जब कभी हिन्दू हित की बात कीजिये, तो एक टिप्पणी जरूर आती है कि हिन्दू कभी एक नहीं हो सकते। अधिकतर मैं इस टिप्पणी से सहमत होता हूँ, क्योंकि फेसबुक पर आपको अक्सर बहुत ही सुन्दर हिन्दू धर्म और संस्कृति से ओत प्रोत नाम से ऐसी पोस्ट लगभग हर रोज़ मिल जाएगी जिस की शुरुआत वे करते हैं," वैसे तो हम नास्तिक है" उसके बाद उनका धर्म होता है "हिन्दुओं की आस्था पर कठोरतम शब्दों में कुठाराघात करना। अपने लेखों में ज्ञान की ऐसी विवेचना करते हैं जैसे वेद,पुराण और हिन्दू धर्म के असली ज्ञाता और पूर्ण मर्मज्ञ वही हैं। बहुत लोग दार्शनिकों की भाषा का प्रयोग करते हुए लिखते हैं की मतभेद है मनभेद नहीं ---------
क्या आपने सोचा क्यों करते हैं वे ऐसा ???? और हिन्दुओं में धर्म और मान्यताओं को लेकर मतभेद क्यों है ???? विश्लेषण किया जाये ????
पृष्ठ 464 ,"The Life & letters of Macaulay" में Otto Trevlyn ने मेकॉले के एक पत्र का ज़िक्र किया जिसका हिंदी रूपांतरण इस प्रकार है ----" कोई हिन्दू जिसने अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण की है, कभी भी सत्य ह्रदय से हिन्दू ग्रन्थ से सम्बद्ध नहीं रह सकता। कुछ मौखिक रूप से अपने को हिन्दू कहते हैं, केवल नीति के विचार से ईसाई हो जाते हैं। यह मेरा पक्का विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा की विधि चलती रही तो हिन्दू प्रतिष्ठित बंगाली परिवारों में तीस वर्षों में कोई भी मूर्तिपूजक हिन्दू नहीं रहेगा। "
कितनी सटीक सोच थी मैकाले की , कि 1815 में हिन्दू धर्मग्रंथों के आधार पर "राजा राम मोहन राय" हिन्दू धर्म में आई कुरीतियों को दूर करने के लिए जिस "ब्रह्मसमाज "की स्थापना की थी 1870-71 में वही ब्रह्मसमाज और राजा राम मोहन राय के उत्तराधिकारी केशवचन्द्र सेन "बाइबिल" को अपना धर्मग्रन्थ मानने लग गए थे।
अगली पंक्तियाँ पढ़ने से पहले यह तो सबको ज्ञात ही होगा कि अंग्रेजों द्वारा प्रस्तावित English Education Act, 1835 लागु कर दिया गया था जिसे कि 1820 में उस समय के एक लाख रुपये प्रतिवर्ष खर्च के हिसाब से योजना की गयी थी । यह भी सभी के संज्ञान में है कि भारतीय संस्कृति की रीढ़ की हड्डी तोड़ने तथा लम्बे समय तक भारत पर राज करने के लिए 1835 में ब्रिटिश संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त करने के लिए मैकाले ने क्या रणनीति सुझायी थी तथा उसी के तहत IIndian Education Act- 1858 लागु कर दिया गया। इस पृष्ट्भूमि के परिपेक्ष्य में कई लोगों में से दो का ज़िक्र कर रहा हूँ, की कमज़ोर बुद्धि वालों का अंग्रेजी शिक्षा लेने के बाद दिमाग कैसे फिरता है। 1869 में पैदा हुए और 1888 में इंग्लैंड पढने गए, एक थे "मोहनदास करम चंद गांधी" से उनकी शिक्षा समाप्ति के अंत में एक अंग्रेज़ ने यह पूछा की वे इंग्लैंड में किस कारण आये थे ??? तो गांधी का जवाब यह था ---
" मैंने मन में विचार किया कि यदि मैं इंग्लैंड जाऊंगा तो मैं न केवल बैरिस्टर बन जाऊंगा वरन मैं इंग्लैंड, मीमांसकों और कवियों के देश को देखूंगा जो सभ्यता के केंद्र स्थान हैं " Quoted by Pyare Lal in "Mahatma Gandhi"Phase 1 Page no 224
और दूसरे साहब थे " सैयद अहमद" अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक। इन साहब ने जो ज्ञान वहां प्राप्त किया तो उसकी रौशनी साइंटिफिक सोसाइटी को अपने पात्र में लिखते हैं कि --"हिन्दुस्तान के रहने वाले, धनी निर्धन ,पढ़े-लिखे ,अनपढ़ की जब अंग्रेज़ों से शिक्षा में , व्यवहार में ,स्वाभाव में तुलना की जाती है तो ऐसे लगते हैं जैसे एक योग्य सुन्दर मनुष्य के सामने एक गन्दा जानवर हो। " Quoted by Pyare lal in Mahatma Gandhi, The early Phase Page no-16
