जब जहाज डूब जाता है तो हर कोई बता सकता है कि ; उसे कैसे बचाया जा सकता था। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हर कोई कह सकता है कि कांग्रेस का जहाज डूब रहा है। लेकिन अब तो जहाज उस स्थिति में पहुँच गया है जहाँ से उसे डूबने से फिलहाल नहीं बचाया जा सकता। बहुत से कारण हैं इस जहाज के डूबने के। हर व्यक्ति अपने नज़रिये से हार के कारणों का फलसफा बयां कर सकता है। प्रबंधन का छात्र होने के नाते मेरी नज़र में कांग्रेस ने कुछ ऐसी Strategic Mistakes कीं; जिसकी उसे बहुत बड़ी कीमत अदा करनी होगी।
बात यहाँ है "कांग्रेस" की सामरिक गलतियों की। यदि कांग्रेस के पिछले दस वर्षों का आंकलन देश के वर्तमान परिदृश्य में करें तो दस वर्षों का समय बहुत होता है किसी भी देश को तरक्की की राह पर दिशा देने के लिए। लेकिन अवसरवादी चाटुकारों से घिरी सोनिया जी ने बंद कमरे से रिमोट से जो सरकार चलाने की कोशिश की उसने कांग्रेस को गर्त की किस सीढ़ी पर ले जा कर खड़ा कर दिया है उसका सही आंकलन तो 16 मई के बाद ही हो पायेगा लेकिन सट्टा बाजार में कांग्रेस के सरकार बनाने के जो भाव चल रहे है उससे यह तय है की कांग्रेस की सरकार नहीं बन रही है। कांग्रेस और इसके रणनीतिकारों ने पिछले दस वर्षों में गलतियां कीं लेकिन कहा जा सकता है कि गलतियां उसी से होती हैं जो काम करता है परन्तु अफ़सोस यह की कांग्रेस ने बिना काम किये ऐसी गलतिया की जिसकी कीमत उसे इन लोकसभा चुनावों में तो चुकानी ही पड़ेगी साथ ही में इन अक्षम्य गलतियों से इसने जो अपनी प्रतिष्ठा खोयी है वह पुनः वापिस पा पायेगी या नहीं यह पूर्णतया निर्भर करता है आने वाले पांच वर्षों में सरकार चलने वालों पर। जिन गलतियों की वजह से कांग्रेस आज इस दयनीय स्थिति में खड़ी है उसके बहुत से कारण हैं। परन्तु कांग्रेस और UPA -2 की भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक बड़ी सामरिक गलती थी कि उसने कैग जैसी संवैधानिक संस्था द्वारा उजागर भ्रष्टाचार के ऊपर उंगली उठा कर उसे ही कटघरे में खड़ा कर दिया। सब तरह के कुतर्क दिए पढ़े लिखे सिब्बल और चिदंबरम सरीखे मंत्रियों ने। चाहें 2G स्पेक्ट्रम की बात करें, या coalgate घोटाले की। आदर्श घोटाले को उठाएं या कॉमनवेल्थ गेम्स को -- कांग्रेस और इनके साथी दलों के मंत्री उनमे पूर्णतः लिप्त पाये गए। यदि कांग्रेस के रणनीतिकारों में ज़रा सी भी दूरदर्शिता होती और 2014 के चुनावों पर निगाह होती अथवा ज़रा से भी देश हित के प्रति चिंतित होते अथवा अपनी ईमानदार नीयत; जिसे सिद्ध करने के लिए कांग्रेस ने चुनाव प्रचार में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है ,तो उन्हें इन घोटालों पर विपक्ष के हंगामें से पहले ही जांच बैठा देनी चाहिए थी। इससे विपक्ष के हमलों की धार भी कुंद हो जाती और कांग्रेस की साफ़ नीयत भी सामने आ जाती। लेकिन उनकी नीयत निःसंदेह नेक नहीं थी इसीलिए गृह मंत्री तो यहाँ तक कह गए की "जनता बोफोर्स की तरह इन घोटालों को भी भूल जाएगी"। यहाँ गृह मंत्री ये भूल गए कि परिपेक्ष्य देश काल और परिस्थिति के साथ बदलते हैं। आज संवाद और मीडिया खासतौर पर सोशल मीडिया 80 के दशक वाला नहीं रह गया है कि आप आम जनता की उद्वेलित भावनाओं को अपनी प्रचार तंत्र की स्याही से रंग कर सिर्फ वही दिखायेगे जो आप दिखाना चाहते हैं। आज यदि आप दूरदर्शन को अपना भोंपू बनाते हैं तो दर्जनों ऐसे टीवी चैनल हैं जो आपको कटघरे में खड़ा करने के लिए कृतसंकल्प है। यहाँ मात्र और मात्र नेकनीयती ही कांग्रेस मदद कर सकती थी। संजय बारु की किताब के मुताबिक प्रधानमंत्री अपनी ईमानदार छवि से संतुष्ट थे और धृतराष्ट्र की तरह सब कुछ जानते हुए भी अपनों के द्वारा किये गए भ्रष्टाचार पर मौन रहे। यह सही है की इतिहास उन्हें एक ईमानदार प्रधानमंत्री कहने के साथ उन पर उसी तरह से बेईमान होने का भी आक्षेप भी लगाएगा कि वे एक ऐसे रिमोट से चलने वाले नाकामयाब एवं कमज़ोर प्रधानमंत्री थे जो प्रधानमंत्री की नैतिक ज़िम्मेदारियों का ईमानदारी से निर्वहन नहीं कर पाये।
