शनिवार, 1 अक्टूबर 2016

जापान की एप्पल डिप्लोमेसी

1 अक्टूबर 1949 को "पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना" बने चीन ने कल भारत के खिलाफ दुबारा से अपने इरादे साफ़ कर दिए। एक ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी का पानी रोक कर और दूसरे संयुक्त राष्ट्र द्वारा अज़हर मसूद को आतंकवादी घोषित करने की प्रक्रिया में अपने वीटो का पुनः इस्तेमाल करके। चीन अपने हितों को देखते हुए कुछ भी गलत नहीं कर रहा है। चीन को पकिस्तान का साथ चाहिए क्योंकि उसे इस क्षेत्र में एक रणनीतिक साझेदार / सामरिक हितों को साधने वाला चाहिए। उसे समुद्र का लम्बा छोड़कर ग्वादर बंदरगाह तक पहुँचाने के लिए एक चोट रास्ता चाहिए जो POK से ही निकल सकता है। उसे अपनी सस्ते माल औद्योगिक इकाइयों को जिन्दा रखने के सस्ता खनिज चाहिए जो चीन पकिस्तान इकनोमिक कॉरिडोर के 3000 हज़ार किलोमीटर में भरा पड़ा है।इस सबके के लिए वो इस कॉरिडोर पर $46 बिलियन खर्च कर रहा है। इस 46 बिलियन में से 35 बिलियन बिजली उत्पादन पर खर्च करेगा जिसकी पकिस्तान को बहुत सख्त जरूरत है। नए रोज़गार पैदा करेगा जिसकी पकिस्तान को सख्त ज़रुरत है। पकिस्तान को एक ऐसे दोस्त की ज़रुरत है जो भारत के खिलाफ वक्त बेवक़्त हर गलत और सही में उसके साथ खड़ा हो। 

दिल्ली पर मुग़ल सल्तनत और इस्लाम का झण्डा फहराने का ख्वाब पलने वाले पकिस्तान को चीन में इस्लाम का क्या हाल है उसकी पूरी खबर है---- दाढ़ी, बुर्के, नमाज़ और रोज़ों पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है। चीन में कोई भी देशविरोधी या आतंकवादी गतिविधि के लिए सिर्फ एक सज़ा है सजाये मौत। 
लेकिन फिर भी चीन पकिस्तान को खुश करने के लिए अज़हर मसूद कोअंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादी घोषित नहीं होने दे रहा और पकिस्तान चीन को भारत की गर्दन तक पहुँचाने के लिए बैसाखियाँ दे रहा है। दोनों देशों की सोच के दूरगामी परिणाम होंगे। चीन जो किसी अंतरराष्ट्रीय कानून को नहीं मंटा इस क्षेत्र का माफिया होगा और पाकिस्तान अपना घर लुटवाने वाला गुर्गा। 
आने वाले दिनों में जो होगा देखा जायेगा , कह कर हम इस समस्या की अनदेखी करने की बेवकूफी नहीं कर सकते। गौर करें चीन ने भारत पकिस्तान और इजराइल सिंगापुर के बाद एक देश का रूप लिया था और आज चीन, इजराइल सिंगापुर कहाँ हैं और भारत और पकिस्तान कहाँ हैं। इन देशों ने यह देश के हितों को सर्वोपरि रखते हुए पंचवर्षीय को जगह पचास वर्षीय योजना बनायीं। देशवासियों को औकात में रखने के लिए न सिर्फ कड़े कायदे क़ानून बनाये बल्कि उनका कड़ाई से पालन भी किया और आज ये सब देश अपनी शर्तों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बात करते है। 

जापान को भी आप इन्ही देशो की श्रेणी में रख सकते हैं क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बर्बाद जापान ने भी 1947  में ही राजा को सर्वोपरि मानते हुए प्रजातन्त्र बहाल करने वाले संविधान को अपनाया था। और जब देशहित की बात आती है तो न सिर्फ जापानी सरकार की नीतियां स्पष्ट हैं बल्कि देश की जनता भी देश के लिए एक साथ कड़ी होती है। 
बात शुरू हुई थी --#एप्पल_डिप्लोमेसी से। जी आज की तरह एक समय था जब अमरीका अपने व्यापार को बढ़ने के लिए हर किस्म की दादागिरी करता था। जापान में कृषि के लिए ज़मीन कम होने के कारण वहां कृषि उत्पादों की कीमत अधिक होती है। अंतरराष्ट्रीय नियमो के तहत जापान को निर्यात के साथ आयत करना भी ज़रूरी था। 
इन्ही कृषि उत्पादों में सेब भी आता है। जितना सेब वाशिंगटन स्टेट के 35% हिस्से में होता है उतना सेब पूरे जापान में होता है।  साधारण से बात थी कि यदि अमरीका का सेब जापान में आया तो बहुत कम दाम पर मिलेगा और जापान के सेब उत्पादकों का भारी नुकसान होता। जापान की सरकार की सरकार ने बहुत कड़े नियम बनाये लेकिन अमरीका के सेबों की दो किसमे उन्हें पास कर गयीं। 
अमरीका उत्साह से भर गया कि जापान के बाज़ारों में 60 -100 मिलियन डॉलर प्रति वर्ष के सेब बेचे जा सकते हैं। पहले वर्ष सिर्फ पंद्रह मिलियन डॉलर के सेब बिके। दूसरे वर्ष डेढ़ मिलियन डॉलर के सेब बिके। तीसरे वर्ष से अमरीका के व्यापारियों ने जापान में सेब भेजने खुद बंद कर दिए। ऐसा नहीं है कि जापान में अन्य देश सेब नहीं भेजते और वे सेब बिकते नहीं हैं। बिकते हैं लेकिन बहुत कम बिकते हैं। अमरीकी सेबों की असफलता के बहुत से कारण ढूंढें और बताये गए जिनमे सेबों के छिलकों का पतला होना उनके स्वाद का अलग होना वगैरह वगैरह होना। लेकिन जो कारण जानते हुए भी नहीं बोले वो था देश की जनता का अपने सेब उत्पादकों के साथ खड़े होना और अमरीका के मामले में यह न भूलना कि इसने कभी हमारे देश पर परमाणु बम गिराए थे। 
देश और सरकार कैसे चलानी है दिन भर फेसबुक पर ऐसी नसीहतें देने वाले ब्रह्मज्ञानियों पहले यह तो देख लो तुम देश के लिए क्या कर सकते हो। बहुत ज्यादा मेहनत और पैसा नहीं लगेगा चीनी माल का बहिष्कार करने में। 
कल तक जो सूरमा पकिस्तान से तुरंत बदला लेने के लिए आक्रमण आक्रमण चिल्ला रहे थे ,वो अपनी नाक से आगे दो इंच देख कर चीनी माल का बहिष्कार भी नहीं कर पाएंगे। 
अरे कुछ नहीं नहीं कर सकते तो यह पोस्ट ही अपनी अपनी वाल पर कॉपी पेस्ट कर देना हो सकता है, हो सकता है चार लोग और इस मुहीम से जुड़ जाएँ। अगर आज यह नहीं किया तो 10 साल बाद कुछ नहीं कर पाओगे।जरूरी नहीं है की हर लड़ाई सरहद पर ही लड़ी जाये। यह भी जरूरी नहीं है कि आप सरहद पर जा कर गोलियाँ चलाएं तभी आपको युद्ध में शामिल माना जायेगा। देशभक्ति निभाने के बहुत से तरीकों में विदेशी माल का बहिष्कार भी एक तरीका है और इस समय आपको पकिस्तान से ज्यादा खतरा चीन से है।  जय हिन्द।      

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