शनिवार, 30 मई 2015

कांग्रेस के देश को उपहार

ज़ख़्मों पे ज़ख्म झेले दागों पे दाग खाए। 
कतरा ए खूने दिल ने क्या क्या सितम उठाये। 

आज भारतवर्ष की जितनी  समस्याएं और हिन्दुओं को दुर्गति है उन सबके के लिए गांधी और नेहरू जिम्मेदार है। यह तो जिम्मेदार हैं हीं लेकिन इनका हाइब्रिड  "राहुल गांधी"  देश के लिए कितना खतरनाक होगा ???? ------ खून नेहरू परिवार का और नाम गांधी का, कि IIT चेन्नई के आरक्षण प्राप्त लड़के जिनको आरक्षण इस लिए दिया गया था की पढाई लिखाई करके अपना भविष्य सुधारेंगे वो अभी से देश को किस दिशा में ले जाना चाह रहे हैं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण "हिंदी भाषा का विरोध, गौहत्या का समर्थन, और मोदी को देश का दुश्मन मानना " इनका मुख्य एजेंडा है और राहुल उसका समर्थन कर रहा है। 
भाषा के विषय में मैं पहले ही लिख चूका हूँ कि 1947 में आज़ादी के समय भारत के 18% लोग ही शिक्षित थे तब भी नेहरू ने अपना पहला भाषण "Tryst With Destiny",आम जान की बोलचाल की भाषा हिंदी में न दे कर अंग्रेजी में ही दिया था।  भाषा के विषय में संविधान सभा ने जो कुछ किया वह एक प्रकार से समझौैता ही था। नेहरू ने संविधान में स्वीकार  की गयी राष्ट्रभाषा का अपने पूर्ण राज्यकाल में विरोध किया। उसकी प्रगति में बाधा डाली और उसकी हंसी उड़ाई।

संविधान में हिंदी को पन्द्रह वर्ष के उपरांत राष्ट्र भाषा बनाना, दो पक्षों में समझौता था। नेहरू ने राष्ट्र भाषा विरोधियों को भड़काया और फिर उनको सहायता दी। परिणाम यह हुआ कि कम से कम एक राज्य ( आज की तारीख में तमिलनाडु) इस विषय पर केन्द्र से सर्वथा बागी हो रहा है। देश की एक भाषा हो,जिसमे देश की शिक्षा और राज्य कार्य चल सकें , एक स्वाभाविक आकांक्षा है, परन्तु आज आज़ादी के 67 वर्ष बाद भी यह बात सम्पन्न होती कठिन प्रतीत होती है। 
बात आज से पूरे 100 वर्ष पहले की करते हैं, उस समय भी कांग्रेस में ऐसे अंग्रेजीदां भरे पड़े थे जो ज़मीनी हकीकत से वाकिफ नहीं थे। इनका विरोध करने वाले "तिलक,विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय" इत्यादि थे,परन्तु उनको दादा भाई नौरोजी ,फिरोज़शाह मेहता ,सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने कांग्रेस में घुसने नहीं दिया। जब 1914-15 में इस गुट का प्रभाव बढ़ा तो महात्मा गांधी मैदान में आ गए और इनके साथी बन गए मोतीलाल नेहरू, मौलाना, और मुहम्मद अली इत्यादि। सन 1936 में गांधी ने हिंदी साहित्य सम्मलेन से सम्बन्ध विछेद कर के हिंदुस्तानी भाषा को बदनाम करने में अपना योगदान ही दिया। "हिंदुस्तानी" लगभग हिंदी ही मानी जाती थी। मुसलमानो के सुभीते के लिए संस्कृत शबों के स्थान पर कुछ उर्दू के प्रचलित शब्दों इस्तेमाल करने का रिवाज़ चल रहा था, परन्तु हिंदी साहित्य सम्मलेन से त्यागपत्र दे कर संस्कृतनिष्ठ हिंदुस्तानी को निंदनीय बताया और उसके स्थान पर फ़ारसी और आरबीनिष्ठ भाषा को हिंदुस्तानी स्वीकार किया, और देश में विरोध शुरू हो गया हिंदी का विशेषकर बंगाल और तमिलनाडु में। 
1948 के जस्टिस धार कमीशन, 1953 के " State Rorganization Commission" की भाषा और संस्कृति के आधार पर राज्यों के गठन न करने की संस्तुतियों को भी नेहरू ने दरकिनार कर दिया और इसके साथ नेहरू और कांग्रेसियों ने भाषा और भाषावाद का एक भूत खड़ा कर एक बानी बनायीं राष्ट्रभाषा को पीछे फेंक दिया ,अन्यथा देश में 70 लोग हिंदी समझते थे और समझते हैं। 
गौहत्या ---- 1926 में देश में निर्वाचन हुआ था, उस समय कांग्रेस के प्रतिद्वंदी स्वराजिस्ट हुआ करते थे जिसकी अगुवाई मालवीय जी और लाल लाजपत राय सरीखे नेता कर रहे थे। इन चुनावों में कांग्रेस की कुछ प्रांतों में जब दुर्गति हुई तो "मोती लाल नेहरू ने जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसका छोटा सा अंश यहाँ पर लिख रहा हूँ। -------- " यह मेरे सामर्थ्य के बाहर था कि मैं इस प्रकार के प्रचार का विरोध कर सकता , जो कि मेरे विरुद्ध किया गया है। यह प्रचार "मालवीय -लाला" गुट ( gang ) के संरक्षण में चला है। प्रत्यक्ष रूप से कहा जा रहा है कि मैं हिन्दुओं का विरोधी और मुसलामानों का समर्थक हूँ। निजी रूप से लगभग प्रत्येक वोटर को यह कहा गया है कि मैं गौमांस भक्षक हूँ और मुसलामानों से मिलकर गौहत्या,सब स्थानों पर और सब समयों पर कर सकने के लिए कानों बनवाने के पक्ष में हूँ। "श्याम जी" ने इस प्रचार में बहुत भाग लिया है। वह कह रहा है कि मैंने उसका गौरक्षा सम्बन्धी बिल असेम्बली में उपस्थित होने से रुकवाया है। वह फैज़ाबाद डिवीज़न से खड़ा हुआ है। "

1893 में उत्तर प्रदेश के मऊ और आजमगढ़ जिले में गौहत्या के चलते तीन दिन के भयंकर दंगे हुए थे, 1917 में पहली बार गांधी ने कहा था की 30000 गायें (एक करोड़ दस लाख गायें भारत में प्रतिवर्ष) कट रही हैं, 1927 में भी गांधी ने कहा था की स्वराज के बाद हमारा पहला काम गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगवाना होगा। क्यों ???? जब हर मांग को मनवाने के लिए बात बात पर सत्याग्रह करने वाले गांधी ने इस मुद्दे पर तभी अनशन क्यों नहीं किया ????
1940 में कांग्रेस का एक धड़ा गौहत्या के विरुद्ध था तो दूसरे ने इसकी पुरज़ोर मुखालफत की और यह तर्क रखा कि इससे विदेशी मुद्रा कमाई जा सकती है।   

नवम्बर 1947 में गठित सरदार बहादुर दातार सिंह कमेटी ने गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध की संस्तुति की थी  और यह सब जानते हैं कि 20 दिसंबर 1950 को सरदार दातार सिंह कमेटी की श्गौहत्या के विरुद्ध संस्तुतियों को नेहरू सरकार ने कूड़े की टोकरी में डाल कर सभी राज्यों को गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध न लगाने के लिए एक अधिसूचना जारी कर दी थी। 

धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बात बात में संविधान को घसीटने वाले, गौ एवं गौवंश की हत्या सम्बंधित अनुछेद 38 A ,जिसमे बदलाव बदलाव कर के संविधान का अनुछेद 48 बनाया गया को क्यों भूल जाते हैं  ?????
बात बात पर संविधान की दुहाई देने वाले संविधान के अनुछेद 343 (1) को क्यों भूल जाते हैं जिसमे संविधान के लागु होने के 15 वर्षों पश्चात यानि कि 26 जनवरी 1965 से हिंदी भाषा का देवनागरी लिपि में प्रयोग होना तय हुआ था ??? 
"माँ भारती" के लिए तो अब यही कहा जा सकता है ----

ज़ख़्मों पे ज़ख्म झेले दागों पे दाग खाए। 
कतरा ए खूने दिल ने क्या क्या सितम उठाये।

शनिवार, 23 मई 2015

स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार की शरुआत कैसे हुई


"कभी पतझड़ में फूल खिल जाते हैं,
कभी बसंत में फूल खिर जाते हैं,
कुछ लाशों को कफ़न भी नसीब नहीं होता,
पर, कुछ पर ताजमहल खड़े हो जाते हैं। 

जयललिता ने फिर से मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाल है। 
लखनऊ हाई कोर्ट ने उस  PIL को दो दिन में ख़ारिज कर दिया था, जिसमे सरकार से यह जानने की कोशिश की गयी थी कि क्या 2 जून 2001 को, राहुल गांधी को उनकी गर्लफ्रेंड कोलंबिया निवासी जुनिता उर्फ़ वेरोनिका के साथ  अमरीका के बोस्टन हवाई अड्डे पर $1,60,000 के साथ गिरफ्तार किया गया था।  


मेरे जेहन में अक्सर यह सवाल आता था कि स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार की शरुआत कैसे हुई और किसके प्रश्रय से आज यह भ्रष्टाचार कहानी दर दर की हो गया है। आगे पढ़ने से पहले एक बात याद रखियेगा कि देश बेशक 15 अगस्त 1947  आज़ाद हुआ लेकिन 2 सितम्बर 1946 को नेहरू के नेतृत्व में बनी सरकार ने रंग ढंग पहले वर्ष में ही दिखने शुरू कर दिए थे।  