उपरोक्त कथनों से आप समझ ही गए होंगे कि 1890 के दशक तक अंग्रेजी शिक्षा ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था और तत्कालीन भविष्य के कर्णधारों को अपने देश और संस्कृति हीं और निकृष्ट नज़र आने लग गए थे। इसी वक़्त 1885 में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की नींव एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज के रूप में सैयद अहमद ने रखी और उधर "ऐलन ओक्टेविअन ह्यूम" ने 1885 में ही "इंडियन नेशनल कांग्रेस" की नींव रखी जिसको तीन दिन बाद " Three Times Three Cheers for Her Majesty the Queen Empress " से सम्पन्न किया गया। इस कांग्रेस के विषय में बस इतना ही लिखूंगा कि ह्यूम ने इसमें अंग्रेजी पढ़े हुए स्नातकों को इसमें वरीयता दी और इसके अधिवेशनों में अंग्रेजी पढ़े लिखे ही डेलिगेट बन सकते थे और सबसे अहम बात यह कि 1917-18 तक इस कांग्रेस के अधिवेशनों का आरम्भ अंग्रेजी कौमी गीत " God Save The King " से होता था और अंत " Three Cheers For the King of England & Emperor Of India" से होता था।
आंग्ल शिक्षा पद्धति और ह्यूम वो शिक्षा भारतियों को देना चाहते थे जिससे की स्कूल और कॉलेज के पढ़े लिखे बच्चन के मस्तिष्क में यह बिठा दिया जाये कि ---
1) हिन्दू आर्यों की संतान हैं और वे इस हिंदुस्तान के रहने वाले नहीं हैं। वे कहीं बहार से आये हैं और यहाँ के आदिवासियों को मार मार कर तथा उनको जंगलों में भगाकर उनके नगरों और सुन्दर हरे-भरे मैदानों में स्वयं रहते हैं।
2) हिन्दुओं के देवी देवता पत्थर की मूर्तियां हैं। ये बुतपरस्त हिन्दू महामूर्ख और अनपढ़ हैं।
3) हिन्दुओं का कोई इतिहास नहीं है और यह इतिहास अशोक के काल से आरम्भ होता है।
4) राम, कृष्ण आदि की बातें झूठे किस्से कहानियां हैं।
5) वेद, जो हिन्दुओं की सर्व मान्य पूज्य पुस्तकें हैं ,गड़रियों के गीतों से भरी पड़ी हैं।
6) हिन्दू सदा से दास रहे हैं --कभी शकों के, कभी हूणों के, कभी कुषाणों के और कभी पठानों तुर्कों और मुगलों के।
7) रामायण तथा महाभारत काल्पनिक किस्से कहानियां हैं।
कांग्रेस आज कुछ भी कहे, लेकिन 1902 के अहमदाबाद के इसके अधिवेशन के प्रधान के पद से "सुरेन्द्र नाथ बनर्जी " ने कहा था " We plead for the permanance of British rule in India" ( हम हिदुस्तान में अंग्रेजी राज्य सदा के लिए चाहते हैं)।
संक्षेप में,अंग्रेज़ों ने भारत में अपना शासन सुदृण करने के लिए त्रिमुहि रणनीति तैयार की थी ---
1) मैकाले की शिक्षा नीति का अक्षरश लागू करना
2) सर ह्यूम की कांग्रेस को स्थापित करना
3) मुसलमानों को अंग्रेजी शासन का सहायक बनाना
( Excerpts from "Hindutav ki Yatra " By Gurudutt)
15 अगस्त 1947, को आज़ादी मिली, क्या बदला ????? रंगमंच से सिर्फ अंग्रेज़ बदले बाकि सब तो वही चला। अंग्रेज़ गए तो सत्ता उन्ही की मानसिकता को पोषित करने वाली कांग्रेस और नेहरू के हाथ में आ गयी। नेहरू के कृत्यों पर तो किताबें लिखी जा चुकी हैं पर सार यही है की वो धर्मनिरपेक्ष कम और मुस्लिम हितैषी ज्यादा था। न मैकाले की शिक्षा नीति बदली और न ही शिक्षा प्रणाली। शिक्षा प्रणाली जस की तस चल रही है और इसका श्रेय स्वतंत्र भारत के प्रथम और दस वर्षों (1947-58) तक रहे शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलम आज़ाद को दे ही देना चाहिए बाकि जो कसर बची थी वो नेहरू की बिटिया मेमुना बेगम ने तो आपातकाल में विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास भी बदल कर पूरी कर दी ।
जिस आज़ादी के समय भारत की 18.73% जनता साक्षर थी उस भारत के प्रधानमंत्री ने अपना पहला भाषण "tryst With Destiny" अंग्रेजी में दिया था और उसका पड़पोता राहुल गांधी विद्यालयों में संस्कृत पढ़ाये जाने के विरोध में 2014 में भी यही मानता है कि यदि अंग्रेजी न होती तो भारत इतनी तरक्की नहीं कर पाता। और हम यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि पता नहीं जर्मनी, जापान,चीन इजराइल ने अपनी मातृभाषाओं में इतनी तरक्की कैसे कर ली।
क्या हमारी शिक्षा में आज यह पढ़ाया जा रहा है ----
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम्। ------ अर्थात , वेदव्यास के 18 पुराणों में दो वचन (श्रेष्ट) हैं, परोपकार करना एक पुण्य है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है।
यदि 67 वर्षों में आरक्षण देने के साथ ही वेद भी पढ़ा दिए गए होते तो जाती के आधार पर वैमनस्यता के जहर की खेती काटने वालों के हंसिए की धार कुंद की जा सकती थी ---