कांग्रेस की दूसरी बड़ी सामरिक गलती थी कि देश की बजाये एक परिवार के प्रति प्रतिबद्धता जो कि कांग्रेस के लगभग पतन का दूसरा बड़ा कारण है। राहुल गांधी की तुलना दुर्योधन से तो नहीं की जा सकती लेकिन सोनिया का पुत्र मोह देशप्रेम अथवा कांग्रेस के प्रति निष्ठां से कहीं आगे निकल गया। सोनिया जी देश की चिंता छोड़ कर यदि कांग्रेस की ही चिंता करतीं तो भी उन्हें निकट के इतिहास से सबक ले ले चाहिए थे कि जब उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में जहाँ राहुल गाँधी ने जी जान लगा दी थी, या मणिपुर को छोड़ कर अन्य चार राज्यों में जब राहुल गांधी का जादू नहीं चला तो पूरे देश में भी तो वही हवा चल रही होगी। दिग्गजों से भरी हुई कांग्रेस को गांधी परिवार और राहुल गांधी के आगे कुछ नज़र नहीं आया। यदि कांग्रेस राहुल गांधी को ही आगे लाना चाहती थी तो उसे अपने 10 वर्षों के कार्यकाल में मोदी के गुजरात मॉडल से बड़ी लकीर खींचनी चाहिए थी जिसके आगे मोदी बौने साबित होते। और राहुल गांधी को चाहिए था की अपराधियों के चुनाव लड़ने से सम्बंधित बिल को राष्ट्रपति के पास भेजने से पहले ही उसकी पुरज़ोर मुखालफत करते नाकि प्रेस कॉन्फ्रेंस में उसको " नॉनसेंस" कह कर फाड़ कर प्रधानमंत्री की बेइज़्ज़ती करते। या आदर्श घोटाले के अपराधियों सीबीआई की रिपोर्ट से पहले ही अपने पक्ष को रख कर कांग्रेस को शर्मसार होने से बचा लेते। दूसरी तरफ कांग्रेस को 2012 के गुजरात विधानसभा के नतीजों के बाद उन उदघोषों को सुन लेना चाहिए था जहाँ जनता मोदी से दिल्ली जाने के अपील कर रही थी। लेकिन कांग्रेस और इसके सहयोगी दल इस ग़लतफहमी के शिकार रहे कि मोदी को गुजरात दंगों के विवाद में उलझाये रखेंगे। लेकिन हुआ बिलकुल इसके विपरीत। मोदी तो गुजरात दंगों से कभी के बाहर आ गए थे और अपनी उपलब्धियां गिना रहे थे और कांग्रेस नकारात्मक प्रचार के ज़रिये अपनी ही जड़ें खोदने में समय गवांता रहा।
कांग्रेस की तीसरी और सबसे बड़ी गलती "आप" को जन्म देना था। "आप" की पैदाइश कांग्रेस और भ्रष्टाचार के नाजायज़ संबंधों की वजह से हुयी। यदि कांग्रेस आधा शताब्दी तक देश पर राज करने के पश्चातभी यह नहीं समझ पायी की देश की जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है तो उसे नैतिक रूप से ही देश पर राज नहीं करना चाहिए था। इसमें भी कांग्रेस ने वक़्त वक़्त पर बेईमानों को प्रश्रय दे कर अपने आप को कटघरे में खड़ा कर दिया था। और कांग्रेस ने यदि अप्रैल 2011 में जंतर मंतर पर अन्ना आंदोलन की लोकपाल बिल की मांग को मान लिया होता तो उस आंदोलन की फूंक वहीँ पर निकल गयी होती। लेकिन कांग्रेस इस आंदोलन से जनित संभावनाओं को आंक ही नहीं पायी और उसने जुलाई 2011 को रामलीला मैदान से अन्ना के आंदोलन को जबरदस्ती महीनों खिंचवा कर अपने ताबूत में आखिरी कील भी ठोंक ली। और इसी आंदोलन से पैदा हुई "आप " पार्टी जिसने दिल्ली में कांग्रेस का पूरी तरह से मान मर्दन कर दिया और देश को यह सन्देश दे दिया कि कांग्रेस अविजयी नहीं है।
किसी शायर ने बहुत खूब कहा है, पर शायद कांग्रेस के सिपहसालारों ने शायद नहीं सुना होगा, और 16 मई के बाद सरकार बनाने वालों को सुन लेना चाहिए -----
अपने किरदार को मौसम से बचाये रखना
लौट कर आती नहीं है फूलों में दुबारा खुशबू
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें