्हें गुलाम बनाओ और उनकी धन सम्पदा नष्ट कर दो। किसी अन्य धर्माचार्य ने नहीं अपितु महान धर्माचार्य (हनीफ) जिसकी राह के हम अनुगामी हैं हिन्दुओं पर जजिया लगाए जाने की इज़ाज़त दी है अन्य पंथों के धर्माचार्य भी किसी अन्य विकल्प की नहीं अपितु "मौत या इस्लाम " की ही अनुमति देते हैं।"
मुहम्मद गज़नी के आने और अहमद शाह अब्दाली की वापसी के बीच जो 762 वर्षों की अवधि रही उसकी यही कहानी है।
ये उद्धरण दिए थे डा आंबेडकर ने 1940 में।
हिन्दू क्यों लुटे, क्यों पिटे, क्यों गुलाम हुए उसके बहुत से कारण हैं। जिसमे से एक कारण है कि हिन्दू कभी एक नहीं हुए।
आज मोदी जी की नियत क्या है मुझे नहीं मालूम , लेकिन हिन्दुओं की नियति क्या है जॉन दयाल ने उसका पर्दा उठा दिया है। उन हिन्दुओं से 700 साल पुराने इतिहास और पूर्वजों द्वारा सही गयी यंत्रणाओं को याद रखने की उम्मीद क्या करें जिन्हे यह याद नहीं कि देश को धर्म के नाम पर बंटवाने वाली कांग्रेस और नेहरू/गाँधी परिवार था। जिन्हे यह नहीं याद कि अगस्त 1947 तक जो मुसलमान धर्म के नाम पर अलग देश मांग रहे थे उन्हें इसी देश में रोकने वाले ये नेहरू गाँधी और कांग्रेस वाले ही थे। जिन्हे यह नहीं याद की एक देश में दो संविधान दो झण्डे दो वजीरेआजम यहाँ तक कि कश्मीर में जाने के लिए वीसा का नियम भी कांग्रेस की ही देन था। समानता की बात करने वाले संविधान में आरक्षण की अवधि को दस साल से बेमियादी करने वाली भी कांग्रेस ही है। जब धर्म के नाम पर देश बंट ही गया था तो संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द 1975 में घुसेड़ने वाली कांग्रेस ही थी। वो कांग्रेस ही है जिसकी शह पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बना और आज भारत में अपनी शर्तों पर संविधान को दरकिनार करके शरिया अदालतें चला रहा है। ये कांग्रेस की ही देन थी कि एक समय पर पंजाब जला और कश्मीर और दार्जिलिंग आज तक जल रहा है।बांग्लादेशियों और रोहंगिया को भारत में बसाने वाली भी कांग्रेस ही है। यह कांग्रेस की ही देन है कि जिन उत्तर पूर्वी राज्यों में ईसाई कभी 1-2% हुआ करते थे आज 70% से अधिक हैं। आज एस सी एक्ट के लिए छाती पीटने वालो ये भी कांग्रेस का दिया हुआ है और इसके बाप कम्युनल वायलेंस बिल भी कांग्रेस ही ला रही थी।
मालूम है न कम्युनल वायलेंस बिल का मसौदा - - किसी भी दंगे के लिए जिम्मेदार कोई भी होता लेकिन गिरफ्तार सिर्फ हिन्दुओं को ही होना था।
मालूम है न कम्युनल वायलेंस बिल का मसौदा - - किसी भी दंगे के लिए जिम्मेदार कोई भी होता लेकिन गिरफ्तार सिर्फ हिन्दुओं को ही होना था।
ये जो बात बात में अख़लाक़, आसिफा, गौरी ,वेमुला के मुद्दों से दुनिया हिलाने लगते हैं , इन वामपंथियों को भी कांग्रेस ने ही दूध पिला पिला कर इतना बड़ा किया है।
सब कुछ छोड़ो गौहत्या और राम जन्मभूमि का इतिहास पढ़ लो, ये भी कांग्रेस के ही दिए हुए नासूर हैं जिनसे आज आपका खून रिस रहा है।
मैंने गलत कहा कि उपरोक्त घटनाओं के लिए कांग्रेस ज़िम्मेदार है। इसके लिए हम हिन्दू ज़िम्मेदार हैं जिनके पूर्वजों ने 60 साल तक अपनी खाल नोचने का निर्बाध लाइसेंस कांग्रेस को दिया। और बहुत कुछ आज के वो कूल ड्यूड जिम्मेदार हैं जिन्हे धर्म से कोई मतलब नहीं और वो 4 साल के फेसबूकिया मठाधीश ज़िम्मेदार हैं जो 1000-500 लाइक क्या पाने लग गए अपने ही मंदिरों और पुजारियों पर उंगलियां उठाने लग गए। भूल रहे हैं वो कि तुम कल उस बैलगाड़ी के नीचे आ कर जिसे खींचने की ग़लतफहमी पाल रहे हो उसे उन पुजारियों के पूर्वजों ने सदियों तक अपने बदन जला कर तमाम यंत्रणायें सह कर यहाँ तक पहुँचाया है।
कुछ नहीं हो सकता तीतर बटेर की तरह अलग अलग दिशा में उड़ने वाले हिन्दुओं का। जॉन दयाल ने आधी बात कही है , पूरी मैं कर देता हूँ ---- हिन्दू ही मोदी को हरायेंगे और गुलामी इनकी फितरत में है ये उससे बाज नहीं आएंगे।
इतिहास पढ़ कर खून खौल रहा है , शर्म आ रही है गर्व हो रहा। गर्व इसलिए कि हमारे पूर्वजों ने सब कष्ट सहे लेकिन अपना धर्म नहीं छोड़ा। दुःख इसलिए हो रहा है कि हमने इतिहास से सबक न लेने की कसम खा रखी है।रविवार, 19 अगस्त 2018
आज भी हम बाँटे जा रहे हैं
1)आज मेरे बहुत से आहत भाई #नोटा_नोटा चिल्ला रहे है