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्या द्वैश्यात्तथैव च।---- अर्थात श्रेष्ठ -अश्रेष्ठ कर्मो के अनुसार शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। जो ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के गुणों वाला हो वह उसी वर्ण का हो जाता है।
यदि वेद पढ़ाये गए होते तो समाज में प्रतिदिन स्त्रियों का मान मर्दन नहीं होता -
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रेता तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफलाः क्रियाः । ------अर्थात जिस कुल में नारियों की पूजा अर्थात सत्कार होता है उस कुल में (देवता) दिव्यगुण होते हैं और जिस कुल में स्त्रियों की पूजा नहीं होती वहां जानो उनकी सब क्रिया निष्फल है।
पूरे वेदो का यहाँ उद्धरण संभव नहीं है, लेकिन वेदों के अनुसार धर्म क्या है ??? जो भी ज्ञानी व्यक्ति अतिउत्साह में वेदो और हिन्दू धर्म की आलोचना करके मूर्खों और अज्ञानियों के बीच अपने आप को बुद्धिमान सिद्ध करने का प्रयास कर रहे है, उन्हें पहले वेद निहित धर्म की परिभाषा को भली प्रकार समझ लेना चाहिए ---
धृति:क्षमा दमो $स्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्ष्णम्। -------- अर्थात (धृति) सदा धैर्य रखना, (क्षमा) जो कि निन्दा स्तुति मान-अपमान, हानि -लाभ आदि दुखों में भी सहन शील रहना, (दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत कर अधर्म से रोक देना ,(अस्तेय)चोरी त्याग अर्थात बिना आज्ञा व छल कपट,विश्वासघात व् किसी व्यवहार तथा वेद विरुद्ध उपदेश से पर पदार्थ का ग्रहण करना चोरी और इस छोड़ देना सहकारी कहलाता है ,पांचवां (शौच) राग द्वेष ,पक्षपात भीतर और जल मृतिका,मार्जन आदि से बहार की पवित्रता रखनी,छठा -(इन्द्रिय निग्रह) अधर्माचरणो को रोक कर इन्द्रियों को धर्म में ही सदा चलाना,सातवां --( धीः ) मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ, दुष्टों का संग,आलस्य ,प्रमाद आदि को छोड़ कर श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन ,सत्पुरषों का संग,योगाभ्यास से बुद्धि बढ़ाना ; आठवां --( विद्या) पृथ्वी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना ;सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में ,जैसा वाणी में वैसा कर्म में बरतना ,इससे विपरीत अविद्या है ,नवमां -- (सत्य ) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना ,वैसा ही बोलना ,वैसा ही करना भी ; तथा दशवाँ --(अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ कर शान्त्यादि गुणों को ग्रहण करना (धर्मलक्षणम् ) धर्म का लक्षण है।
यदि वेद पढ़ाये गए होते तो समाज आज भ्रस्टाचार और व्यभिचार में इतना लिप्त न होता , और हिन्दू धर्म पर उंगली उठाने वालों को निम्न श्लोक भी याद होते।
श्रूयतां धर्मं सर्वस्वं श्रुत्वा चैवाव धार्यताम्।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत। अर्थात ---- जो जो गुण कर्म स्वाभाव आचरण व व्यवहार आपको अपने लिए अच्छा नहीं लगता, जिसे आप अपने साथ कराने के लिए तैयार नहीं हैं, वैसा प्रतिकूल आचरण व्यवहार आपको भी दूसरों के साथ कदापि नहीं करना चाहिए। यही धर्म है।
"आहारं निद्रा भयमैथुनं च समानमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मोहि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना:पशुभिः समाना:। अर्थात ----भोजन करना,सोना ,डरना व संतति उत्पन्न करना आदि गुण कर्म स्वाभाव पशुओं और मनुष्यों में सामान रूप से है। मनुष्यों में एकमात्र धर्म ही है जो विशेष रूप से अधिक है, जो किसी भी प्राणी को मनुष्य बनाता है। अन्यथा धर्म से हीन मनुष्य तो पशु सामान ही है।
प्रिय हिन्दू धर्म के आलोचकों, पाश्चत्य शिक्षा और सभ्यता के पीछे उतना ही भागिए जितने से आप अपने संस्कारवान माँ बाप को मात्र गोरी चमड़ी के सामने उपहास न उड़ने लगें। जब इतना पाश्चत्य शिक्षा का आपके ऊपर असर है तो Newton's Third Law भी याद रखा करिये,Which says ,Every action has an equal and Opposit reaction,
हम तो यूँ भी धर्म को बहुत मानते हैं, कहीं ऐसा न हो हम "आहिंसा परमोधर्म:", के आगे का भाग आपको बताने के लिए मजबूर हो जाएँ ---"धर्मं हिंसा थतैव च "
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