शनिवार, 9 मई 2015

गौहत्या के विकल्प भी हैं






चीन में बहुसंख्यक आज बहुसंख्यक भी गाय का मांस नहीं खाते हैं और यदि किसी बैल को काटने के समय उसकी आँख में आंसूं आ जाते हैं तो अक्सर उसे नज़दीक के मंदिर के पास छोड़ दिया जाता है। 


मैं कुछ असमंजस में पड़ गया जब मैंने पढ़ा कि वर्ष 1994 में भारत ने हॉलैंड से गोबर का आयात किया था।  बात सिर्फ गोबर के आयत पर ख़त्म नहीं होती है, अभी चार दिन पहले 6 मई 2015 को भारत के विभिन्न बन्दरगाहों  पर 851100 किलो रासायनिक खाद जिसका कुल मूल्य 2 अरब 83 करोड़ 62 लाख 4 हज़ार सात सौ इकसठ रुपये होता है विभिन्न देशोशों से आयात की गयी। साल भर में कितनी खाद आयात की जाती है, इसकी गणना आप चाहें तो महिनो से लगा लें , चाहें हफ़्तों से या दिनों से, यदि इतना आयात महीने के हिसाब से भी लगाया जाये तब भी 30 अरब की खाद का आयत भारत करता ही है। 
 कहने को तो भारत विश्व  के डेयरी उत्पादों में 17% का योगदान रखते हुए दूसरे नंबर पर आता है। परन्तु क्या यह जायज़ वजह हो सकती हैं, विश्व में दूध देने वाले चौपाया जानवरों का मांस निर्यात करने में ब्राज़ील के बाद दूसरी पायदान पर खड़े होने के लिए ???? नहीं , क्योंकि -----
2011 में 30000 टन दूध पाउडर और 15000 टन बटर आयल तथा माह अप्रैल 2015 में ही 32 करोड़ 89 लाख 90 हज़ार रुपये का दूध का पाउडर भारत द्वारा आयात किया गया, 

और उसके बाद भी  यूरिया और तेल से बनाये गए दूध के और त्यौहारों में मिलावटी खोये से बनी मिठाईयों के बिकने की ख़बरें हर साल पढ़ने को मिलती हैं। 
आप भी सोच रहे होंगे की रासायनिक खाद के आयात से मैं दूध पाउडर के आयात पर, फिर मिलावटी दूध की बात पर आ गया , कहीं कोई तारतम्य नहीं नज़र आ रहा। शर्तिया मैं आपको यह नहीं बताना चाहता कि कानून का उपहास उड़ाते हुए जितने शेर शिकारियों ने अब हमारे जंगलों में छोड़े हैं उससे ज्यादा शेर चिड़ियाघरों में बंद हैं। आईये उपरोक्त तथ्यों को मद्देनज़र रखते हुए मुद्दे की बात करते हैं। 

पिछले दिनों महाराष्ट्र में गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगने के समय देश की अर्थव्यवस्था की पूरी जानकारी रखने वालों ने मांस उद्योग का देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान माना था। लेकिन मुझे लगता है की उन्हें इजराइल की अर्थव्यवस्था पर निगाह डालनी चाहिए जिसके मांस के उत्पादों पर यूरोपीय देशों ने प्रतिबन्ध लगा रखा है लेकिन उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा या सिंगापुर की अर्थव्यवस्था पर भी निगाह डाल लेनी चाहिए जो की मांस  का बिलकुल निर्यात नहीं करता बल्कि अपनी ज़रुरत / खपत का पूरा का पूरा मांस आयात करता है।


यदि मांस के निर्यात से अर्थव्यवस्था सुधरती तो 1960  में एक करोड़ रुपये का मांस भारत से निर्यात हुआ, 1990 तक आते आते यह 450 करोड़ का हो गया और 2014 में 28500 करोड़ का हो गया,और फरवरी 2015 तक 1591581 MT हो गया  as per Agricultural and processed food Export development authority (APEDA) under Ministry of Commerce,( यहाँ पर यह बात स्पष्ट कर दूँ कि, यह विभाग सिर्फ बड़े चौपाया जानवरों के मांस के निर्यात का ही नियंत्रण करता है , इसमें मुर्गे और बकरियां शामिल नहीं हैं) जो की आने वाले वर्ष में 25% बढ़ने की सम्भावना है।  लेकिन फिर भी भारत का विदेशी क़र्ज़ बढ़ता ही जा रहा है, कहीं से देश की अर्थव्यवस्था सुधरती हुई नज़र नहीं आ रही ,कहीं से गरीबों की संख्या कम नहीं हो रही। 