2) सिर्फ 70 से 80 साल लगे भारतियों को अपनी जड़बुद्धि के कारण अपनी जड़ों और संस्कृति से कटने के लिए।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ,अंग्रेज़ों ने इस संग्राम का पूरा विश्लेषणात्मक अध्ययन किया और चिन्हित किया उन वर्गों को जिन्होंने इसमें हिस्सा लिया था। जिन सेनाओं ने इनका विरोध किया था उन्हें विघटित कर दिया। जिन्होंने इनका साथ दिया था उन्हें पुरुस्कृत करके अपने साथ मिला लिया। वैसे तो मुसलामानों ने भी विद्रोह में इनके खिलाफ लड़ाई लड़ी थी लेकिन, हिन्दू मुस्लिम भेद इन्हे मालूम था जिसके चलते मुसलामानों को गोद में बिठाने के लिए प्रलोभन दिए गए और पहले से हिन्दू मुस्लिम में पड़ी हुई फूट की खाई को और चौड़ा करना शुरू कर दिया । और एक वर्ण विशेष ( आप खुद समझने की कोशिश करें, मैं किस वर्ण को इंगित कर रहा हूँ) जिसने भारत भर में इनके खिलाफ विद्रोह का तंत्र तैयार किया था उसका ये सीधे तौर पर तो कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे तो उसके खिलाफ इतिहास लिख कर कर दुष्प्रचार शुरू दिया। #आर्यन_इन्वेजन_थ्योरीऔर मंदिरों का चढ़ावा वसूल कर आर्थिक रूप से कमर तोड़ने वाला #रिलीजियस_एंडोमेंट_एक्ट_1863 इसी दिशा में कुछ कदम थे।
माइकल मैकॉलिफ , इंग्लैंड के इसाई परिवार में पैदा हुआ और 1864 में पंजाब सूबे में प्रशासनिक अधिकारी के रूप में भेजा गया जो कि 1893 में पंजाब से ही सेवानिवृत हो गया और सिख धर्म अपना कर वहीँ बस गया। 1903 में प्रकाशित मैकॉलिफ के एक लेख " A Lecture on the Sikh Religion and its Advantages to the State" में 1901 की जनगणना का सन्दर्भ देते हुए , लेखक कहता है कि " पिछली जनगणना के दौरान गाँवों के सिखों ने अपने आपको हिन्दू बतया था, जो दरअसल वे थे भी"।
फिर 1980 के दशक में अचानक ऐसा क्या हो गया कि पंजाब की सड़कों पर हिन्दू मारे जाने लगे , खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स , बब्बर खालसा जैसे संगठन खड़े हो गए। मजे की बात की खालिस्तान को चाहने वाले जितने भारत में थे उससे ज्यादा इंग्लैंड कनाडा और पकिस्तान में थे और हैं। आज भी अफगानिस्तान और पकिस्तान के सिखों की किसी को चिंता नहीं है, मगर भारत के उस हिस्से पर खालिस्तान चाहिए जिसके नक़्शे में ननकाना साहिब जैसी महत्वपूर्ण जगहे हैं ही नहीं।
हिन्दुओं को खंड खंड करने का प्रयास तो पहले से ही चल रहा था, उसमे इज़ाफ़ा किया 1911 की जनगणना से। प्रान्तीय अधीक्षकों को आदेश दिए गए कि जिन्होंने अपने आप को सिर्फ हिन्दू घोषित किया है , उनकी जातियाँ और कबीले चिन्हित करके उनमे से प्रत्येक से निम्न सवाल पूछे जाएँ कि क्या वे ---
1) ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का खंडन करते हैं
2) उन्हें ब्राह्मणों या अन्य हिन्दू गुरुओं से मन्त्र दीक्षा नहीं दी जाती है।
3) वे हिन्दू देवी देवताओं को नहीं पूजते है।
4) अच्छे ब्राह्मण उनके पारिवारिक अनुष्ठान नहीं करते।
5)मंदिरों के गर्भगृहों में उनको प्रवेश की अनुमति नहीं है।
6) मृतकों को दफ़न करते हैं।
7) गौमांस का भक्षण करते हैं और गौ को पूजनीय नहीं मानते।
माइकल मैकॉलिफ , इंग्लैंड के इसाई परिवार में पैदा हुआ और 1864 में पंजाब सूबे में प्रशासनिक अधिकारी के रूप में भेजा गया जो कि 1893 में पंजाब से ही सेवानिवृत हो गया और सिख धर्म अपना कर वहीँ बस गया। 1903 में प्रकाशित मैकॉलिफ के एक लेख " A Lecture on the Sikh Religion and its Advantages to the State" में 1901 की जनगणना का सन्दर्भ देते हुए , लेखक कहता है कि " पिछली जनगणना के दौरान गाँवों के सिखों ने अपने आपको हिन्दू बतया था, जो दरअसल वे थे भी"।
फिर 1980 के दशक में अचानक ऐसा क्या हो गया कि पंजाब की सड़कों पर हिन्दू मारे जाने लगे , खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स , बब्बर खालसा जैसे संगठन खड़े हो गए। मजे की बात की खालिस्तान को चाहने वाले जितने भारत में थे उससे ज्यादा इंग्लैंड कनाडा और पकिस्तान में थे और हैं। आज भी अफगानिस्तान और पकिस्तान के सिखों की किसी को चिंता नहीं है, मगर भारत के उस हिस्से पर खालिस्तान चाहिए जिसके नक़्शे में ननकाना साहिब जैसी महत्वपूर्ण जगहे हैं ही नहीं।
हिन्दुओं को खंड खंड करने का प्रयास तो पहले से ही चल रहा था, उसमे इज़ाफ़ा किया 1911 की जनगणना से। प्रान्तीय अधीक्षकों को आदेश दिए गए कि जिन्होंने अपने आप को सिर्फ हिन्दू घोषित किया है , उनकी जातियाँ और कबीले चिन्हित करके उनमे से प्रत्येक से निम्न सवाल पूछे जाएँ कि क्या वे ---
1) ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का खंडन करते हैं
2) उन्हें ब्राह्मणों या अन्य हिन्दू गुरुओं से मन्त्र दीक्षा नहीं दी जाती है।
3) वे हिन्दू देवी देवताओं को नहीं पूजते है।
4) अच्छे ब्राह्मण उनके पारिवारिक अनुष्ठान नहीं करते।
5)मंदिरों के गर्भगृहों में उनको प्रवेश की अनुमति नहीं है।
6) मृतकों को दफ़न करते हैं।
7) गौमांस का भक्षण करते हैं और गौ को पूजनीय नहीं मानते।
1911 की इसी जनगणना के आधार पर अपने तय पैमानों पर शेड्यूल कास्ट की सूची तैयार की और हिन्दू धर्म से अलग कर दिया। 1931 की जनगणना आते आते हिन्दुओं की जनगणना जातियों के आधार पर की जाने लगी और अनुसूचित जातियां और जनजातियां हिन्दू धर्म से अलग रख कर गिनी जाने लगीं। जातिप्रथा ईसाईयों और मुसलामानों में भी थी लेकिन उन्हें एक समूह में ही रखा गया।
बाकि इतिहास सबको मालूमहै कि कैसे संविधान, वामपंथियों ,मिशनरियों ने ,सत्ता के लालची नेताओ और मंडल कमीशन किसी ने कोई मौका नहीं छोड़ा हिन्दुओं के जेहन में ज़हर भरने का। गौर करें 70_से_80_साल भी नहीं लगे जड़ों से काटने और अपनों से अलग होने में।
बाकि इतिहास सबको मालूमहै कि कैसे संविधान, वामपंथियों ,मिशनरियों ने ,सत्ता के लालची नेताओ और मंडल कमीशन किसी ने कोई मौका नहीं छोड़ा हिन्दुओं के जेहन में ज़हर भरने का। गौर करें 70_से_80_साल भी नहीं लगे जड़ों से काटने और अपनों से अलग होने में।
रही बात #नोटा की तो सुप्रीम कोर्ट ने जब जब आरक्षण ( जो कि संविधान सभा के अनुसार 10 साल के लिए था) से उपजीत कुंठाओं का निराकरण करने की कोशिश की तब तब संसद ने 76वां , 77वां,81वां, 82 वां, 85 वां ,93वां संशोधन करके ऐसी छुरी से मक्खन लगाया जिससे एक को तो मक्खन लगा मगर दूसरे को ज़ख्म दे दिया।
इस मुद्दे पर मैं बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ। दिल मोदी के साथ है पर दिमाग कह रहा है कि या तो मोदी, विपक्ष और कैम्ब्रिज एनलिटिका के फेंके हुए जाल में फंस गए हैं या मेरे भाई।
आप मुझे मोदी या बीजेपी का गुलाम कह सकते हैं, पर याद रखियेगा आज ये स्थिति हिन्दू महासभा को और जनसंघ को वोट न देने के कारण आयी है। 2019 में मुसलमान अपना हित देखते हुए एकतरफा वोट डालेंगे। क्षेत्रीय दलों के समर्थक जिसमे ममता माया लालू मुलायम और आपको इस दशा में पहुँचाने के लिए ज़िम्मेदार कांग्रेस के समर्थक इन पार्टियों को वोट डालेंगे। आप #नोटा दबाएंगे उससे सिर्फ जीत हार का फासला कम होगा और जीते कोई भी हार आपकी ही होगी।
वैसे बहेलिये और अलग अलग दिशाओं में उड़ने वाले कबूतरों की कहानी तो याद होगी ही।
इस मुद्दे पर मैं बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ। दिल मोदी के साथ है पर दिमाग कह रहा है कि या तो मोदी, विपक्ष और कैम्ब्रिज एनलिटिका के फेंके हुए जाल में फंस गए हैं या मेरे भाई।
आप मुझे मोदी या बीजेपी का गुलाम कह सकते हैं, पर याद रखियेगा आज ये स्थिति हिन्दू महासभा को और जनसंघ को वोट न देने के कारण आयी है। 2019 में मुसलमान अपना हित देखते हुए एकतरफा वोट डालेंगे। क्षेत्रीय दलों के समर्थक जिसमे ममता माया लालू मुलायम और आपको इस दशा में पहुँचाने के लिए ज़िम्मेदार कांग्रेस के समर्थक इन पार्टियों को वोट डालेंगे। आप #नोटा दबाएंगे उससे सिर्फ जीत हार का फासला कम होगा और जीते कोई भी हार आपकी ही होगी।
वैसे बहेलिये और अलग अलग दिशाओं में उड़ने वाले कबूतरों की कहानी तो याद होगी ही।
Facts about census , have been taken from "FALLING OVER BACKWARDS" By Arun Shourie
शनिवार, 11 अगस्त 2018
#रूस_के_जासूस_का_भारत_को_तोड़ने_वाले_भारतियों_का_पर्दाफाश
#रूस_के_जासूस_का_भारत_को_तोड़ने _वाले_भारतियों_का_पर्दाफाश
दूध तो आप सभी मित्रों ने ज़िन्दगी में कभी उबाला होगा और यह भी अनुभव किया होगा कि आप खड़े खड़े दूध के उबलने का इंतज़ार कर रहे हैं और फिर आपका ध्यान जरा सा चूका कि दूध अचानक से उबल कर बर्तन से बाहर। फिर करते रहिये साफ़ सफाई और सुनते रहिये दुनियाभर की बातें।
आज जो कांवरियों पर, गौरक्षकों पर, दलितों के मुद्दों पर , अल्संख्यकों के मुद्दों पर, जेएनयू में अचानक से उबाल नज़र आ रहा है वो एक दिन, एक महीने, एक साल या एक दशक की कहानी नहीं है। उसकी पतीली गैस पर आज़ादी मिलने के दिन से ही चढ़ा दी गयी थी।
आज जो कांवरियों पर, गौरक्षकों पर, दलितों के मुद्दों पर , अल्संख्यकों के मुद्दों पर, जेएनयू में अचानक से उबाल नज़र आ रहा है वो एक दिन, एक महीने, एक साल या एक दशक की कहानी नहीं है। उसकी पतीली गैस पर आज़ादी मिलने के दिन से ही चढ़ा दी गयी थी।
यूरी बेज़मैनोव रूस का एक जासूस था जिसे इन्दिरा गाँधी की सरकार के दौरान केजीबी के एजेंट के रूप में भारत भेजा गए था। इंदिरा गाँधी तक को इस बात की भनक नहीं थी कि दुभाषिये के रूप में ये जासूस है। एक अमेरिकन टीवी को अपने इंटरवयू में बेज़मैनोव बताता है कि उसकी टीम को भारत में "#यूज़फुल_इंडियन_इडियट्स का ब्रैनवॉश करके वामपंथी आइडियोलॉजी वाला गैंग तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी।
उन्हें रसूखदार व्यक्तियों, भारतीय मीडिया से जुड़े व्यक्तियों, फिल्मकारों , शिक्षा जगत से जुड़े बुद्धिजीवियों, अहंकारी और सनकी व्यक्तियों जिनके कोई आदर्श और नीतियाँ न हों ऐसे लोगों को भर्ती करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था।
उदाहरण के लिए , सुमित्रा नन्दन पंत जिन्होंने " Rhapsody To Lenin" लिखी थी , इस कारण उन्हें रशिया आमंत्रित किया गया , जिसका पूरा खर्च रूस की सरकार ने वहन किया था। #लिंक में सुमित्रा नंदन पंत जिस सभा में खड़े हो कर कुछ कह रहे हैं हैं उनकी मेज पर शराब की बोतलें नज़र आ रहीं है। इन शराब की बोतलों की तरफ इशारा करते हुए बेज़मैनोव कहता है कि मेहमानों की जागरूकता और जिज्ञासा को मारने का यह एक तरीका था। केजीबी के कार्यों में एक मुख्य कार्य मेहमानों को हमेशा नशे में धुत्त रखना होता था। जैसे ही कोई मेहमान मास्को एयरपोर्ट पर उतरता था उसे मेहमानों के लिए बनाये गए विशिष्ट कक्ष में ले जाया जाता था और दोस्ती के नाम पर एक जाम होता था। एक गिलास वोदका फिर दूसरा गिलास वोदका और कुछ ही समय में मेहमान को दुनिया गुलाबी नज़र आने लगती थी। और 10-15 दिन जब तक मेहमान रशिया में रहता था तब तक उन्हें इसी हालत में रखा जाता था।
आगे यूरी बेज़मैनोव बताता है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेस्सरों ,वामपंथी और वामपंथ की तरफ झुकाव रखने वाली पार्टियों , लेखकों, कवियों, भारतीय मीडिया , समाचार पत्रों, नक्सलवादियों और माओवादियों को आज़ादी के बाद से ही रूस वामपंथी आइडियोलॉजी को भारत में फ़ैलाने के लिए फंडिंग करता चला आ रहा है।
अपने अभियान के पहले चरण में उन्होंने जेएनयू और डीयू के प्रोफेसरों से दोस्ती की। दुसरे चरण में ये इन प्रोफेसरों को इंडो सोवियत फ्रेंडशिप सोसाइटी की बैठक में बुलाते थे। इन मीटिंग्स का पूरा खर्च सोवियत सरकार वहन करती थी। इन प्रोफेसरों को यकीं दिलाया जाता था कि वे बहुत गंभीर और विलक्षण किस्म के बुद्धिजीवी हैं। जबकि असल भावना इसके बिलकुल विपरीत होती थी। उन्हें बुलाया इसलिए जाता था क्योंकिवे " यूज़फुल इडियट्स" होते थे और वे सोवियत संघ द्वारा पढ़ाई गयी पट्टी को बहुत एकाग्र चित से कंठस्थ करके भारत आते थे और फिर अपने द्वारा पढ़ाये जाने वाले हर विद्यार्थी को वामपंथ की वही पट्टी दशकों तक पढ़ाते थे। (जरा सोचिये --जेएनयू की निवेदिता मेनन क्या इसी श्रेणी में तो नहीं आतीं ???)
बेज़मैनोव के अनुसार भारत के वामपंथ, लेफ्टविंग मीडिया छदमबुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों को इस समय पाकिस्तान की आई इस आई (ISI) पोषित और संचालित कर रही है। जो लोग सोवियत और आईएसआई की विचारधारा को आगे बढ़ाते हैं उन्हें मीडिया के शोर और फ़र्ज़ी जनमत के आधार पर महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया जाता है। और जो इनकी विचारधारा का समर्थन नहीं करते उनकी या तो हत्या कर दी जाती है या चरित्र हनन करके उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा जाता।
किसी दिन बेज़मैनोव की आत्मा को भारत के के खिलाफ इन षड्यंत्रों ने जगा दिया और वे इनसे दरकिनार होने के लिए भूमिगत हो गए। भारत सरकार ने उनकी गुमशुदगी के विज्ञापन छपवाए जिससे जब वे मिल जाएँ तो उन्हें रूस सरकार के सुपुर्द कर दिया जाए। लेकिन बेज़मैनोव को मालूम था की यदि वे पकडे गए तो रूस की सरकार उन्हें मरवा देगी इसलिए वे चुप कर कनाडा चले गए जहाँ उन्होंने कुछ टीवी इंटरव्यू दिए जिनमे से एक का अंश यह है।
बेज़मैनोव का मानना था कि यदि भारत में स्थिति सुधारनी है तो आज इसी वक़्त से शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था बदलनी होगी तब कहीं अगले 20-25 सालों में बदलाव आना शुरू होगा।
परन्तु जैसा कि उन्हें अंदेशा था रूस की सरकार ने उन्हें ज्यादा मुंह खोलने का मौका नहीं दिया और हत्या करवा दी।
उन्हें रसूखदार व्यक्तियों, भारतीय मीडिया से जुड़े व्यक्तियों, फिल्मकारों , शिक्षा जगत से जुड़े बुद्धिजीवियों, अहंकारी और सनकी व्यक्तियों जिनके कोई आदर्श और नीतियाँ न हों ऐसे लोगों को भर्ती करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था।