वर्ष 1948 …… अपनी हत्या से कुछ दिन पूर्व राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने आंध्र-प्रदेश के एक खिन्न नागरिक के द्वारा लिखे गए पत्र को सार्वजनिक किया था, जिसका हिन्दी अनुवाद इस कुछ प्रकार है…… "राजनीतिक शक्ति ने उनके दिमाग ख़राब कर दिए हैं, बहुत से राजनेता लोभी हो गए हैं और अपनी रोटियां सेंकने में लगे हैं. वह नाजायज़ रूप से पैसा कमाने में इतने मशगूल हो गए हैं कि न्यायिक प्रक्रिया; जो कि मेजिस्ट्रेट द्वारा संचालित होती है, उसमें भी बाधाएं उत्त्पन्न कर रहे हैं। ………………ऐसी स्थिति में एक कर्मठ एवं ईमानदार व्यक्ति अपने आपको काम करने में असमर्थ पा रहा है। (as Quoted by Umesh Anand in 'The Times Of India" , मार्च 7,1996)……  ………गौरतलब है कि, राष्ट्रपिता के इस प्रकार के गम्भीर मुद्दे को उठाने के बाद भी तत्कालीन सरकार ने संज्ञान नहीं लिया और भ्रष्टाचार रूपी दानव उनकी मृत्यु के उपरान्त अमरबेल की भाँति कांग्रेस से लिपट गया.।
साभार ,"The Great Indian Middle Class" by "Pavan K. Varma", page no. 86

स्वतन्त्र भारत का पहला वित्तीय घोटाला…… वर्ष 1948 
'' इंग्लॅण्ड से भारतीय सेना के लिए 155 जीपें खरीदी गयीं , जिसमें 80 लाख रुपये का घोटाला किया गया. इस घोटाले के मुख्य सूत्रधार ''श्री वी. के. कृष्णामेनन'' थे। वर्ष1955 में ''श्री जवाहरलाल नेहरू जी'' ने इस घोटाले के पारितोषक के रूप में उन्हें अपने मंत्रिमण्डल में शामिल कर लिया और घोटाले की चल रही जांच को हमेशा के लिए बंद कर दिया। ……। काश! उसी वक्त भ्रष्टाचार के उस प्रथम अंकुर को कुचल दिया गया होता और कांग्रेस ने उसे और ना सींचा होता, तो आज एक भ्रष्टाचार (कोयला घोटाला) की कीमत 3 लाख 25 हज़ार करोड़ रूपये ना पहुँचती। आखिर यही तो है हर हाथ (कांग्रेस) शक्ति, हर हाथ (कांग्रेस) तरक्क़ी।

वर्ष 1951 ---साइकिल घोटाला ---तत्कालीन सचिव ( वाणिज्य एवं प्रद्योगिकी ) श्री एस ए वेंकटरमन को एक विदेशी कम्पनी को विदेश से साइकिल आयात करने तथा भारत में बेचने के लिए लाइसेंस देने के सम्बन्ध में रिश्वत लेने के अपराध में जेल हुई।
वर्ष 1956 ---- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय --- स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी शैक्षणिक संस्थान में पकडे गए इस 50 लाख रूपए के घोटाले का नाम सबसे ऊपर आता है। इस घोटाले में विश्वविद्यालय के कर्मचारी एवं अधिकारी शामिल थे।
आइये चलें लाखों से करोड़ों के ओर ------
वर्ष 1958 ---- मूंदड़ा घोटाला ------ वर्ष 1956 में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज ने हरिदास मूंदड़ा जो की कलकत्ता के एक बड़े उद्योगपति थे, को शेयर मार्किट में गैर कानूनी ढंग से कारोबार के कारन आरोपित किया था। इसी समय आयकर विभाग ने हरिदास मूंदड़ा को पुराने बकाये के सम्बन्ध में भेजे गए नोटिस संदिग्ध परिस्थितियों में वापिस ले लिए थे। इसके बावज़ूद भी केंद्र सरकार के दबाव में आ कर भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपनी निवेश कमेटी को विश्वास में न लेते हुए हरिदास मूंदरा की डूबती हुई कम्पनियों , 1) Richardson Cruddas, 2) Jessops & company 3)Smithslanistreet 4) Osler Lamps 5) Angelo Brothers and 6) British India Corporation के 1 करोड़ 20 लाख के शेयर बाज़ार से अधिक दाम पर खरीदे। यह रकम जीवन बीमा निगम कभी वापिस न पा पाया।
बॉम्बे हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज श्री एम सी छागला ने पारदर्शिता के साथ इस जांच को मात्र 24 दिनों में निपटाया तथा इसके लिए उन्होंने तत्कालीन वित्तमंत्री श्री टी टी कृष्णामचारी को ज़िम्मेदार ठहराया। इस प्रकरण पर श्री फ़िरोज़ गांधी के नेतृत्व में लोकसभा में ज़बरदस्त बहस हुई जिसके उपरांत श्री कृष्णामचारी को त्यागपत्र देना पड़ा। परन्तु बाद में नेहरू जी ने उन्हें क्लीन चिट दे दी तथा पुनः अपने मंत्री मंडल में शामिल कर लिया।
यदि जस्टिस छागला के संस्तुतियों को अक्षरशः लागू किया गया होता तो शायद 4000 करोड़ का हर्षद मेहता कांड , 1100 करोड़ का रूप भंसाली कांड ,10000 करोड़ का केतन पारेख कांड,5040 करोड़ का सत्यम कांड और 4000 करोड़ का शारदा कांड न होते।

आइये अब करोड़ की इकाई से दहाई के घोटालो की चर्चा करें-------कीमत 22 करोड़ रूपए।
वर्ष 1960 ----आंध्र-प्रदेश के निवासी ''डॉ. धर्मजयन्ती तेजा'' अपनी बेहद खूबसूरत पत्नी के साथ एक NRI के रूप में दिल्ली आये. यहाँ आकर उन्होंने भव्य पार्टियो का आयोजन शुरू किया, जिसका हिस्सा बनकर राजनेता और नौकरशाह अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते थे। इन पार्टियों की भव्यता देखकर तत्कालीन प्रधानमंत्री ''श्री जवाहरलाल नेहरू ''जी भी उनके मुरीद हुए बिना नहीं रह पाये। दिल्ली सरकार को अपने प्रभाव में लेने के पश्चात डॉ तेजा ने जयंती शिपिंग कंपनी बनाने की घोषणा की, तथा इसके लिए सरकार से आर्थिक मदद माँगी। नौवहन निदेशालय (directorate of shipping ) की कड़ी आपत्ति के बाद इनका प्रस्ताव केन्द्रीय मंत्रिमंडल को दे दिया गया, जिस पर पहले से ही तेजा की भव्यता से प्रभावित नेहरूजी ने कहा, "थोडा कुछ दे दो". … इस थोडा कुछ को अधिकारियों ने करोड़ों में मान लिया। इस पैसे से डॉ तेजा ने जापान से लिए जहाजों की सप्लाई करने वाली कंपनी को पहली किश्त अदा की। इसके बाद इन्हीं जहाजों के एवज में डॉ तेजा ने भारत के अन्य बैंकों से कर्ज उठा लिया। 1965 में जब जापान और अन्य बैंकों ने महसूस किया किया कि डॉ तेजा उनके पैसे वापस नहीं कर रहे है तथा कर्मचारियों को पैसे नहीं दे रहे हैं तो उनके खिलाफ धारा 409, 467,420, 477 A तथा 120 B के तहत मुकदमा दायर किया गया। डॉ तेजा अपनी धर्मपत्नी के साथ कोस्टा रिका भाग गए। बाद में Oct .19 , 1972 को स्कॉटलैंड यार्ड ने लंदन से तेजा को गिरफ्तार करके भारत के हवाले कर दिया। उन्हें 19 वर्ष की सजा हुयी परन्तु उन 22 करोड़ रुपये का कोई हिसाब ना मिला।
इसी प्रकरण के दौरान जब '' श्रीमती इंदिरा गांधी ''जी से इस विकराल भ्रष्टाचार के बारे में पत्रकारों ने बात की तो उनका जवाब था कि, "यह (भ्रष्टाचार ) तो वैश्विक तथ्य है" …।
काश! उस समय नेहरूजी ने तेजा से अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों को आर्थिक सम्बन्धों में ना तब्दील किया होता और इंदिराजी ने उस वैश्विक समस्या को सिर्फ अपने देश की समस्या मानकर उसका कोई हल निकाला होता तो आज देश को विकराल आर्थिक असमानता और भ्रष्टाचार का दौर ना देखना पड़ता ......

मेरा मंतव्य मात्र आपको भ्रष्टाचार नाम के दानव की उत्पति से अवगत कराना नहीं था वरन 60 के दशक तक पहुंचते पहुंचते स्थिति कितनी भयावह हो चुकी थी उसकी भूमिका बांधना था।
उस समय के परिप्रेक्ष्य , नीति निर्धारकों, कानून के निर्माताओं तथा सरकार के लचर रवैये के सन्दर्भ में यदि देखा जाये तो Prevention of corruption Act 1947, इतना कमज़ोर तथा दंतविहीन बनाया गया था जिससे अपराधी के प्रति कोई निर्णयात्मक कार्यवाही की ही नहीं जा सकती थी। एक तरफ कमज़ोर कानून था तो दूसरी तरफ तत्कालीन सरकार ने भी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कोई कठोर कदम उठाना तो दूर बल्कि 'कृष्णामेनन' तथा 'कृष्णामचारी' सरीखों को Public Accounts committee की प्रतिकूल टिप्प्णियों के बावज़ूद मंत्री पदों से नवाज़ कर समाज के समक्ष गलत उदाहरण प्रस्तुत करके एक तरह से भ्रष्टाचार को प्रश्रय ही दिया।
उपरोक्त घटनाओं का सामान्य जनमानस पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि सतर्कता विभाग ( Vigilance Department ) ने गृह मंत्रालय को 1956 से 1964 तक 80,000 से अधिक केस कार्यवाही के लिए प्रेषित किये। 1964 में Prevention of Corruption के लिए गठित Santhanam Committee की रिपोर्ट के सम्बन्ध में भारत की सरकार ने खुद माना कि --( हिंदी में अनुवादित ) " हमारे समक्ष जो भी प्रस्तुत किया गया, उससे तो यह लगता है कि भ्रष्टाचार इतना फ़ैल गया है कि नागरिकों की प्रशासनिक व्यवस्था में आस्था ख़तम हो रही है। हमें हर तरफ से यही सुनाई पड़ रहा है कि वर्त्तमान वर्षों में यह भ्रष्टाचार उन जगहों पर भी व्याप्त हो गया है जहाँ कुछ समय पहले तक इसके विषय में सोचना भी नामुमकिन था। आम धारणा;कि ईमानदारी ख़तम हो चुकी है; उतनी ही घातक है; जितनी की व्यवस्था की असफलता घातक है। " (GOI, ministry of Home Affairs, report of the committee on prevention of corruption (New Delhi 1964) pp 12, 13, 101)
मित्रों! यह तो आप सभी जानते हैं कि अभी तक (1964 -65 ) देश में एकछत्र कांग्रेस का ही शासन ही चल रहा था, फिर जनहित में इन घोटालों और भ्रष्टाचार को रोकने का दायित्व भी उसी कांग्रेस का ही था जो आज अपने आपको सबसे पुरानी और देश-निर्मात्री पार्टी होने का दम भर रही है.…।
मित्रों! घोटाले तो आप गूगल पर भी पढ़ सकते हैं , लेकिन भारतीय राजनेताओं ने सत्ता की लोलुपता में कुछ ऐसी गलतियां की हैं, जिनसे पूरे देश में एक ऐसा सन्देश गया; जिससे जनता भी; " यथा राजा, तथा प्रजा" की तर्ज पर दौड़ने लगी और उसके प्रतिकूल परिणाम आज अपनी पराकाष्ठा पर है एवं पूरा देश भ्रष्टाचार से त्राहि-माम कर रहा है। 

इसी सन्दर्भ में एक अत्यन्त रोचक घटना घटी सन 1969 में। -------- तत्कालीन वित्तमंत्री "श्री मोरारजी देसाई" ने खुलासा किया कि ; केंद्र -सरकार में मंत्री "बाबू जगजीवनराम " ने पिछले 10 वर्षों से अपना Income-Tax Return नहीं भरा है। काफी हंगामा मचा लेकिन जगजीवनराम जी से इस्तीफ़ा मांगने या इस प्रकरण पर स्पष्टीकरण मांगने के बजाये तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी" जी ने पूरी घटना को बहुत हलके में लेते हुए इसे एक अत्यंत व्यस्त व्यक्ति की भूलवश हुई गलती कहकर हवा में उड़ा दिया; क्यूंकि "बाबू जगजीवनराम जी" श्रीमती गाँधी के ख़ास सिपहसालार थे। क्या ये वाकई बाबू जगजीवनराम की एक मानवीय भूल थी? या फिर भ्रष्टाचार द्वारा अर्जित आय को छुपाने का उपाय?

तो मेरा मानना है कि इस प्रकार श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने अपने पिता द्वारा उगाई गयी भ्रष्टाचार की खेती को विरासत में पाया और उसे सींचकर अपना पुत्री धर्म निभाया। आज फिर एक शेर याद आ रहा है ----

"कभी पतझड़ में फूल खिल जाते हैं,
कभी बसंत में फूल खिर जाते हैं,
कुछ लाशों को कफ़न भी नसीब नहीं होता,
पर, कुछ पर ताजमहल खड़े हो जाते हैं। 

और कांग्रेस की यह बुलंद इमारत आज ईमानदारी और नैतिक सिद्दांतों की इसी लाश पर खड़ी है।
बोफोर्स तोप घोटाला -राजीव गांधी 960 करोड़।
 1992हर्षद मेहता (शेयर घोटाला) 5,000 करोड़।
1994चीनी घोटाला 650 करोड़। 
1995 वीरेंदर गौतम (कस्टम टैक्स) घोटाला 43 करोड़। 
1995कॉबलर घोटाला 1,000 करोड़
1995दीनार घोटाला (हवाला) 400करोड़
1995 प्रेफ्रेंशल अलॉटमेंट घोटाला 5,000 करोड़
1995मेघालय वन घोटाला300करोड़
1996चारा घोटाला 950करोड़
1996यूरिया घोटाला 133 करोड
1996 उर्वरक आयत घोटाला 1,300 करोड़
1997 म्यूच्यूअल फण्ड घोटाला 1,200 करोड़
1997SNC पॉवेर प्रोजेक्ट घोटाला 374 करोड़1997 सुखराम टेलिकॉम घोटाला 1,500 करोड़
1997 बिहार भूमि घोटाला 400 करोड़
1998 उदय गोयल कृषि उपज घोटाला 210 करोड़
1998 टीक पौध घोटाला 8,000 करोड़
2001 डालमिया शेयर घोटाला 595 करोड़
2001UTI घोटाला 32 करोड़
2001केतन पारिख प्रतिभूति घोटाला 1,000 करोड़
2002कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज घोटाला 120 करोड़
2002 संजय अग्रवाल गृह निवेश घोटाला 600 करोड़
2003 स्टाम्प घोटाला 20,000 करोड़
2005 सौरपियन पनडुब्बी घोटाला 18,978 करोड़
2005 बिहार बाढ़ आपदा घोटाला 17 करोड़
2005 आई पि ओ कॉरिडोर घोटाला1,000 करोड़
2006ताज कॉरिडोर घोटाला 175 करोड़
2006पंजाब सिटी सेंटर घोटाला 1,500 करोड़
2008 सत्यम घोटाला 8,000 करोड
2008 सैन्य राशन घोटाला5,000 करोड़
2008 स्टेट बैंक ऑफ़ सौराष्ट्र 95 करोड़
2008 काला धन 2,10,000 करोड
2008हसन् अली हवाला घोटाला 39,120 करोड़
2009 झारखण्ड मेडिकल उपकरण घोटाला 130 करोड़
2009 झारखण्ड खदान घोटाला 4,000 करोड़
2009 उड़ीसा खदान घोटाला7,000 करोड़
2009 चावल निर्यात घोटाला 2,500 करोड़
2010  खाद्यान घोटाला 35,000 करोड़
2010 (ii) बैंड स्पेक्ट्रम घोटाला 2,00,000 करोड़
2010 आदर्श घर घोटाला 900 करोड़
2011 कॉमन वेल्थ घोटाला 70,000 करोड़
2011 -2जी स्पेक्ट्रम घोटाला 1,76,000 करोड़
2012 -ब्लॉक आवंटन घोटाला 2004 -09----- 1,86,000 करोड़ 





Ref --- 
----- The Great Indian Middle Class --- by Pavan K. verma
----The Sanjay Story---- By Vinod Mehta
---- Old World Empires :Cultures of Power and Governance In Eurasia ----By Ilhan Niaz
----- India since Independence: Making sense of Indian Politics ---- By Kirusna Anant, Vi
and GOOGLE Baba

शनिवार, 16 मई 2015

स्वस्थ युवा देश की ताकत



सुप्रभात ---- निःसंदेह आपकी भावनाएं बहुत उत्तम हैं जो आप सुबह 6 बजे पहला काम अपने मित्रों को सुप्रभात कहते हैं। 
शुभरात्रि ----- वाकई आज भूकम्प या तनाव के समय में आपकी यह भावना भी बहुत उत्तम है कि आप रात के 12.00 बजे अपने मित्रो को शुभरात्रि कहते हैं। 
अपने मित्रों को ही कहते हैं न, कभी अपने आप के लिए आपने सुप्रभात कहने का समय निकाला क्या ?????
या अपनी रात्रि को 10 बजे सो कर शुभ क्यों नहीं करते ????
वैसे आपकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी में दखल देना का न मेरा कोई अधिकार है और न ही कोई मंशा है। फिर भी सोचा कि आप के साथ कुछ तथय साझा कर लिए जाएँ। 
क्या आप जानते हैं कि 1971 में भारत में डायबिटीस 1.2% लोगों को थी जो कि वर्ष 2000 में 12.1% , यानि कि 10 गुना बढ़ गयी ???
क्या आप जानते हैं कि वर्ष 2013 में 20-79 वर्ष के बीच की आयु वाले 6 करोड़ 20 लाख लोगों को भारत में डायबिटीस है ,जो कि 2030 में 10 करोड़ लोगों में होगी ???
क्या आप जानते हैं कि 2013 के एक शोध के अनुसार भारत में लगभग 8 करोड़ लोगों को प्री डायबिटीज है ???
क्या आप जानते हैं कि भारत में वर्ष 2010 में 10 लाख लोगों की मौत डायबिटीस से हुई थी ???
क्या आप जानते हैं कि भारत में 20 % लोगों को कोई एक पुरानी ( Chronic ) बीमारी है और 10 % लोगों को एक से ज्यादा पुरानी बीमारी है ???
क्या आप जानते हैं कि भारत में 30-59 वर्ष की आयु में दिल की बीमारी से से मरने वालों की संख्या अमरीका में इसी आयु वर्ग में मरने वालों से दुगनी है ???
क्या आप जानते हैं कि भारत के युवाओं  में डायबिटीस पश्चिमी देशों के मुकाबले 10-20 वर्ष पहले शुरू हो जाती है ??? और 
क्या आप जानते हैं कि डायबिटीस से दिल का और पड़ने का खतरा दुगना हो जाता है, स्नायु तंत्र पर विपरीत असर होता है, दृष्टिदोष उत्पन्न हो सकता है, किडनी ख़राब हो सकती हैं ???
यदि आप के किसी जानने वाले को डायबिटीस है तो दवा बनाने वाली कम्पनी आपको मन ही मन धन्यवाद करती होगी क्योंकि 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2280 करोड़ की दवा सिर्फ एक वर्ष में डायबिटीस के रोगियों ने खरीदी थी। 
इस बीमारी के अनुवांशिक कारण के इलावा बेतरतीब, भागदौड़ वाला,सिगरेट और शराब वाली तनावयुक्त जीवन शैली है। जिसमे न जागने का कोई समय है और न ही सोने का। और जो समय सुबह अपने शरीर को दे कर कुछ व्यायाम करके सुप्रभात कहने का है उसे हम शुरू करते हैं फेसबुक से और ख़त्म करते हैं फेसबुक पर। ध्यान रखिये -------  

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गवा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।। 
बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष् का दरवाज़ा है। इसे पा कर भी जिसने परलोक न बना लिया,

एही तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।। 
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेंही।। 
अर्थात--- हे भाई !इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है, स्वर भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देने वाला है (इस जगत के भोगों की तो बात ही क्या) । अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं ,वे मूर्ख अमृत को बदल कर विष ले लेते है।
 
जौं परलोक इन्हे सुख चहहु। सुन मम बचन ह्रदय दृण गहहू।। 
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरी पुरान श्रुति गाई।। 
अर्थात --- यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें (भगवान को) ह्रदय में दृणता से पकड़ रखो। हे भाई !यह भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों ने और वेदों ने इसे गाया है।

दो गिलास पानी, थोड़ा सा व्यायाम ,कुछ प्रभु का नाम …………………………
यदि अयोध्या ,काशी, मथुरा बनाना है तो पहले खुद बनिए ऊर्जावान, जब शरीर में होंगे प्राण तभी मुँह से निकलेगा -------  जय श्री राम।  
क्या निकलेगा मुंह से  ??????       

कांग्रेस की तीन सामरिक गलतियां

अपने किरदार को मौसम से बचाये रखना 
लौट कर आती नहीं है फूलों में दुबारा खुशबू 

पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के 16 मई को नतीजे आने से पहले ही हमें लगा था कि कांग्रेस एक डूबता हुआ जहाज है, और कुछ समाचार पत्रों ने इस बात को अपने सम्पादकीय पृष्ठों में  11 एवं 13 मई 2014 को जगह भी दी थी। आज कांग्रेस की लगभग बरसी के दिन सोचता हूँ ,इसे फेसबुक पर भी डाल दूँ, वैसे इससे लाभ कुछ नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस के वर्मान राज कुमार मुझे अभी भी दिशाहीन और नकारात्मक राजनीति करते नज़र आ रहे हैं। यदि उचित लगे तो आप भी पढ़ें -----
 
जब जहाज डूब जाता है तो हर कोई बता सकता है कि ; उसे कैसे बचाया जा सकता था। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में  हर कोई कह सकता है कि  कांग्रेस का जहाज डूब रहा है। लेकिन अब तो जहाज उस स्थिति में पहुँच गया है जहाँ से उसे डूबने से फिलहाल नहीं बचाया जा सकता।  बहुत से कारण हैं इस जहाज के डूबने के। हर व्यक्ति अपने नज़रिये से हार के कारणों का फलसफा बयां कर सकता है।  प्रबंधन का छात्र होने के नाते मेरी नज़र में कांग्रेस ने कुछ ऐसी Strategic Mistakes कीं; जिसकी उसे बहुत बड़ी कीमत अदा करनी होगी। 
बात यहाँ है "कांग्रेस" की सामरिक गलतियों की।  यदि कांग्रेस के पिछले दस वर्षों का आंकलन देश के वर्तमान परिदृश्य में करें तो दस वर्षों का समय बहुत होता है किसी भी देश को तरक्की की राह पर दिशा देने के लिए। लेकिन अवसरवादी चाटुकारों से घिरी सोनिया जी ने बंद कमरे से रिमोट से जो सरकार चलाने की कोशिश की उसने कांग्रेस को गर्त की किस सीढ़ी पर ले जा कर खड़ा कर दिया है उसका सही आंकलन तो 16 मई के बाद ही हो पायेगा लेकिन सट्टा बाजार में कांग्रेस के सरकार बनाने के जो भाव चल रहे है उससे यह तय है की कांग्रेस की सरकार नहीं बन रही है। कांग्रेस और इसके रणनीतिकारों ने पिछले दस वर्षों में गलतियां कीं लेकिन कहा जा सकता है कि गलतियां उसी से होती हैं जो काम करता है परन्तु अफ़सोस यह की कांग्रेस ने बिना काम किये ऐसी गलतिया की जिसकी कीमत उसे इन लोकसभा चुनावों में तो चुकानी ही पड़ेगी साथ ही में इन अक्षम्य गलतियों से इसने जो अपनी प्रतिष्ठा खोयी है वह  पुनः वापिस पा पायेगी या नहीं यह पूर्णतया निर्भर करता है  आने वाले पांच वर्षों में सरकार चलने वालों पर। जिन गलतियों की वजह से कांग्रेस आज इस दयनीय स्थिति में खड़ी  है उसके बहुत से कारण हैं। परन्तु  कांग्रेस और UPA -2 की भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक बड़ी सामरिक गलती थी कि उसने कैग जैसी संवैधानिक संस्था द्वारा उजागर भ्रष्टाचार के ऊपर उंगली उठा कर उसे ही कटघरे में खड़ा कर दिया। सब तरह के कुतर्क दिए पढ़े लिखे सिब्बल और चिदंबरम सरीखे मंत्रियों ने।  चाहें 2G स्पेक्ट्रम की बात करें, या coalgate घोटाले की।  आदर्श घोटाले को उठाएं या कॉमनवेल्थ गेम्स को -- कांग्रेस और इनके साथी दलों के मंत्री उनमे पूर्णतः लिप्त पाये गए।  यदि कांग्रेस के रणनीतिकारों में ज़रा सी भी दूरदर्शिता होती और 2014 के चुनावों पर निगाह होती अथवा ज़रा से भी देश हित के प्रति चिंतित होते अथवा अपनी ईमानदार नीयत;  जिसे सिद्ध करने के लिए कांग्रेस ने चुनाव प्रचार में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है ,तो उन्हें इन घोटालों पर विपक्ष के हंगामें  से पहले ही जांच बैठा देनी चाहिए थी। इससे विपक्ष के हमलों की धार भी कुंद  हो जाती और कांग्रेस की साफ़ नीयत  भी सामने आ जाती।  लेकिन उनकी नीयत निःसंदेह  नेक नहीं थी इसीलिए  गृह मंत्री तो यहाँ तक कह गए की "जनता बोफोर्स की तरह इन घोटालों को भी भूल जाएगी"। यहाँ गृह मंत्री ये भूल गए कि  परिपेक्ष्य देश काल और परिस्थिति के साथ बदलते हैं। आज संवाद और मीडिया खासतौर पर सोशल मीडिया 80 के दशक वाला नहीं रह गया है कि  आप आम जनता की उद्वेलित भावनाओं को अपनी प्रचार तंत्र की स्याही से रंग कर सिर्फ वही दिखायेगे जो आप दिखाना चाहते हैं।  आज यदि आप दूरदर्शन को अपना भोंपू बनाते हैं तो दर्जनों ऐसे टीवी चैनल हैं जो आपको कटघरे में खड़ा करने के लिए कृतसंकल्प है।  यहाँ मात्र और मात्र नेकनीयती ही कांग्रेस मदद कर सकती थी। संजय बारु की किताब के मुताबिक प्रधानमंत्री अपनी ईमानदार छवि से संतुष्ट थे और धृतराष्ट्र की तरह सब कुछ जानते हुए भी अपनों के द्वारा किये गए भ्रष्टाचार पर मौन रहे। यह सही है की इतिहास उन्हें एक ईमानदार प्रधानमंत्री कहने के साथ उन पर उसी तरह से बेईमान होने का भी आक्षेप भी लगाएगा कि  वे एक ऐसे रिमोट से चलने वाले नाकामयाब एवं कमज़ोर प्रधानमंत्री थे जो प्रधानमंत्री की नैतिक ज़िम्मेदारियों का ईमानदारी से निर्वहन नहीं कर पाये। 

कांग्रेस की दूसरी बड़ी सामरिक गलती थी कि देश की बजाये एक परिवार के प्रति प्रतिबद्धता जो कि कांग्रेस के लगभग पतन  का दूसरा बड़ा कारण है। राहुल गांधी की तुलना दुर्योधन से तो नहीं की जा सकती लेकिन सोनिया का पुत्र मोह देशप्रेम अथवा कांग्रेस के प्रति निष्ठां से कहीं आगे निकल गया। सोनिया जी देश की चिंता छोड़ कर यदि कांग्रेस की ही चिंता करतीं तो भी उन्हें निकट के इतिहास से सबक ले ले चाहिए थे कि जब उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में जहाँ राहुल गाँधी ने जी जान लगा दी थी, या मणिपुर  को छोड़ कर अन्य चार राज्यों में जब राहुल गांधी का जादू नहीं चला तो पूरे देश में भी तो वही हवा चल रही होगी। दिग्गजों से भरी हुई कांग्रेस को गांधी परिवार और राहुल गांधी के आगे कुछ नज़र नहीं आया। यदि कांग्रेस राहुल गांधी को ही आगे लाना चाहती थी तो उसे अपने 10 वर्षों के कार्यकाल में मोदी के गुजरात मॉडल से बड़ी लकीर खींचनी चाहिए थी जिसके आगे मोदी बौने साबित होते। और राहुल गांधी को चाहिए था की अपराधियों के चुनाव लड़ने से सम्बंधित बिल को राष्ट्रपति के पास भेजने से पहले ही उसकी पुरज़ोर मुखालफत करते नाकि  प्रेस कॉन्फ्रेंस में उसको " नॉनसेंस" कह कर फाड़ कर प्रधानमंत्री की बेइज़्ज़ती करते। या आदर्श घोटाले के अपराधियों सीबीआई की रिपोर्ट से पहले ही अपने पक्ष को रख कर कांग्रेस को शर्मसार होने से बचा लेते। दूसरी तरफ कांग्रेस को 2012 के गुजरात विधानसभा के नतीजों के बाद उन उदघोषों को सुन लेना चाहिए था जहाँ जनता मोदी से दिल्ली जाने के अपील कर रही थी। लेकिन कांग्रेस और इसके सहयोगी दल इस ग़लतफहमी के शिकार रहे कि  मोदी को गुजरात दंगों के विवाद में उलझाये रखेंगे।  लेकिन हुआ बिलकुल इसके विपरीत। मोदी तो गुजरात दंगों से कभी के बाहर आ गए थे और अपनी उपलब्धियां गिना रहे थे और कांग्रेस नकारात्मक प्रचार के ज़रिये अपनी ही जड़ें खोदने में समय गवांता रहा। 
   
कांग्रेस की तीसरी और सबसे बड़ी गलती  "आप" को जन्म देना था। "आप" की पैदाइश कांग्रेस और भ्रष्टाचार के नाजायज़ संबंधों की वजह से हुयी। यदि कांग्रेस आधा शताब्दी तक देश पर राज करने के पश्चातभी यह नहीं समझ पायी की देश की जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है तो उसे नैतिक रूप से ही देश पर राज नहीं करना चाहिए था। इसमें भी कांग्रेस ने वक़्त वक़्त पर बेईमानों को प्रश्रय दे कर अपने आप को कटघरे में खड़ा कर दिया था। और कांग्रेस ने यदि अप्रैल 2011 में जंतर मंतर पर अन्ना आंदोलन की लोकपाल बिल की मांग को मान लिया होता तो उस आंदोलन की फूंक वहीँ पर निकल गयी होती। लेकिन कांग्रेस इस आंदोलन से जनित संभावनाओं को आंक ही नहीं पायी और उसने जुलाई 2011 को रामलीला मैदान से अन्ना के आंदोलन को जबरदस्ती महीनों खिंचवा कर अपने ताबूत में आखिरी कील भी ठोंक ली। और इसी आंदोलन से पैदा हुई "आप " पार्टी जिसने दिल्ली में कांग्रेस का पूरी तरह से मान मर्दन कर दिया और देश को यह सन्देश दे दिया कि कांग्रेस अविजयी नहीं है। 
किसी शायर ने बहुत खूब कहा है, पर शायद कांग्रेस के सिपहसालारों ने शायद नहीं सुना होगा, और 16 मई के बाद सरकार बनाने वालों को सुन लेना चाहिए  -----

अपने किरदार को मौसम से बचाये रखना 
लौट कर आती नहीं है फूलों में दुबारा खुशबू

शुक्रवार, 15 मई 2015

कलियुग के लक्षण





मैं चिंतित था , मेरे मित्र चिंतित हैं कि गाय क्यों कटी जा रही हैं ????
कातिल, बलात्कारी और भ्रष्टाचारी कैसे अदालतों से छोड़ दिए जा रहे हैं ????
वेदों और सद्ग्रन्थों को कैसे तोड़मरोड़ कर बदनाम किया जा रहा है ????
माँ बाप को कैसे आज की सन्ताने वृद्धाश्रम में दाल रही हैं ???
गंगा और तीर्थ कैसे मलिन हो रहे हैं ????
अनैतिकता कैसे बढ़ते जा रही है ???

शायद रामचरितमानस से उद्धृत ये चौपाइयां और श्लोक --- जो की काकभुशुण्डि जी एवं हरि के वाहन गरुड़ जी के बीच का संवाद है जिसमे कलियुग के लक्षण बताये गए हैं, आपकी कुछ शंकाओं का समाधान कर सके ---------

भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म। 
सुनु हरिजान ग्यान निदई कहउँ कछुक कलिधर्म।। 
अर्थात ---सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भण्डार ! हे श्रीहरि के वाहन !सुनिए, अब मैं कलि  के कुछ धर्म कहता हूँ। 

कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए साद ग्रन्थ। 
दंभिन निज मति कल्पि करी प्रगट किए बहु पंथ।। 
अर्थात ---कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रास लिया, सद्ग्रन्थ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर कर के बाहर से पंथ प्रकट कर दिए। 


बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।। 
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।। 
अर्थात -- कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता। 

मारग सोई जा कहुँ जोई भावा। पंडित सोई जो गाल बजावा।। 
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई।। 
अर्थात ----जिसको जो अच्छा लग जाय,वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरम्भ करता (आडम्बर रचता ) है और जो दम्भ में रत है उसी को सब कोई संत कहते हैं। 

सोई सयान जो परधन हारी। जो कर दम्भ सो बड़ आचारी।। 
जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलियुग सोई गुनवंत बखाना।। 
अर्थात ---जो दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दम्भ करता है वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हंसी दिल्लगी करना जानता है ,वही कलियुग में गुणवान कहा जाता है। 

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोई ग्यानी सो बैरागी।। 
जेक नख अरु जाता बिसाला। सोई तापस प्रसिद्ध कलिकाला।। 
अर्थात ---जो आचरणहीन है और वेद मार्ग छोड़े हुए है, कलियुग में वही ग्यानी और वही वैराग्यवान है। जिसके बड़े बड़े नख और लम्बी लम्बी जटायें हैं, वही कलियुग में प्रसिद्द तपस्वी है। 

दोहा --- असुभ बेश भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहीं। 
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग मांहि।। 
अर्थात ----जो अमंगल वेश और अमंगल भूषण धारण करते है और भक्ष्य -अभक्ष्य सब कुछ खा लेते है, वे ही योगी हैं,वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं। 

जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ। 
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ।। 
अर्थात--- जिनके आचरण दूसरों के अहित करने वाले हैं,उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन,वचन और कर्म से झूठ बोलने वाले हैं वे ही कलियुग में वक्ता माने गए हैं। 

बादहिं सूद्र द्विजन सन हम तुम्ह ते कछु घाटि। 
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखीं देखावहिं डाटि।। 
शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं ) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ट ब्राह्मण है। (ऐसा कह कर) वे उन्हें डाँट कर आँखें दिखलाते हैं। 

भये बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग। 
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग।। 
अर्थात -- कलियुग में सब लोग वर्ण संकर और मर्यादा से च्युत हो कर पाप करते हैं और ( उनके फलस्वरूप )दुःख भय ,रोग शोक और ( प्रिय वस्तु का वियोग ) पाते हैं। 

नारी बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नर मार्केर्ट की नाईं।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मिली जनेऊ लेहिं कूदना।।
हे गोसाईं ! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वष में हैं और बाजीगर के बन्दर की तरह (उनके नचाये) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं। 



कुलवंती निकरहिं नारी सती। गृह आनहि चेरी निबेरी गति।। 
सूत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं।। 
अर्थात-- कुलवती और सटी स्त्री को पति घर से निकल देते हैं और अछि चल को छोड़ कर घर में दासी को ल रखते हैं। पुत्र अपने माता पिता को तभी तक मानते हैं जब तक स्त्री का मुंह दिखाई नहीं पड़ा। 

सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी।।
गुण मंदिर सुन्दर पति त्यागी। भजहिं नारी पर पुरुष अभागी।।
अर्थात --- सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण,वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियां गुणों के धाम सुन्दर पति को छोड़कर परपुरुष का सेवन करतीं हैं। 

नारी बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नर मार्केर्ट की नाईं।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मिली जनेऊ लेहिं कूदना।।
हे गोसाईं ! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वष में हैं और बाजीगर के बन्दर की तरह (उनके नचाये) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं। 

बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रही बिरती।। 
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जाट कही।। 
अर्थात ---सन्यासी बहुत धन लगा कर घर सजाते हैं। उनमे वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया है। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात। कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती। 

सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाखंड। 
मान मोह मारादि मद ब्यापी रहे ब्रह्माण्ड।। 
अर्थात--- हे पक्षिराज गरुड़ जी ! सुनिए कलियुग में कपट,हाथ (दुराग्रह ) दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान,मूह और काम ( अर्थात काम क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्ड भर में व्याप्त हो जाते हैं। 
 

श्रुति संमत हरी भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक। 
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।। 
अर्थात -- वेदसम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है ,मोहवश मनुष्य उसपर नहीं चलते और अनेकों नए नए पंथों की कल्पना करते हैं।  


बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गवा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।। 
बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष् का दरवाज़ा है। इसे पा कर भी जिसने परलोक न बना लिया,

सो परत्र दुःख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई। 
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाई।। 
वह परलोक में दुःख पता है,सर पीट पीट कर पछताता है तथा (अपना दोष न समझ कर ) काल पर कर्मपर और ईश्वर पर दोष लगाता है। 

शनिवार, 9 मई 2015

गौहत्या के विकल्प भी हैं






चीन में बहुसंख्यक आज बहुसंख्यक भी गाय का मांस नहीं खाते हैं और यदि किसी बैल को काटने के समय उसकी आँख में आंसूं आ जाते हैं तो अक्सर उसे नज़दीक के मंदिर के पास छोड़ दिया जाता है। 


मैं कुछ असमंजस में पड़ गया जब मैंने पढ़ा कि वर्ष 1994 में भारत ने हॉलैंड से गोबर का आयात किया था।  बात सिर्फ गोबर के आयत पर ख़त्म नहीं होती है, अभी चार दिन पहले 6 मई 2015 को भारत के विभिन्न बन्दरगाहों  पर 851100 किलो रासायनिक खाद जिसका कुल मूल्य 2 अरब 83 करोड़ 62 लाख 4 हज़ार सात सौ इकसठ रुपये होता है विभिन्न देशोशों से आयात की गयी। साल भर में कितनी खाद आयात की जाती है, इसकी गणना आप चाहें तो महिनो से लगा लें , चाहें हफ़्तों से या दिनों से, यदि इतना आयात महीने के हिसाब से भी लगाया जाये तब भी 30 अरब की खाद का आयत भारत करता ही है। 
 कहने को तो भारत विश्व  के डेयरी उत्पादों में 17% का योगदान रखते हुए दूसरे नंबर पर आता है। परन्तु क्या यह जायज़ वजह हो सकती हैं, विश्व में दूध देने वाले चौपाया जानवरों का मांस निर्यात करने में ब्राज़ील के बाद दूसरी पायदान पर खड़े होने के लिए ???? नहीं , क्योंकि -----
2011 में 30000 टन दूध पाउडर और 15000 टन बटर आयल तथा माह अप्रैल 2015 में ही 32 करोड़ 89 लाख 90 हज़ार रुपये का दूध का पाउडर भारत द्वारा आयात किया गया, 