तर्क देने वाले तर्क देते हैं ,कि रेड मीट के नाम पर तो बैल या भैंस का मॉस बेचा जाता है। लेकिन 1591581 मीट्रिक टन मांस निर्यात करने के लिए इतने बैल और भैंसें आती कहाँ से हैं ??? क्या कहीं खेती हो रही है इन जानवरों की ???यदि मांस के निर्यात की यही गति रही तो कब तक यह बैलों और भैंसों की फसल चलेगी ??  या जैसा की मेरे एक मित्र ने बताया कि ,मांस खाने वाला, भेद और बकरी के मांस के स्वाद में फ़र्क़ कर सकता है, देसी मुर्गी और ब्रायलर के स्वाद में फ़र्क़ कर सकता है , तो क्या गाय का मांस खाने वाले विदेशी गाय और भैंस के मांस में फ़र्क़ नहीं कर पाते ???  या भैंस का मांस किसी गलफहमी में खा जाते हैं ??? 
कहाँ चले गए गाय और भैंस, इस प्रश्न का अपने आने वाली पीढ़ियों को उत्तर देने के लिए हम तो न होंगे लेकिन मुझे कष्ट होता है इन जीवों को मौत से पहले दी जाने वाली यंत्रणा सेजो कि निजी मशीनी कत्लखानों में चमड़ी से दमड़ी निकालने के लिय दी जाती है।भारत में 3600 वैध लाइसेंस शुदा कत्लखाने हैं और 30000 से ज्यादा अवैध कत्लखाने हैं।  एक मध्यम आकार के कत्लखाने की साफ़ सफाई रखने के लिए प्रतिदिन सोलह लाख लीटर पानी इस्तेमाल होता है जो की चार लाख लोगों के पीने के काम आ सकता है।  आदमी तो अपने पीने के पानी के लिए लाइन लगा लेता है , चिल्ला लेता है लेकिन कई कई दिनों के भूखे प्यासे ट्रकों में भूसे की तरह भर कर लए गए जानवरों को इस सोलह लाख लीटर में से दो बूँद पानी मयस्सर नहीं होता।
 इन मूक प्राणियों की जान इतने पर निकल जाये ऐसा नहीं है। सब जानते हैं कि भारत के क़ानून बहुत कठोर हैं और उनका पालन करवाने वाले तो राजा हरिश्चन्द्र की औलादें है। जानवर को काटे जाने से पहले एक पशुचिकित्सक का प्रमाणपत्र चाहिए होता है कि यह जानवर किसी उपयोग का नहीं है , अतः इसे काटा जा सकता है। तो जानवर को पशुचिकित्सक की निगाह में बेकार सिद्ध करने के लिए पहले उसकी टाँगे तोड़ दी जाती हैं, फिर उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं जिससे की पशुचिकित्सक का काम आसान हो जाता है अच्छा खासा जानवर चंद रुपये के टुकड़ों के लिए बेकार कर दिया जाता है। क्या सोच रहे हैं, कि इसके बाद बस जानवर को मशीन पर चढ़ाया और काट दिया, जी नहीं ,इस जानवर का मीट इस्लामी देशों को निर्यात होना है इसलिए इसे अभी हलाल भी किया जायेगा। इस स्थिति से हलाल करने के बीच अभी भीषण दर्द दे कर पाई पाई की वसूली करने के दो कदम और हैं। 
चूँकि मरे हुए जानवर की खाल कड़ी हो जाती है इसलिए उपरोक्त प्रकार से अपंग किये गए जानवर के ऊपर खौलता हुआ पानी डाला जाता है जिससे उसकी चमड़ी नरम और ढीली पड़ जाये।  इसके बाद जीव को एक टांग से  चेन और पुल्ली के सहारे उल्टा लटका कर उसकी गर्दन में चीरा लगा दिया जाता है (हलाल) जिससे की उसके शरीर से खून धीरे धीरे निकल जाये जैसा की हलाल में होता है । यहाँ तक जानवर मरा नहीं होता,लेकिन इस समय उस बेहोश प्राणी के खाल में छेद  करके हवा भरी जाती है जिससे की खाल मांस से अलग हो जाये और जानवर के मरने से पहले ही उसकी खाल  उसके शरीर से अलग कर दी जाती है। बाकि का कटाई छटाई का काम मशीने करतीं है।
एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि इनमे गाय नहीं होतीं, नीचे लगी हुई फोटो गलत बोल रहीं हैं , लेकिन वाकई लानत है हम हिन्दुओं पर कि 49 मुस्लिम देशों में सूअर को घृणा की नज़र से देखा जाता है तो भी वो सूअर को छूते तक नहीं हैं और हिन्दुस्तान जहाँ गौवंश को पूजा जाता है वहां के हिन्दू गौवंश को हलाल कर रहे हैं। हिन्दुओ को दोष इस लिए दे रहा हूँ क्योंकि भारत के अधिकतर बड़े बड़े मीट निर्यातक हिन्दू ही हैं, और जो 28500 करोड़ का व्यापर वर्ष 2013-14 में इन व्यापारियों ने किया उससे  देश और देशवासियों को क्या लाभ हुआ ????पैसा तो इन्ही चंद घरानों ने ही कमाया।  और जब अभी गौहत्या पर महाराष्ट्र में प्रतिबन्ध लगा था तो सबसे ज्यादा पेट में दर्द हिन्दुओं के ही हुआ था। 