उदाहरण के लिए , सुमित्रा नन्दन पंत जिन्होंने " Rhapsody To Lenin" लिखी थी , इस कारण उन्हें रशिया आमंत्रित किया गया , जिसका पूरा खर्च रूस की सरकार ने वहन किया था। #लिंक में सुमित्रा नंदन पंत जिस सभा में खड़े हो कर कुछ कह रहे हैं हैं उनकी मेज पर शराब की बोतलें नज़र आ रहीं है। इन शराब की बोतलों की तरफ इशारा करते हुए बेज़मैनोव कहता है कि मेहमानों की जागरूकता और जिज्ञासा को मारने का यह एक तरीका था। केजीबी के कार्यों में एक मुख्य कार्य मेहमानों को हमेशा नशे में धुत्त रखना होता था। जैसे ही कोई मेहमान मास्को एयरपोर्ट पर उतरता था उसे मेहमानों के लिए बनाये गए विशिष्ट कक्ष में ले जाया जाता था और दोस्ती के नाम पर एक जाम होता था। एक गिलास वोदका फिर दूसरा गिलास वोदका और कुछ ही समय में मेहमान को दुनिया गुलाबी नज़र आने लगती थी। और 10-15 दिन जब तक मेहमान रशिया में रहता था तब तक उन्हें इसी हालत में रखा जाता था।
आगे यूरी बेज़मैनोव बताता है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेस्सरों ,वामपंथी और वामपंथ की तरफ झुकाव रखने वाली पार्टियों , लेखकों, कवियों, भारतीय मीडिया , समाचार पत्रों, नक्सलवादियों और माओवादियों को आज़ादी के बाद से ही रूस वामपंथी आइडियोलॉजी को भारत में फ़ैलाने के लिए फंडिंग करता चला आ रहा है।
अपने अभियान के पहले चरण में उन्होंने जेएनयू और डीयू के प्रोफेसरों से दोस्ती की। दुसरे चरण में ये इन प्रोफेसरों को इंडो सोवियत फ्रेंडशिप सोसाइटी की बैठक में बुलाते थे। इन मीटिंग्स का पूरा खर्च सोवियत सरकार वहन करती थी। इन प्रोफेसरों को यकीं दिलाया जाता था कि वे बहुत गंभीर और विलक्षण किस्म के बुद्धिजीवी हैं। जबकि असल भावना इसके बिलकुल विपरीत होती थी। उन्हें बुलाया इसलिए जाता था क्योंकिवे " यूज़फुल इडियट्स" होते थे और वे सोवियत संघ द्वारा पढ़ाई गयी पट्टी को बहुत एकाग्र चित से कंठस्थ करके भारत आते थे और फिर अपने द्वारा पढ़ाये जाने वाले हर विद्यार्थी को वामपंथ की वही पट्टी दशकों तक पढ़ाते थे। (जरा सोचिये --जेएनयू की निवेदिता मेनन क्या इसी श्रेणी में तो नहीं आतीं ???)
बेज़मैनोव के अनुसार भारत के वामपंथ, लेफ्टविंग मीडिया छदमबुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों को इस समय पाकिस्तान की आई इस आई (ISI) पोषित और संचालित कर रही है। जो लोग सोवियत और आईएसआई की विचारधारा को आगे बढ़ाते हैं उन्हें मीडिया के शोर और फ़र्ज़ी जनमत के आधार पर महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया जाता है। और जो इनकी विचारधारा का समर्थन नहीं करते उनकी या तो हत्या कर दी जाती है या चरित्र हनन करके उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा जाता।
किसी दिन बेज़मैनोव की आत्मा को भारत के के खिलाफ इन षड्यंत्रों ने जगा दिया और वे इनसे दरकिनार होने के लिए भूमिगत हो गए। भारत सरकार ने उनकी गुमशुदगी के विज्ञापन छपवाए जिससे जब वे मिल जाएँ तो उन्हें रूस सरकार के सुपुर्द कर दिया जाए। लेकिन बेज़मैनोव को मालूम था की यदि वे पकडे गए तो रूस की सरकार उन्हें मरवा देगी इसलिए वे चुप कर कनाडा चले गए जहाँ उन्होंने कुछ टीवी इंटरव्यू दिए जिनमे से एक का अंश यह है।
बेज़मैनोव का मानना था कि यदि भारत में स्थिति सुधारनी है तो आज इसी वक़्त से शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था बदलनी होगी तब कहीं अगले 20-25 सालों में बदलाव आना शुरू होगा।
परन्तु जैसा कि उन्हें अंदेशा था रूस की सरकार ने उन्हें ज्यादा मुंह खोलने का मौका नहीं दिया और हत्या करवा दी।
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अब आपको समझ आया कि रात में हुई घटना में सुबह पीड़ित की जाति कैसे छप जाती है ?? अब आपको पता चला कि जुनैद , पहलु खान , अख़लाक़ , गौरी लंकेश तो महीनो भर सुर्ख़ियों में छाते हैं लेकिन प्रशांत पुजारी को कोई नहीं पूछता। अब आपको पता चला कि कठुआ पर फ़िल्मी अदाकाराओं के पेट में दर्द क्यों होता है मंदसौर और बाड़मेर पर क्यों नहीं होता ??? अब आपको पता चला कि रोहिंगिया मुसलमानों पर सुप्रीम कोर्ट को दर्द क्यों होता है लेकिन पकिस्तान से आये हुए प्रताड़ित हिन्दू शरणार्थियों को जबरदस्ती वापिस भेजने पर किसी की आह नहीं निकलती ??? अब आपको मालूम पड़ा कि सेना पर पत्थर फेंकने वालों के खिलाफ पेलेट गईं चलाने की मनाही क्यों होती है और उन पर से केस क्यों वापिस हो जाते है और कांवरियों पर अटोर्नी जनरल और सुप्रीम कोर्ट क्यों एक साथ चिल्ला पड़ते है ??? अब आपको पता चला कि बँगाल में और केरल में हिन्दुओं की हत्यायों पर चर्चा क्यों नहीं होती और अलवर का आदतन गौतस्कर रक्बर खान क्यों पूरा सिस्टम हिला देता है ???? अब आपको पता चला कि ईसाई चर्चों और मदरसों में बलात्कारों की ख़बरें कैसे छुप जातीं हैं और सिर्फ हिन्दुओं की ख़बरें कैसे हफ़्तों तक चलायी जातीं हैं ???
इसके लिए मीडिया और देशद्रोही ताकतें जितनी जिम्मेदार हैं उतने ही है हमारे बीच में फैले हुए useful idiots भी जिम्मेदार हैं जो अपनी वृहदमानस्किता दिखाने के फेर में इन षड्यंत्रकारियों के साथ खड़े हो कर उनका मनोबल बढ़ाते हैं या कुछ ऐसे भी हैं जैसे आज एक मित्र की कांवरियों पर ( दो भाई अपने माँ बाप को काँवर में ले जा रहे हैं)वाली पोस्ट पर एक तूचिये यदुवंशी की टिपण्णी देखी कि " जिनके पास कोई काम नहीं होता वो काँवर ले कर जाते है। "
अब आपको समझ आया कि रात में हुई घटना में सुबह पीड़ित की जाति कैसे छप जाती है ?? अब आपको पता चला कि जुनैद , पहलु खान , अख़लाक़ , गौरी लंकेश तो महीनो भर सुर्ख़ियों में छाते हैं लेकिन प्रशांत पुजारी को कोई नहीं पूछता। अब आपको पता चला कि कठुआ पर फ़िल्मी अदाकाराओं के पेट में दर्द क्यों होता है मंदसौर और बाड़मेर पर क्यों नहीं होता ??? अब आपको पता चला कि रोहिंगिया मुसलमानों पर सुप्रीम कोर्ट को दर्द क्यों होता है लेकिन पकिस्तान से आये हुए प्रताड़ित हिन्दू शरणार्थियों को जबरदस्ती वापिस भेजने पर किसी की आह नहीं निकलती ??? अब आपको मालूम पड़ा कि सेना पर पत्थर फेंकने वालों के खिलाफ पेलेट गईं चलाने की मनाही क्यों होती है और उन पर से केस क्यों वापिस हो जाते है और कांवरियों पर अटोर्नी जनरल और सुप्रीम कोर्ट क्यों एक साथ चिल्ला पड़ते है ??? अब आपको पता चला कि बँगाल में और केरल में हिन्दुओं की हत्यायों पर चर्चा क्यों नहीं होती और अलवर का आदतन गौतस्कर रक्बर खान क्यों पूरा सिस्टम हिला देता है ???? अब आपको पता चला कि ईसाई चर्चों और मदरसों में बलात्कारों की ख़बरें कैसे छुप जातीं हैं और सिर्फ हिन्दुओं की ख़बरें कैसे हफ़्तों तक चलायी जातीं हैं ???
इसके लिए मीडिया और देशद्रोही ताकतें जितनी जिम्मेदार हैं उतने ही है हमारे बीच में फैले हुए useful idiots भी जिम्मेदार हैं जो अपनी वृहदमानस्किता दिखाने के फेर में इन षड्यंत्रकारियों के साथ खड़े हो कर उनका मनोबल बढ़ाते हैं या कुछ ऐसे भी हैं जैसे आज एक मित्र की कांवरियों पर ( दो भाई अपने माँ बाप को काँवर में ले जा रहे हैं)वाली पोस्ट पर एक तूचिये यदुवंशी की टिपण्णी देखी कि " जिनके पास कोई काम नहीं होता वो काँवर ले कर जाते है। "
करते रहिये साफ़ सफाई और सुनते रहिये दुनियाभर की बातें। अभी बहुत लड़ाई बाकि है।
शनिवार, 27 जनवरी 2018
इस्लाम के नीव है जिहाद
दुनिया भर में जब कोई आतंकी घटना होती है , तो रेत में सिर घुसेड़े शतुरमुर्ग एक सुर में बोलते हैं कि आतंकवाद का मज़हब नहीं होता। आतंकवाद का मज़हब सिर्फ और सिर्फ इस्लाम है और दुनिया को बेवकूफ बनाने वाले मुसलमान किसी को ये नहीं बताते कि इसके बीज कुरान जब डिक्टेट की जानी शुरू की थी उस समय कुरान में बोये गए थे और जिसने कुरान नहीं पढ़ी या आयतों के बताये जाने का इतिहास और सिलसिला नहीं जाना वो हर शख्स अपनी अज्ञानता या मुसलमानों के अतिवादी रवैय्ये से डर कर बोलता है कि " आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता ".
पोस्ट को संक्षिप्त रखने के लिए पूरा इतिहास नहीं लिख रहा हूँ, लेकिन एक बात दिमाग में बिठा लीजिये कि आज किसी पढ़े लिखे या जाहिल मुसलमान से यदि मोहमद के माका से मदीना जाने की बात करेंगे तो वो आपको बहुत ही दर्दनाक कहानियाँ सुनाएगा कि मक्का के कुरेशों ने मोहम्मद और इस्लाम अपनाने वालों को बहुत प्रदित किया और उन्हें मक्का से निकल दिया। ये सब झूटी कहानियाँ है। जबकि हकीकत यह है कि वर्ष 610 से लेकर 623 (मदीना जाने का वर्ष) तक मोहम्मद और इसके अनुयायियों ने मक्का में रहने वाले बहुदेव पूजक कुरेशों , यहूदियों, ईसाईयों , हनफ़ियों , पारसियों की ज़िन्दगी हराम कर दी थी। और जब मक्का में 13 साल में 100-125 से ज्यादा अनुयायी नहीं बना पाया तो मदीना के लोगों को प्रेरित करने के लिए खुद मदीना गया था। ( कोई ज्यादा बहस करे तो उसे "इब्न इस्हाक़" -तत्कालीन इतिहासकार की "सीरत रसूल " को पढ़ कर अपना मत निर्धारित करने के लिए कहिये।
कुरान में 164 जगह काफिरों और मुशरिकों (मूर्तिपूजकों ) के खिलाफ आदेश दिया है। शुरूआती दिनों में इस्लाम के नए नए अनुयायी अपने कुरैश सम्बन्धियों से लड़ना नहीं चाहते थे तो एक आयत 2:190 ( तुम लड़ो अल्लाह की राह में जो तुमसे लड़ने लगें _________) पढ़कर आपको लगेगा कि इसमें गलत क्या है , लेकिन , यदि मक्का के कुरेश असहिष्णु होते तो उस समय मक्का के के काबा में 360 अलग अलग देवताओं और धर्मों को मैंने वालों की मूर्तिया न होतीं और उसी मक्का में कुरैश , यहूदी , ईसाई और हनीफ धर्म को माने वाले मिलजुल क्र न रह रहे होते।
मक्का के लोग धार्मिक असहिष्णु नहीं थे यह बात अगली आयत से साफ़ हो जाती है --- सूरा 2 आयत 191 और उनको क़त्ल कर करो जहाँ उनको पाओ और उनको निकाल कर बाहर करो जहाँ से उन्होंने तुमको निकलने पर मजबूर किया है , #और_शरारत_क़त्ल_से_भी_ज्यादा_ सख्त_है। यहाँ मोहमद ने एक बार नहीं बताया कि कुरेशों और उनके धर्म की बेइज़्ज़ती कौन करता था ??? और इन हरकतों के कारण 617-619 तक के सामाजिक बहिष्कार के इलावा कुरेशों ने मोहम्मद के साथ कौन सी मार काट या प्रताड़ना दी थी ??? फिर 619 से 623 तक अगर कुरैशों ने न चाहा होता तो ये मक्का में कैसे रहा ?? उपरोक्त आयत में गौर करें कि मोहम्मद और खुदा की निगाह में शरारत क़त्ल से भी बढ़ कर है।
फिर आयत आती हैं 2:192 , फिर अगर वे लोग बाज आ जाएँ ( और इस्लाम कबूल कर ले) तो अल्लाह बक्श देंगे , 2:193 और उनके साथ इस हद तक लड़ो कि शिर्क न रहे और उनका दीं अल्लाह का हो जाये। इस तरह शुरुआत में इस्लाम नए अनुयायियों को जो अपने रिश्तेदारों सेज सम्बन्धी कुरेशों से लड़ना नहीं चाहते थे ,अल्लाह ने 164 आयते कह कर जिहाद के लिए उकसाया है।
खुदा ने वायदा किया था जो इस्लाम कबूल लेगा उसे बेहतरीन ज़िन्दगी देगा , मगर मक्का से आये हुए लोगों को मदीना के यहूदी पाल रहे थे। खुदा की बात सच करने के लिए और ज़िन्दगी चलने के लिए इन बेरोज़गारों को पैसे की ज़रुरत थी। तो मोहम्मद ने फरवरी 623 में कुरेशों के खिलाफ पहले ग़ज़वे का ऐलान किया और हार गया। अगले दो महीनो में दो बार और प्रयास किया जिनमे सफल रहा। आठ महीने शांत बैठने के बाद जनवरी 624 में मोहम्मद ने अपने 8 गुर्गो को अब्दुल्लाह इब्न जहश के नेतृत्व में एक मक्का के व्यापारिक काफिले को #नखला के पास लूटने के लिए भेजा। उमरा का महीना था। एक मुसलमान ने सिर मूँवा कर ऐसा प्रदर्शित किया जैसे तीर्थ यात्री है। इन्होने काफिले के चार सदस्यों में से 1 को मार दिया , दो को पकड़ लिया और एक भाग गया। लूट में खूब माल मिला। लेकिन नये मुसलमान इस मारकाट और लूटपाट के खिलाफ थे तो एक और आयत 8:69 उनको सुना दी गयी --- सो जो कुछ तुमने लिया उसको हलाल पाक (समझकर) खाओ और अल्लाह से डरते रहो , बेशक अल्लाह तआला बड़े बख्शने वाले बड़ी रेहमत वाले हैं। इसके साथ ही 8: 41 ---और जान लो कि जो चीज़ (काफिरों ) से गनीमत के तौर पर तुम्हे हासिल हो तो (उसका हुक्म यह है कि ) कुल माल का पाँचवाँ हिस्सा अल्लाह और उसके रसूल का है ______________
फिर जो मज़ा खुदा की हिदायत और अनुमति से लूटपाट , मारकाट करके जीने में आने लगा उसका सिलसिला आज तक न थमा।
मगर अफ़सोस इस्लाम के इस चरित्र को दुनियाभर के काफिरों को या तो आज तक यह समझ में ही नहीं आया या वो भी कुरैश ही बने रहना चाहते हैं जो समय रहते चेते नहीं और एक ही रात में मोहम्मद के आदेश #असलिम_तसलाम ( अगर सुरक्षित रहना चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो) पर मुसलमान हो गए।
( जिन्हे उपरोक्त पोस्ट पर संशय हो वे, इस्लाम को छोड़े हुए मुसलमानो Ali Sina , और M .A Khan को अवश्य पढ़ें)
हाँ कौन बेवकूफ कह रहा था इस्लाम शांति का मज़हब है ??? अबे ऐसा कहने वालो अपने आप तो मरोगे अपने बच्चों को भी मरवाओगे और अपनी औरतों को माले गनीमत में बँटवाओगे।
शुक्रवार, 5 जनवरी 2018
चर्चों का षड्यंत्र
सोते रहियेगा - - 1956 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त #नियोगी_कमीशन की ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों का पर्दाफाश करती "रिपोर्ट आफ क्रिस्चियन मिशनरी एक्टीविटीज़ इन्क्वायरी कमेटी मध्यप्रदेश 1956" (1950-54) जो कि मध्यप्रदेश सरकार ने छपवायी थी, बाजार में आने के कुछ दिनों बाद ही बाजार से ईसाईयों ने खरीद कर गायब कर दी। यहां तक कि पुस्तकालयों से भी इशू करवा कर कभी वापिस नहीं कीं। ( सत्यता जानने के लिए रिपोर्ट की मूल रचना कहीं ढूंढ कर दिखा दें। सनद रहे कुछ हिन्दुओं द्वारा बाद में प्रकाशित इसके सारांश की बात नहीं कर रहा हूं)। नागपुर हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश डाॅ एम भवानी शंकर नियोगी जो कि इस कमेटी के अध्यक्ष थे उन्होंने मिशनरियों को नंगा करके रख दिया था अपनी इस रिपोर्ट में।
13 जनवरी 1989 को इंडियन ऐक्सप्रेस ने खुफिया विभाग की एक गोपनीय रिपोर्ट प्रकाशित की कि कुछ संगठनों को अलग #झारखंड राज्य बनाने के लिए विदेशों से भरपूर पैसा मिल रहा है। किसी सदन या मंच पर इसकी चर्चा नहीं हुई हां सिर्फ ईसाई मिशनरी ने इस खबर पर विरोध दर्ज किया। सिर्फ इन्होंने ही क्यों??? इतिहास बताता है कि 15 नवम्बर 2000 को झारखंड अलग राज्य बना दिया गया।