और उसके बाद भी  यूरिया और तेल से बनाये गए दूध के और त्यौहारों में मिलावटी खोये से बनी मिठाईयों के बिकने की ख़बरें हर साल पढ़ने को मिलती हैं। 
आप भी सोच रहे होंगे की रासायनिक खाद के आयात से मैं दूध पाउडर के आयात पर, फिर मिलावटी दूध की बात पर आ गया , कहीं कोई तारतम्य नहीं नज़र आ रहा। शर्तिया मैं आपको यह नहीं बताना चाहता कि कानून का उपहास उड़ाते हुए जितने शेर शिकारियों ने अब हमारे जंगलों में छोड़े हैं उससे ज्यादा शेर चिड़ियाघरों में बंद हैं। आईये उपरोक्त तथ्यों को मद्देनज़र रखते हुए मुद्दे की बात करते हैं। 

पिछले दिनों महाराष्ट्र में गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगने के समय देश की अर्थव्यवस्था की पूरी जानकारी रखने वालों ने मांस उद्योग का देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान माना था। लेकिन मुझे लगता है की उन्हें इजराइल की अर्थव्यवस्था पर निगाह डालनी चाहिए जिसके मांस के उत्पादों पर यूरोपीय देशों ने प्रतिबन्ध लगा रखा है लेकिन उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा या सिंगापुर की अर्थव्यवस्था पर भी निगाह डाल लेनी चाहिए जो की मांस  का बिलकुल निर्यात नहीं करता बल्कि अपनी ज़रुरत / खपत का पूरा का पूरा मांस आयात करता है।


यदि मांस के निर्यात से अर्थव्यवस्था सुधरती तो 1960  में एक करोड़ रुपये का मांस भारत से निर्यात हुआ, 1990 तक आते आते यह 450 करोड़ का हो गया और 2014 में 28500 करोड़ का हो गया,और फरवरी 2015 तक 1591581 MT हो गया  as per Agricultural and processed food Export development authority (APEDA) under Ministry of Commerce,( यहाँ पर यह बात स्पष्ट कर दूँ कि, यह विभाग सिर्फ बड़े चौपाया जानवरों के मांस के निर्यात का ही नियंत्रण करता है , इसमें मुर्गे और बकरियां शामिल नहीं हैं) जो की आने वाले वर्ष में 25% बढ़ने की सम्भावना है।  लेकिन फिर भी भारत का विदेशी क़र्ज़ बढ़ता ही जा रहा है, कहीं से देश की अर्थव्यवस्था सुधरती हुई नज़र नहीं आ रही ,कहीं से गरीबों की संख्या कम नहीं हो रही। 


तर्क देने वाले तर्क देते हैं ,कि रेड मीट के नाम पर तो बैल या भैंस का मॉस बेचा जाता है। लेकिन 1591581 मीट्रिक टन मांस निर्यात करने के लिए इतने बैल और भैंसें आती कहाँ से हैं ??? क्या कहीं खेती हो रही है इन जानवरों की ???यदि मांस के निर्यात की यही गति रही तो कब तक यह बैलों और भैंसों की फसल चलेगी ??  या जैसा की मेरे एक मित्र ने बताया कि ,मांस खाने वाला, भेद और बकरी के मांस के स्वाद में फ़र्क़ कर सकता है, देसी मुर्गी और ब्रायलर के स्वाद में फ़र्क़ कर सकता है , तो क्या गाय का मांस खाने वाले विदेशी गाय और भैंस के मांस में फ़र्क़ नहीं कर पाते ???  या भैंस का मांस किसी गलफहमी में खा जाते हैं ??? 
कहाँ चले गए गाय और भैंस, इस प्रश्न का अपने आने वाली पीढ़ियों को उत्तर देने के लिए हम तो न होंगे लेकिन मुझे कष्ट होता है इन जीवों को मौत से पहले दी जाने वाली यंत्रणा सेजो कि निजी मशीनी कत्लखानों में चमड़ी से दमड़ी निकालने के लिय दी जाती है।भारत में 3600 वैध लाइसेंस शुदा कत्लखाने हैं और 30000 से ज्यादा अवैध कत्लखाने हैं।  एक मध्यम आकार के कत्लखाने की साफ़ सफाई रखने के लिए प्रतिदिन सोलह लाख लीटर पानी इस्तेमाल होता है जो की चार लाख लोगों के पीने के काम आ सकता है।  आदमी तो अपने पीने के पानी के लिए लाइन लगा लेता है , चिल्ला लेता है लेकिन कई कई दिनों के भूखे प्यासे ट्रकों में भूसे की तरह भर कर लए गए जानवरों को इस सोलह लाख लीटर में से दो बूँद पानी मयस्सर नहीं होता।
 इन मूक प्राणियों की जान इतने पर निकल जाये ऐसा नहीं है। सब जानते हैं कि भारत के क़ानून बहुत कठोर हैं और उनका पालन करवाने वाले तो राजा हरिश्चन्द्र की औलादें है। जानवर को काटे जाने से पहले एक पशुचिकित्सक का प्रमाणपत्र चाहिए होता है कि यह जानवर किसी उपयोग का नहीं है , अतः इसे काटा जा सकता है। तो जानवर को पशुचिकित्सक की निगाह में बेकार सिद्ध करने के लिए पहले उसकी टाँगे तोड़ दी जाती हैं, फिर उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं जिससे की पशुचिकित्सक का काम आसान हो जाता है अच्छा खासा जानवर चंद रुपये के टुकड़ों के लिए बेकार कर दिया जाता है। क्या सोच रहे हैं, कि इसके बाद बस जानवर को मशीन पर चढ़ाया और काट दिया, जी नहीं ,इस जानवर का मीट इस्लामी देशों को निर्यात होना है इसलिए इसे अभी हलाल भी किया जायेगा। इस स्थिति से हलाल करने के बीच अभी भीषण दर्द दे कर पाई पाई की वसूली करने के दो कदम और हैं। 
चूँकि मरे हुए जानवर की खाल कड़ी हो जाती है इसलिए उपरोक्त प्रकार से अपंग किये गए जानवर के ऊपर खौलता हुआ पानी डाला जाता है जिससे उसकी चमड़ी नरम और ढीली पड़ जाये।  इसके बाद जीव को एक टांग से  चेन और पुल्ली के सहारे उल्टा लटका कर उसकी गर्दन में चीरा लगा दिया जाता है (हलाल) जिससे की उसके शरीर से खून धीरे धीरे निकल जाये जैसा की हलाल में होता है । यहाँ तक जानवर मरा नहीं होता,लेकिन इस समय उस बेहोश प्राणी के खाल में छेद  करके हवा भरी जाती है जिससे की खाल मांस से अलग हो जाये और जानवर के मरने से पहले ही उसकी खाल  उसके शरीर से अलग कर दी जाती है। बाकि का कटाई छटाई का काम मशीने करतीं है।
एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि इनमे गाय नहीं होतीं, नीचे लगी हुई फोटो गलत बोल रहीं हैं , लेकिन वाकई लानत है हम हिन्दुओं पर कि 49 मुस्लिम देशों में सूअर को घृणा की नज़र से देखा जाता है तो भी वो सूअर को छूते तक नहीं हैं और हिन्दुस्तान जहाँ गौवंश को पूजा जाता है वहां के हिन्दू गौवंश को हलाल कर रहे हैं। हिन्दुओ को दोष इस लिए दे रहा हूँ क्योंकि भारत के अधिकतर बड़े बड़े मीट निर्यातक हिन्दू ही हैं, और जो 28500 करोड़ का व्यापर वर्ष 2013-14 में इन व्यापारियों ने किया उससे  देश और देशवासियों को क्या लाभ हुआ ????पैसा तो इन्ही चंद घरानों ने ही कमाया।  और जब अभी गौहत्या पर महाराष्ट्र में प्रतिबन्ध लगा था तो सबसे ज्यादा पेट में दर्द हिन्दुओं के ही हुआ था। 

बात शुरू हुई थी गोबर खाद, रासायनिक खाद और दूध पाउडर के आयात से, तो भारत की एक बन्दरदरगाह तूतीकोरिन ऐसी भी है जहाँ से गोबर खाद का निर्यात किया जाता है , यहाँ तक कि  पूजा के लिए उपले भी निर्यात किये गए। बेशक यह अभी बहुत छोटे पैमाने पर निजी संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है , लेकिन आज जब हम ऑर्गेनिक सब्ज़ियों के लिए अधिक दाम देते हैं तो हमें क्या ज़रूरत है इतनी मात्रा में रासायनिक खाद आयात करने की ??? 

यदि Central Institute of Agricultural Engineering  की 1990 की रिपोर्ट का संज्ञान लें तो इन जानवरों को खेत में जोतने से 57000 करोड़ का डीजल बचाया जा सकता है। 
हम उन लोगों में से हैं जो दूध के फैट जाने पर रोना  जानते हैं पर उसे रसगुल्ले तब तक नहीं बनाते जब तक कोई विदेशी हमें रसगुल्ले बनाना नहीं सिखाता। इतने चौपायों के गोबर से हम गोबर खाद नहीं बना सकते,या हम इन्ही बैलों को भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में हल जुताई के काम के लिए नहीं भेज सकते ??? प्रकृति की चमड़ी से दमड़ी निकालने के फेर में हम इन पशुओं को वापिस प्रकृति को सौंप कर नेचुरल फ़ूड चेन को स्थापित नहीं कर सकते, पर कम से कम इतना तो कर सकते हैं की मरने वाले जानवर मौत कम से कम दर्दनाक हो। 

मुझे नहीं पता कि आज की तारीख में मेरी सोच वैज्ञानिक ,आर्थिक या व्यवाहरिक भी है नहीं ,लेकिन जिस तरह से जनसँख्या विस्फोट हो रहा है और विदेशों में भारतीय "रेड मीट" की मांग प्रतिदिन बढ़ रही है तो आज से दस साल बाद नहीं तो पचास साल बाद, एक स्थिति ऐसी आएगी जब आने वाली पीढ़ियां हँसेगी जब आप लोग उन्हें बताओगे कि आप सुबह औए शाम भारत में पैदा हुआ दूध बहुत नखरों के साथ पीते थे, जो उस समय उनके लिए विलासिता से कम नहीं होगा।  
घूम फिर कर बात वहीँ अटकती है कि न नेहरू की सरकार ने 20 दिसम्बर 1950 को राज्यों को एक पत्र लिखा जिसका सार यह था कि  में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध न लगाया जाये "क्योंकि काटे गए जानवरों की चमड़ी अपने आप मरे हुए जानवरों की चमड़ी से गुणवत्ता में उत्कृष्ट होती है तथा बाजार में इसका अच्छा दाम मिलता है। जानवरों के न काटे जाने की स्थिति में अच्छी किस्म का चमड़ा जिसके निर्यात द्वारा ज्यादा दाम मिलते हैं नहीं मिलेगा जो कि देश के चमड़े के निर्यात तथा चमड़ा उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। 

  

सोमवार, 4 मई 2015

Mysterious political deaths


नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के हवाई जहाज का कुछ पता नहीं चला , लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु आज भी अपने ऊपर से प्रश्न चिन्ह नहीं हटा पायी , परमाणु वैज्ञानिक डा. होमी जहाँगीर भाभा के हवाई जहाज के तो अवशेष ही नहीं मिले। ये तो नामी हस्तियां थीं, लेकिन और कितने लालच के काल के ग्रास में समाये उनका तो हमें पता ही नहीं है। वैसे इसी श्रृंखला में एक कांड ने अपने समय में बहुत सुर्खियां बटोरीं थीं ,
1971 का बहुचर्चित "नागरवाला काण्ड" के कुछ अनुत्तरित प्रश्न , ( मित्रों! बहुत लोगों को तोइस काण्ड के बारे में जानकारी भी ना होगी, लेकिन यह जानकार दुःख अवश्य होगा कि कैसे किसी काण्ड के रहस्य को शव के कफ़न के साथ लपेटकर दफ़न कर दिया जाता है )
"रुस्तम सोहराब नागरवाला" थल सेना के एक सेवा निवृत्त अधिकारी थे; जिन्होंने कुछ समय के लिए गुप्तचर विभाग में भी कार्य किया था। दिनाँक 24 मई 1971, 'स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया' की 'कनॉट प्लेस' शाखा के हेड कैशियर "श्री इन्दर मल्होत्रा " ने "रुस्तम सोहराब नागरवाला" को 60 लाख रुपये नगद दिए। "इन्दर मल्होत्रा" के अनुसार ऐसा उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री "श्रीमती इंदिरा गांधी" के द्वारा स्वयं फोन पर दिए गए निर्देशों के अनुपालन में किया। जब श्री इन्दर मल्होत्रा इस लेन-देन की औपचारिकतायें पूरी करने प्रधानमन्त्री आवास पहुंचे तो उन्हें एहसास हुआ कि वह ठग लिए गए हैं। नागरवाला की गिरफ्तारी हुई और उन्होंने अपना जुर्म स्वीकार भी कर लिया।
-----------------------अब तक तो आपने यह किसी फ़िल्मी स्टोरी की तरह पढ़ लिया परन्तु इस पूरे प्रकरण में संदेह को एक ख़ास तरफ इंगित करनेवाले प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं ;------
(1) क्या प्रधानमन्त्री पहले भी इन्दर मल्होत्रा को फोन करतीं थीं ? यदि नहीं तो फिर इन्दर मल्होत्रा ने फोन पर प्रधानमन्त्री की आवाज़ को पहचाना कैसे ?
(2) क्या उससे पहले भी कभी इतनी बड़ी रकम (उस समय 60 लाख रुपये), फोनकाल पर बैंक के खजाने से निकालने के प्रसंग थे? जिनके आधार पर उस दिन भी बैंक से इतनी बड़ी रकम निकालकर दे दी गयी।
(3) सबसे अहम् सवाल ; ये पैसा किसका था? किस खाते से इतनी बड़ी रकम निकाली गयी?
उपरोक्त प्रश्नों को तब और भी संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा जब भारत के इतिहास में पहली बार मात्र "तीन दिन" की कानूनी नूरा-कुश्ती के बाद नागरवाला को चार वर्ष की सश्रम कारावास की सजा सुना दी गयी। मार्च 1972 में जेल से नागरवाला ने अपना इकबालिया बयान वापस लेने तथा अपना मुकदमा दुबारा लड़ने की अर्जी दी। संदेह तब और भी अधिक गहरा हो गया, जब इस अर्जी पर पुनर्विचार से पहले ही नागरवाला की जेल में संदेहास्पद मृत्यु हो गयी।
सितम्बर 1972 में संदेह की सुई ये अनुत्तरित प्रश्न अपने पीछे छोड़कर हमेशा के लिए ठहर गयी; जब इस पूरे प्रकरण की जाँच कर रहे पुलिस अधिकारी की कार और ट्रक की भिड़न्त में मृत्यु हो गयी .…। इस घटना की जाँच की रफ़्तार तो वहीँ रुक गयी परन्तु पूर्व प्रधानमन्त्री "श्री लाल बहादुर शास्त्री जी" की रहस्यमय मृत्यु से खुली राजनैतिक षड्यंत्रों की इस किताब में एक और काला अध्याय जुड़ गया। इस घटना की जांच को किस प्रकार रोका गया या वक्त की परतों में कहाँ दब गयी कुछ नहीं पता चला
------------बस याद रह गया तो सिर्फ अकबर इलाहबादी का एक अशरार ------
"हर इक से सुना नया फ़साना हमने
देखा दुनिया में इक ज़माना हमने
अव्वल ये था कि वाकफियत पे था नाज़
आखिर ये खुला कि कुछ न जाना हमने "