बात शुरू हुई थी गोबर खाद, रासायनिक खाद और दूध पाउडर के आयात से, तो भारत की एक बन्दरदरगाह तूतीकोरिन ऐसी भी है जहाँ से गोबर खाद का निर्यात किया जाता है , यहाँ तक कि  पूजा के लिए उपले भी निर्यात किये गए। बेशक यह अभी बहुत छोटे पैमाने पर निजी संस्थाओं द्वारा किया जा रहा है , लेकिन आज जब हम ऑर्गेनिक सब्ज़ियों के लिए अधिक दाम देते हैं तो हमें क्या ज़रूरत है इतनी मात्रा में रासायनिक खाद आयात करने की ??? 

यदि Central Institute of Agricultural Engineering  की 1990 की रिपोर्ट का संज्ञान लें तो इन जानवरों को खेत में जोतने से 57000 करोड़ का डीजल बचाया जा सकता है। 
हम उन लोगों में से हैं जो दूध के फैट जाने पर रोना  जानते हैं पर उसे रसगुल्ले तब तक नहीं बनाते जब तक कोई विदेशी हमें रसगुल्ले बनाना नहीं सिखाता। इतने चौपायों के गोबर से हम गोबर खाद नहीं बना सकते,या हम इन्ही बैलों को भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में हल जुताई के काम के लिए नहीं भेज सकते ??? प्रकृति की चमड़ी से दमड़ी निकालने के फेर में हम इन पशुओं को वापिस प्रकृति को सौंप कर नेचुरल फ़ूड चेन को स्थापित नहीं कर सकते, पर कम से कम इतना तो कर सकते हैं की मरने वाले जानवर मौत कम से कम दर्दनाक हो। 

मुझे नहीं पता कि आज की तारीख में मेरी सोच वैज्ञानिक ,आर्थिक या व्यवाहरिक भी है नहीं ,लेकिन जिस तरह से जनसँख्या विस्फोट हो रहा है और विदेशों में भारतीय "रेड मीट" की मांग प्रतिदिन बढ़ रही है तो आज से दस साल बाद नहीं तो पचास साल बाद, एक स्थिति ऐसी आएगी जब आने वाली पीढ़ियां हँसेगी जब आप लोग उन्हें बताओगे कि आप सुबह औए शाम भारत में पैदा हुआ दूध बहुत नखरों के साथ पीते थे, जो उस समय उनके लिए विलासिता से कम नहीं होगा।  
घूम फिर कर बात वहीँ अटकती है कि न नेहरू की सरकार ने 20 दिसम्बर 1950 को राज्यों को एक पत्र लिखा जिसका सार यह था कि  में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध न लगाया जाये "क्योंकि काटे गए जानवरों की चमड़ी अपने आप मरे हुए जानवरों की चमड़ी से गुणवत्ता में उत्कृष्ट होती है तथा बाजार में इसका अच्छा दाम मिलता है। जानवरों के न काटे जाने की स्थिति में अच्छी किस्म का चमड़ा जिसके निर्यात द्वारा ज्यादा दाम मिलते हैं नहीं मिलेगा जो कि देश के चमड़े के निर्यात तथा चमड़ा उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। 

  

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