तेलंगाना, जो अलग राज्य बना उसके मुख्यमंत्री का अल्पसंख्यक प्रेम आपको इस प्रकरण में ज्यादा सोचने का कष्ट नहीं देगा। न ही बोडोलैंड और गोरालैंड नाम के अलग राज्यों की मांग और नकसलियों को फंडिंग कहां से हो रही है इसमें ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत है।
13 जनवरी 1989 को इंडियन ऐक्सप्रेस ने खुफिया विभाग की एक गोपनीय रिपोर्ट प्रकाशित की कि कुछ संगठनों को अलग #झारखंड राज्य बनाने के लिए विदेशों से भरपूर पैसा मिल रहा है। किसी सदन या मंच पर इसकी चर्चा नहीं हुई हां सिर्फ ईसाई मिशनरी ने इस खबर पर विरोध दर्ज किया। सिर्फ इन्होंने ही क्यों??? इतिहास बताता है कि 15 नवम्बर 2000 को झारखंड अलग राज्य बना दिया गया।
तेलंगाना, जो अलग राज्य बना उसके मुख्यमंत्री का अल्पसंख्यक प्रेम आपको इस प्रकरण में ज्यादा सोचने का कष्ट नहीं देगा। न ही बोडोलैंड और गोरालैंड नाम के अलग राज्यों की मांग और नकसलियों को फंडिंग कहां से हो रही है इसमें ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत है।
आजादी के समय नार्थ ईस्ट राज्यों में ईसाईयों की जनसंख्या 1.23%थी जो 2001 में 39.8% हो गई।नार्थ ईस्ट के कुछ राज्यों में इनकी जनसंख्या में 1951 से 1971 के बीच 250 से 300% बढोतरी दर्ज की गई है।
1955 में पहली बार फिर 1960 में दूसरी बार लोकसभा में धर्मांतरण विरोधी बिल पेश किया गया था जिसे नेहरू ने पास नहीं होने दिया था।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय भारत में 50000 चर्च थे। 1977 में 369681 चर्च थे और आज की स्थिति जानने के लिए जब गूगल बाबा की सेवा ली तो इन्हीं की एक साईट #500K_Churchके अनुसार भारत में पांच लाख चर्च बनाने हैं।
चिकित्सा के क्षेत्र में इनके बढ़ते वर्चस्व और शिक्षा के क्षेत्र में एकाधिकार स्थापित करने के दिशा में बढ़ते इनके कदमों पर आंकड़े आने वाले दिनों में पेश करूंगा लेकिन उस संदर्भ में आज यह जान लीजिये कि 21 नवम्बर 1995 में "नेशनल कोआरडिनेशन कमेटी फार शेड्यूल कास्ट क्रिस्चियन" तथा कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस आफ इंडिया (CBCI) ने दलितों को दिये जाने वाले फायदे #ईसाई_दलितों को भी दिए जाने की मांग को लेकर भारत भर में 10000 स्कूल और 240 कालेज बंद रखे।
इन दोनों संगठनों ने यही बंद दुबारा अक्टूबर 1997 में दोहराया जब बिहार के दुमका में एक पादरी को एक आदिवासी लड़के की #_$#& मारने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
जिनको गलतफहमी है कि "भगवा आतंकवाद" और "फेनेटिकल हिन्दू कम्युनलिस्ट" (असहिष्षणु हिन्दू) राहुल गांधी या वर्तमान की देन हैं तो वे भी अपनी गलतफहमी दूर कर लें। ये दोनों शब्द नेहरू और तत्कालीन कांग्रेस ने 1955 में ही ईसाई मिशनरी के उकसावे पर ईजाद किये थे। राहुल और वर्तमान कांग्रेस तो वक्त वक्त पर उसे धो पोंछ कर और चमका कर दुनिया के सामने रख दुनिया में चल रहे हिन्दुओं के खिलाफ ग्लोबल टेररिज्म में अपनी हिस्सेदारी अदा कर रही है।
चिकित्सा के क्षेत्र में इनके बढ़ते वर्चस्व और शिक्षा के क्षेत्र में एकाधिकार स्थापित करने के दिशा में बढ़ते इनके कदमों पर आंकड़े आने वाले दिनों में पेश करूंगा लेकिन उस संदर्भ में आज यह जान लीजिये कि 21 नवम्बर 1995 में "नेशनल कोआरडिनेशन कमेटी फार शेड्यूल कास्ट क्रिस्चियन" तथा कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस आफ इंडिया (CBCI) ने दलितों को दिये जाने वाले फायदे #ईसाई_दलितों को भी दिए जाने की मांग को लेकर भारत भर में 10000 स्कूल और 240 कालेज बंद रखे।
इन दोनों संगठनों ने यही बंद दुबारा अक्टूबर 1997 में दोहराया जब बिहार के दुमका में एक पादरी को एक आदिवासी लड़के की #_$#& मारने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
जिनको गलतफहमी है कि "भगवा आतंकवाद" और "फेनेटिकल हिन्दू कम्युनलिस्ट" (असहिष्षणु हिन्दू) राहुल गांधी या वर्तमान की देन हैं तो वे भी अपनी गलतफहमी दूर कर लें। ये दोनों शब्द नेहरू और तत्कालीन कांग्रेस ने 1955 में ही ईसाई मिशनरी के उकसावे पर ईजाद किये थे। राहुल और वर्तमान कांग्रेस तो वक्त वक्त पर उसे धो पोंछ कर और चमका कर दुनिया के सामने रख दुनिया में चल रहे हिन्दुओं के खिलाफ ग्लोबल टेररिज्म में अपनी हिस्सेदारी अदा कर रही है।
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