ज़ख़्मों पे ज़ख्म झेले दागों पे दाग खाए।
कतरा ए खूने दिल ने क्या क्या सितम उठाये।
भाषा के विषय में मैं पहले ही लिख चूका हूँ कि 1947 में आज़ादी के समय भारत के 18% लोग ही शिक्षित थे तब भी नेहरू ने अपना पहला भाषण "Tryst With Destiny",आम जान की बोलचाल की भाषा हिंदी में न दे कर अंग्रेजी में ही दिया था। भाषा के विषय में संविधान सभा ने जो कुछ किया वह एक प्रकार से समझौैता ही था। नेहरू ने संविधान में स्वीकार की गयी राष्ट्रभाषा का अपने पूर्ण राज्यकाल में विरोध किया। उसकी प्रगति में बाधा डाली और उसकी हंसी उड़ाई।
संविधान में हिंदी को पन्द्रह वर्ष के उपरांत राष्ट्र भाषा बनाना, दो पक्षों में समझौता था। नेहरू ने राष्ट्र भाषा विरोधियों को भड़काया और फिर उनको सहायता दी। परिणाम यह हुआ कि कम से कम एक राज्य ( आज की तारीख में तमिलनाडु) इस विषय पर केन्द्र से सर्वथा बागी हो रहा है। देश की एक भाषा हो,जिसमे देश की शिक्षा और राज्य कार्य चल सकें , एक स्वाभाविक आकांक्षा है, परन्तु आज आज़ादी के 67 वर्ष बाद भी यह बात सम्पन्न होती कठिन प्रतीत होती है।
बात आज से पूरे 100 वर्ष पहले की करते हैं, उस समय भी कांग्रेस में ऐसे अंग्रेजीदां भरे पड़े थे जो ज़मीनी हकीकत से वाकिफ नहीं थे। इनका विरोध करने वाले "तिलक,विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय" इत्यादि थे,परन्तु उनको दादा भाई नौरोजी ,फिरोज़शाह मेहता ,सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने कांग्रेस में घुसने नहीं दिया। जब 1914-15 में इस गुट का प्रभाव बढ़ा तो महात्मा गांधी मैदान में आ गए और इनके साथी बन गए मोतीलाल नेहरू, मौलाना, और मुहम्मद अली इत्यादि। सन 1936 में गांधी ने हिंदी साहित्य सम्मलेन से सम्बन्ध विछेद कर के हिंदुस्तानी भाषा को बदनाम करने में अपना योगदान ही दिया। "हिंदुस्तानी" लगभग हिंदी ही मानी जाती थी। मुसलमानो के सुभीते के लिए संस्कृत शबों के स्थान पर कुछ उर्दू के प्रचलित शब्दों इस्तेमाल करने का रिवाज़ चल रहा था, परन्तु हिंदी साहित्य सम्मलेन से त्यागपत्र दे कर संस्कृतनिष्ठ हिंदुस्तानी को निंदनीय बताया और उसके स्थान पर फ़ारसी और आरबीनिष्ठ भाषा को हिंदुस्तानी स्वीकार किया, और देश में विरोध शुरू हो गया हिंदी का विशेषकर बंगाल और तमिलनाडु में।
1948 के जस्टिस धार कमीशन, 1953 के " State Rorganization Commission" की भाषा और संस्कृति के आधार पर राज्यों के गठन न करने की संस्तुतियों को भी नेहरू ने दरकिनार कर दिया और इसके साथ नेहरू और कांग्रेसियों ने भाषा और भाषावाद का एक भूत खड़ा कर एक बानी बनायीं राष्ट्रभाषा को पीछे फेंक दिया ,अन्यथा देश में 70 लोग हिंदी समझते थे और समझते हैं।
गौहत्या ---- 1926 में देश में निर्वाचन हुआ था, उस समय कांग्रेस के प्रतिद्वंदी स्वराजिस्ट हुआ करते थे जिसकी अगुवाई मालवीय जी और लाल लाजपत राय सरीखे नेता कर रहे थे। इन चुनावों में कांग्रेस की कुछ प्रांतों में जब दुर्गति हुई तो "मोती लाल नेहरू ने जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसका छोटा सा अंश यहाँ पर लिख रहा हूँ। -------- " यह मेरे सामर्थ्य के बाहर था कि मैं इस प्रकार के प्रचार का विरोध कर सकता , जो कि मेरे विरुद्ध किया गया है। यह प्रचार "मालवीय -लाला" गुट ( gang ) के संरक्षण में चला है। प्रत्यक्ष रूप से कहा जा रहा है कि मैं हिन्दुओं का विरोधी और मुसलामानों का समर्थक हूँ। निजी रूप से लगभग प्रत्येक वोटर को यह कहा गया है कि मैं गौमांस भक्षक हूँ और मुसलामानों से मिलकर गौहत्या,सब स्थानों पर और सब समयों पर कर सकने के लिए कानों बनवाने के पक्ष में हूँ। "श्याम जी" ने इस प्रचार में बहुत भाग लिया है। वह कह रहा है कि मैंने उसका गौरक्षा सम्बन्धी बिल असेम्बली में उपस्थित होने से रुकवाया है। वह फैज़ाबाद डिवीज़न से खड़ा हुआ है। "
1893 में उत्तर प्रदेश के मऊ और आजमगढ़ जिले में गौहत्या के चलते तीन दिन के भयंकर दंगे हुए थे, 1917 में पहली बार गांधी ने कहा था की 30000 गायें (एक करोड़ दस लाख गायें भारत में प्रतिवर्ष) कट रही हैं, 1927 में भी गांधी ने कहा था की स्वराज के बाद हमारा पहला काम गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगवाना होगा। क्यों ???? जब हर मांग को मनवाने के लिए बात बात पर सत्याग्रह करने वाले गांधी ने इस मुद्दे पर तभी अनशन क्यों नहीं किया ????
1940 में कांग्रेस का एक धड़ा गौहत्या के विरुद्ध था तो दूसरे ने इसकी पुरज़ोर मुखालफत की और यह तर्क रखा कि इससे विदेशी मुद्रा कमाई जा सकती है।
नवम्बर 1947 में गठित सरदार बहादुर दातार सिंह कमेटी ने गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध की संस्तुति की थी और यह सब जानते हैं कि 20 दिसंबर 1950 को सरदार दातार सिंह कमेटी की श्गौहत्या के विरुद्ध संस्तुतियों को नेहरू सरकार ने कूड़े की टोकरी में डाल कर सभी राज्यों को गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध न लगाने के लिए एक अधिसूचना जारी कर दी थी।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बात बात में संविधान को घसीटने वाले, गौ एवं गौवंश की हत्या सम्बंधित अनुछेद 38 A ,जिसमे बदलाव बदलाव कर के संविधान का अनुछेद 48 बनाया गया को क्यों भूल जाते हैं ?????
बात बात पर संविधान की दुहाई देने वाले संविधान के अनुछेद 343 (1) को क्यों भूल जाते हैं जिसमे संविधान के लागु होने के 15 वर्षों पश्चात यानि कि 26 जनवरी 1965 से हिंदी भाषा का देवनागरी लिपि में प्रयोग होना तय हुआ था ???
"माँ भारती" के लिए तो अब यही कहा जा सकता है ----
ज़ख़्मों पे ज़ख्म झेले दागों पे दाग खाए।
कतरा ए खूने दिल ने क्या क्या सितम उठाये।