किसने और कैसे कैसे खून पिया मारुती मोटर्स का

-"छलनी बोली सुई से तेरे पेट में छेद" -----

जी राहुल जी आज कल बहुत किसानों के हित की बात कर रहे हैं , सरकार द्वारा किसानों के दोहन की बात कर रहे हैं, भूमि अधिग्रहण फिर उस पर औद्योगीकरण के खिलाफ झंडा बुलंद किये हैं। मुझे यह तो नहीं पता वे सही कर रहे हैं या नहीं लेकिन मुझे इतना ज़रूर पता है कि जब इन सब प्रथाओं की नींव रखी जा रही थी तो उसके एक शेयर होल्डर ये खुद भी थे।
जी वैसे तो इन प्रथाओं का चलन कांग्रेस में कब से है, इसक ज़िक्र फिर कभी करेंगे लेकिन राहुल गांधी के सन्दर्भ में पहले पांच तिथियों का संज्ञान लेना बहुत आवश्यक है। 1) राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 ,2) इनके चाचा , स्वर्गीय संजय गांधी द्वारा " मारुती टेक्निकल सर्विसेज " नाम की प्राइवेट कंपनी नवम्बर 1970 में बनाना। इस कंपनी के 99% शेयर संजय, सोनिया ,प्रियंका और राहुल के नाम थे 3) "मारुती मोटर्स लि. की घोषणा 04 जून 1971 4) मार्च 06,1978 पँजाब और हरयाणा हाई कोर्ट ने मारुती मोटर्स को दिवालिया घोषित कर दिया और इसकी Liquidation के आदेश पारित कर दिए। 5) जिस मारुती में आप चलते हैं, उसे अरुण नेहरू ने सुजुकी मोटर्स के साथ मिल कर दिसम्बर 1983 में निकाला था।
पहली बात तो आप यह समझ ले जिस मारुती में आप चलते हैं यह वो मारुती नहीं है जिसका खून पी पी कर संजय गांधी और सोनिया गांधी ने उसे मार डाला। बहुत ज्यादा विस्तार में नहीं लिखूंगा, बस इतना जान लीजिये -------
1) संजीव गांधी, इंग्लॅण्ड Rolls Royce कम्पनी में प्रशिक्षु बन कर गए। तीव्र गति से ( कभी कभी चुरा कर ) कार चलाने के शौकीन " संजीव गाँधी " अपनी दून स्कूल की पढाई अधूरी छोड़ कर लंदन की मशहूर कार कंपनी " रॉल्स रॉयस" में apprenticeship के लिए गए। दिसंबर 1966 में बिना लाइसेंस के तीव्र गति से कार चलाने के कारण उन्हें हिरासत में ले लिया गया तथा उनका पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया गया। इंग्लॅण्ड में तत्कालीन राजदूत कृष्णा मेनन ने " संजय गांघी" के नाम से दूसरा पासपोर्ट बनवाया तथा 1967 की शुरुआत में अपनी apprenticeship अधूरी छोड़ कर जो शख्स भारत वापिस आया उसका नाम था "संजय गांधी"।
13 नवम्बर 1968 को तत्कालीन Minister of state, for Industrial Development, ललित नारायण मिश्रा ने लोक सभा को बताया कि 22 वर्ष का एक नौजवान जनता की कार बनाना चाहता है जिसकी कीमत होगी रुपये 6000 /- तथा यह कार एक लीटर में 85 कि.मी प्रति घंटे की रफ़्तार से 90 कि.मी चलेगी। Mazda, Toyota, Ford ,Nissan, Renault, Citreon , Morris सरीखी 14 कंपनियों ने इस कार को बनाने के लिए आवेदन दिए परन्तु नवम्बर 1970 की मंत्रिमण्डल की बैठक की अध्यक्षता कर रही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को संजय गांधी का प्रस्ताव सबसे उपयुक्त लगा, और उन्होंने तत्कालीन सचिवों ( I.A.S) एवं विपक्ष के विरोध के बावज़ूद संजय गांधी के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी, जबकि; संजय गाँधी के पास प्रबंधन या कार बनाने की कोई तकनीकी जानकारी नहीं थी।
नवम्बर 1970 में किस तरह से पक्षपातपूर्ण रवैये से "संजय गांधी" को मारुती कार बनाने का लाइसेंस मिला। चूँकि संजय गांधी को पूर्ण विश्वास था कि लाइसेंस उन्हें ही मिलेगा तो उन्होंने पहले से ही 16 नवम्बर 1970 को मारुती टेक्निकल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड ( MTSPL) नाम की एक निजी कम्पनी का गठन किया जिसकी Paid Up Capital थी रुपये 2. 15 लाख , जिसमे रुपये 1.25 लाख संजय गांधी ने लगाये थे। इसके अन्य शेयर होल्डर थे " सोनिया गांधी ", "राहुल ", "प्रियंका गांधी " एवं " श्रॉफ। कुल मिला कर परिवार की इस कम्पनी में 99% की भागीदारी थी।
संजय गाँधी पर सवाल उठे कि इतनी बड़ी रकम आयी कहाँ से? प्रश्न दीग़र इसलिए था क्यूंकि उनकी माँ और तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कुछ ही दिन पूर्व देश के प्रति अपने त्याग की मिसाल देते हुए कहा था कि; ''मेरे पास कोई जमीन जायदाद और सम्पत्ति नहीं है.....…।"
लेकिन MTSPL को बनाने की मंशा तब और खुलकर सामने आ गयी जब जून 1971 में बनी मारुती लिमिटेड ने एक करार के तहत MTSPL की मैनेजिंग डायरेक्टर श्रीमती सोनिया गाँधी (जो कि दसवीं पास हैं ) को तकनीकी जानकारी देने के लिए प्रतिमाह 2500 रु वेतन, कुल लाभांश पर 1% कमीशन, बोनस, ग्रेच्युटी, प्रोविडेंड फण्ड, चिकित्सीय खर्च, मुफ्त यात्रा, house allowance, टेलीफोन तथा मय पेट्रोल और ड्राइवर कार मारुती लिमिटेड द्वारा दी गयी.।
इसी के साथ MTSPL और मारुती लिमिटेड के साथ एक और करार हुआ जिसका सार यह था कि मारुती लिमिटेड, MTSPL को डिज़ाइन, मैन्युफैक्चरिंग और assembling of cars की expertise प्रदान करने के लिए बिकी हुयी कारों की कुल कीमत का 2% देगा। इस अनुबंध को सम्मानित करने के लिए मारुती लिमिटेड ने 5 लाख रु की पहली किश्त भी दे दी. इस प्रकार MTSPL के शेयर होल्डरों ने मात्र तीन महीने में ना सिर्फ अपनी पूरी लागत निकाल ली बल्कि अगले ढाई साल में 3. 06 लाख अतिरिक्त कमा लिए जो की मूल निवेश रु 2.15 लाख रुपये का 150% होता है।
इसके साथ ही शुरू हो चुका था मारुती लि., बैंको तथा वित्तीय संस्थानों का दोहन जिसका सिलसिलेवार ज़िक्र मै अपनी अगली पोस्ट में करुँगा । सनद रहे कि अभी हम ज़िक्र कर रहे हैं वर्ष 1971 का जबकि जिस मारुती से आप वाकिफ हैं वो "मारुती 800" मई 1983 में सुजुकी कम्पनी के सहयोग से बनी मारुती उद्योग लि. नाम की नवगठित कम्पनी से बाहर आयी थी न की जून 1971 में गठित मारुती ली. से ।
प्रधानमंत्री की स्वीकृति के बाद तत्कालीन Cabinet Minister for Industries 'श्री दिनेश सिंह' (श्रीमती गाँधी के अत्यंत करीबी ) ने संजय गांधी को 50,000 कारें प्रतिवर्ष निर्मित करने का लाइसेंस 1970 में ही जारी कर दिया।
अतिउत्साह या राजनीतिक दबाव के कारण Industrial Finance Corporation ने बिना किसी जमानत के 1971 में उस वर्ष का सबसे बड़ा loan, 17 करोड़ रूपए; मात्र एक हफ्ते के रिकॉर्ड समय में दे दिया। कागजी कम्पनी को मूर्त रूप देने के लिए ज़रुरत थी जमीन की, जिसका इंतज़ाम किया हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री 'बंसीलाल' ने..... क्यूंकि ये गांधी परिवार के और नज़दीक आना चाहते थे। 1500 छोटे बड़े किसानों से बाज़ार भाव से 1/5वें दाम पर 300 एकड़ वर्जित ज़मीन खरीदी गयी। वर्जित इसलिए क्यूंकि गुड़गांव में जहाँ ये जमीन खरीदी गयी वहाँ से मात्र 1000 मीटर की दूरी पर वायुसेना का सैन्य प्रतिष्ठान था तथा सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ कोई भी औधोगिक इकाई नहीं लगायी जा सकती थी..... लेकिन देश की सुरक्षा को ताक पर रखकर, सब कायदे कानूनों का उल्लंघन कर किसानों किसानों की मर्ज़ी के खिलाफ कम कीमतों पर जबरन ज़मीने ले ली गयीं ( इसी तरह के सौदों के लिए वर्ष 2011-12 में राहुल गाँधी ने भट्टा परसौल के किसानों के साथ पूर्ण सहानुभूति दिखाई थी परन्तु शायद वह ये नहीं जानते थे कि ये रिवाज तो कांग्रेस का ही शुरू किया हुआ है ) और इस काम का पारितोषक श्रीमती इंदिरा गांधी ने बंसीलाल को Defence Minister बनाकर दे दिया। फैक्टरी लगाने के लिए और पैसा चाहिए था तो 1971 में देश भर के 75 Auto Dealers से बांह मरोड़कर 5-5 लाख रुपये यह कहकर वसूले गए, कि; 1972 में उन्हें कार उपलब्ध करा दी जायेगी। इस सारे घटनाक्रम में संजय गांधी का साथ दिया ललित नारायण मिश्रा ने..... (शायद इन्हीं बिहारी बाबू जी की वसूली अभियान की नींव पर लालू प्रसाद यादव ने अपनी बेटी मीसा भारती की शादी में 1999 में 24 छोटी-बड़ी गाड़ियां जबरन auto showroom से उठवा ली थी, जिसकी FIR टाटा ने मुम्बई में की थी)
अब सफ़र शुरू हुआ वसूले गए इन पैसों को खर्चने का..... संजय गाँधी, जिन्होंने कार बनाने का पूरा प्रोजेक्ट मंत्रिमंडल में स्वीकृति के लिए दे दिया था, अब वह ये जानना चाहते थे; कि विदेशों में कारें कैसे बनायी जाती हैं? इसलिए वह अपनी टीम के साथ जर्मनी, इटली, इंग्लॅण्ड, तथा चेकोस्लोवाकिया यात्रा पर चले गए और ये पूरा टूर प्रायोजित किया मारुती लिमिटेड के चेयरमैन ने। हद तो तब हो गयी जब इतने सारे देश; इतनी बड़ी टीम के साथ घूमने के बाद लौटकर उन्होंने कहा कि, '' मेरी ऑब्जरवेशन में इन विदेशी कम्पनियों से हमारे सीखने लायक कुछ भी नहीं था"…।
मारुति कारखाना लगाने के लिए चाहिए थे 60 करोड़ लेकिन अब तक जमा हो पाये थे 6 करोड़ ही तो "संजय गांधी" ने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पंजाब नेशनल बैंक तथा सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया से बिना जमानत के कम बयाज दर पर 75 -75 लाख रूपये का क़र्ज़ ले लिया। लेकिन बैंकों ने जब हवा में बनते प्रोजेक्ट पर और पैसा देने पर एतराज जताया तथा रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर ने भी मारुति लि. को और क़र्ज़ देने पर रोक लगा दी तो, आपातकाल लगते ही रिज़र्व बैंक के गवर्नर एस. जगन्नाथन , डिप्टी गवर्नर आर. के हज़ारी, सेंट्रल बैंक के चेयरमैन तनेजा को बेआबरू कर के बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। यहाँ से शुरू हुई भ्रष्टता में साथ न देने पर बलि लेने की प्रथा।
1972 में दिल्ली में लगे ट्रेड फेयर में जिस टिन की बनी हुई मारुती को प्रदर्शित किया गया उसका इंजन कुछ किलोमीटर चलने पर गर्म हो जाता था, 4000 कि. मी चलने पर लीक होने लगता था, उसके दरवाज़े हॉर्न से जयादा आवाज़ करते थे, तथा सस्पेंशन स्पाट सडकों पर भी काम नहीं करता था। कार विशेषज्ञों, पत्रकारों तथा राजनीतिज्ञों ने जब इस मॉडल की तीखी आलोचना की तो इस कार को ट्रक पर लाद कर Vehicle research and development establishment ( VRDE) अहमदनगर भेजा गया। 6 हफ़्तों के feasibility test इस मॉडल ने बहुत आसानी से पास कर लिया तथा 30 मार्च 1974 को आशा के अनुरूप इसे clearance certificate भी मिल गया। अब लोगों को कार के साथ साथ VRDE की कार्यशैली पर भी शक होने लगा था।
1972 में सबको यह बताया गया था कि 1973 के पूर्वार्द्ध में कार बिकने के लिए बाजार में आ जाएगी। न आने का कारण इंजन में विसंगतियां बताया गया। 1974 में बताया गया कि कार बस बनने की कगार पर है। 1975 में बताया गया कि कार्य प्रगति पर है। 1976 में मारुति के अधिकारियों के अनुसार कर बननी शुरू हो गयी है लेकिन वैश्विक मंदी के चलते Board of Directors ने फैसला लिया है की इसका उत्पादन घटा दिया जाये। शायद उपरोक्त बयानों से जनता बहल रही थी लेकिन जनता और विपक्ष के सब्र का बाँध तब टूट गया जब अप्रैल 1977 की Foreign Press Journalist Association के साथ एक प्रेस वार्ता में संजय गाँधी से जब मारुति के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था कि हम कर बनाने के औज़ारों पर काफी प्रगति कर चुके हैं।
घाटे में डूबी हुई मारुती को जनता सरकार ने 1977 में उबारने से मना कर दिया और 06 मार्च 1978 पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने दिवालिया घोषित कर के बंद करने के आदेश दे दिए।
23 जून 1980 को संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। अपने पुत्र के सपने को दुबारा जीवित करने का काम इंदिरा गांधी नेहरू को सौंपा और ग्लोबल टेंडर के बाद सुजुकी के साथ कोलबोरशन के बाद दिसम्बर 1983 को पहली मारुती कार की चाबी श्री हरपल सिंह जी को इंदिरा गांधी ने सौंपी।